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शनिवार, 22 सितंबर 2012

किस्सा जनतंत्र (Kissa jantantra by Dhoomil)



करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता 
चुपचाप जलता है और जलता रहता है 

औरत -
गवें गवें उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है l
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती) 
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है 

बच्चे आँगन में -
आँगड़  बाँगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ 
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ-साथ 
चलता है और चलता रहता 

बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती बालकिशुन आधे में आधा
कुल रोटी छै  
और तभी मुँहदुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँहदुब्बर 
पेट भर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है 

और अब -
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज़
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन  
दुहराने लगती है 
वक्त घड़ी से निकलकर
अँगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दन्तटूटी कंघी 
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर - 
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढढ्ढा साइकिल 
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ 
दफ़्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब 
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को 
चूमना -
देखो, फिर भूल गया l'  


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

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