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शनिवार, 29 सितंबर 2012

गिनती में दुख (Gintee mein dukh by Ashok Vajpeyi)



जब भी मैं कोई गिनती करता हूँ
दुख उसमें पता नहीं कैसे और कहाँ से जुड़ जाता है l
अपनी बस्ती में गिनता हूँ नीम के चार पेड़ तो पाँचवाँ पेड़ दुख का l
रखता हूँ कुँजड़े द्वारा तीन-चार थैलों में भर कर दी गईं चार-पाँच सब्ज़ियाँ
और पाता हूँ कि उसमें अतकारी हरी धनिया की तरह 
उसने अपना दुख भी रख दिया है l
मुझे कुछ घबराहट हुई
जब मैं गिन रहा था
अपने पोते की गुल्लक में भरे सिक्के :
मैंने उन्हें गिनना शुरू किया
- वह मुझे जल्दी गिनती पूरी करने के लिए तंग सा कर रहा था -
और पाया कि उन सिक्कों में से कुछ पर
घिसने के बावजूद दुख की चमक थी
जिसे मैं अपने पोते से छिपा गया l
मैं अपनी लायब्रेरी से उठाता हूँ 
अपने प्रिय फ़िलीस्तीनी कवि का नया संग्रह
और देखता हूँ कि उसमें बुकमार्क की तरह
रखा हुआ है पुराना बिसर गया दुख l

पानी के गिलास में धोने के बावजूद लगी रह गई राख सा दुख,
दाल में कंकड़ सा किरकिराता दुख,
रोटी पर हल्की घी की चुपड़न के नीचे कत्थई चिट्टे सा उभरा दुख,
पुरानी चप्पलों में एड़ियों में धीरे-धीरे गड़ता दुख,
खिड़की पर धूप में कीड़े की तरह रेंगता दुख l
कहानी में बताये जाते हैं सात कमरे -
जिनमें से आख़िरी को खोलना मना है ;
कोई नहीं बताता कि आठवाँ कमरा दुख का है
अदृश्य पर हमेशा खुला हुआ
बल्कि थोड़ा-थोड़ा हर कमरे में बसा हुआ l
मैं नहीं जानता था
कि हमारे समय में जीने के 
गणित और व्याकरण दोनों
दुख को जोड़े बिना संभव नहीं हैं,
जैसे कविता भी नहीं l


कवि - अशोक वाजपेयी (2003)
संग्रह - विवक्षा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

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