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रविवार, 24 जून 2012

महिलाओं की अवनति (Mahilaon ki awanati by Rokeya Sakhawat Hossain)


महिला पाठको ! क्या आपने कभी अपने ग़मगीन हालात के बारे सोचा है? इस सभ्य बीसवीं सदी वाली दुनिया में हम क्या हैं? गुलामों से अधिक कुछ भी नहीं हैं हम ! कोई कहता है कि गुलामों की खरीद-फरोख्त का खात्मा हो गया है, लेकिन क्या हमलोग गुलामी से आज़ाद हैं? हम अब भी गुलाम क्यों बनी हुई हैं? इसकी कुछ वजहें हैं.
...दुनिया भर में हमारे हालात में आए पतन की वजह के बारे में क्या कोई भी बता सकता है? शायद मौकों की किल्लत अहम वजह रही है. महिलाओं को काफी मौके नहीं मिले और उन्होंने बुनियादी मसलों में शिरकत करना बंद कर दिया. जब पुरुषों को यह लगा कि महिलाएँ अयोग्य और असमर्थ हैं तो उन्होंने उनकी मदद करनी शुरू कर दी. धीरे-धीरे अधिक संख्या में पुरुषों ने महिलाओं की ओर मदद का हाथ बढ़ाया और उसके साथ ही महिलाएँ अधिक अक्षम बनती चली गईं. उस समय हमारी स्थिति की तुलना अपने देश के भिखारियों से की जा सकती थी. धनी परोपकारी लोग धार्मिक कारणों से जितना अधिक दान करते हैं, भिखारियों की संख्या उतनी ही बढ़ती हुई दिखाई देती है. धीरे-धीरे दान लेने में किसी तरह की शर्मिन्दगी का अहसास नहीं करनेवाले आलसी लोगों के लिए भीख माँगना एक अंशकालिक पेशा ही बन गया. 
इसी तरह हम भी आत्मसम्मान का भाव भुला देने के कारण दान की तरह मिली मदद को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाती हैं. इसीलिए हम आलसी और एक तरीके से पुरुषों की गुलाम बन गई हैं. समय के साथ हमारा दिमाग भी गुलाम हो गया है और लम्बे वक्त से गुलामों की तरह काम करते रहने के कारण हमें भी इस गुलामी की आदत सी हो गई है. इस तरह हमारी दिमागी काबिलियत खुद पर भरोसा अथवा साहस भी इस्तेमाल नहीं किए जाने के कारण बार-बार दम तोड़ने लगी और अब तो यह काबिलियत पैदा भी नहीं होती है.         
...जिस तरह हमारे सोनेवाले कमरों में सूरज की रोशनी नहीं जाती है, उसी तरह ज्ञान का प्रकाश भी हमारे दिमाग के दरवाज़े खोल कर अन्दर नहीं जा पाता. हमारे लिए स्कूल और कॉलेज लगभग नहीं के बराबर हैं. पुरुष चाहे जितना पढ़ाई कर सकते हैं, लेकिन ज्ञान की तिजोरी क्या कभी हमारे लिए भी खोली जाएगी? अगर कोई नेक और उदार शख्स आगे आकर मदद का हाथ भी बढ़ाता है तो हज़ारों लोग उस रास्ते में रुकावटें खड़ी करने के लिए आ खड़े होते हैं.
हज़ारों लोगों द्वारा खड़ी की गई रुकावटों को किनारे रखते हुए आगे बढ़ना किसी एक आदमी के बस का काम नहीं है. उम्मीद की इस टिमटिमाहट के लौ बनाने के पहले ही नाउम्मीदी के गहरे अँधेरे में ग़ुम हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. अधिकतर लोग इस मसले पर इतने अन्धविश्वासी हैं कि जब भी वे 'महिला शिक्षा' जैसा कोई शब्द सुनते हैं, वे अपने दिमाग में 'महिला शिक्षा के बुरे असर' जैसी स्थिति की कल्पना करने लगते हैं और ज़ोर-ज़ोर से काँपने लगते हैं. समाज एक अनपढ़ महिला की सैंकड़ों गलतियों को खुशी-खुशी माफ़ कर देता है, लेकिन जब किसी थोड़ी-बहुत शिक्षित महिला से गलती हो जाती है तो समाज उसकी गलतियों को सौ गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने लगता है और इस गलती के लिए उसकी 'शिक्षा' को ही दोषी ठहराया जाने लगता है, भले ही वह महिला दोषहीन क्यों न हो. उस समय सैंकड़ों लोग व्यंग्य भरे लहजे में एक सुर में कहने लगते हैं कि 'हम तो इस महिला शिक्षा के आगे अपना सर झुकाते हैं.'

      
        लेखिका - बेगम रुकैया सखावत हुसैन, 1921
        बांगला से अंग्रेज़ी अनुवाद - बरनीता बागची
        अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रंजीत अभिज्ञान और योगेन्द्र दत्त 
        स्रोत - 'वीमेन इन कॉन्सर्ट'(प्रकाशन-स्त्री,कलकत्ता और
        'जेंडर और शिक्षा रीडर', भाग दो (प्रकाशन-निरंतर,दिल्ली)

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