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शनिवार, 1 सितंबर 2012

माँ (Maa by Nandkishore Nawal)



माँ अभी गाँव से आई थी 
दो हफ्ते मेरे साथ रही

उससे बातें करने के लिए
मैं समय कम ही निकाल पाता था
पर जब कभी उसमें सफल होता था
उसके पास बैठता था
पर थोड़ी देर में ही विषय चुक जाते थे
समझ में नहीं आता था कि गाँव-घर
परिजन-पुरजन
खेत-पथार के अलावा
और क्या बतियाएँ माँ से

माँ की दुनिया बहुत ही छोटी है
अखबार, रेडियो, टेलीविजन
कलकत्ता, भोपाल, दिल्ली
साहित्य-राजनीति-अर्थशास्त्र
सारी चीजें उसके लिए बेकार

लिहाजा वह ज्यादातर अकेली बैठी रहती थी
करीब अस्सी की उम्र
शिथिल शरीर
सीमित भाषा
सीमित आवश्यकता
सीमित सरोकार

माँ बहुत बोर होती रही

मैंने पत्नी से कहा कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद
माँ का गाँव पर रहना ही अच्छा है
उसके जीवन के लिए
हमारे इस कहने के आधार के लिए 
कि हमारी अभी जीवित है

आखिर वह दिन भी आ पहुँचा
जब माँ ने कहा कि वह गाँव लौटेगी

रिक्शा बुलाया गया
माँ को उस पर बैठाया गया
वह फूट-फूटकर रो पड़ी 
उसे इस तरह रोते मैंने कभी नहीं देखा था
जैसे अंतिम बार अलग हो रही हो वह अपने बेटे से

मैंने अपने को रोकते हुए
रिक्शावाले को रिक्शा बढ़ाने को कहा
ठीक वैसे
जैसे मन कड़ा कर कहते थे किसान कहारों से 
डोला उठाओ
जब उनकी लड़की पछाड़ खाती थी विवाह के बाद बिदागरी के 
समय
डोले के भीतर 

माँ चली गई
पर अपनी छोटी दुनिया के डायनामाइट से 
उड़ाती गई मेरी बड़ी दुनिया को
तबसे मैं बेचैन हूँ
न माँ की छोटी दुनिया में हूँ
न अपनी बड़ी दुनिया में




कवि - नंदकिशोर नवल
संकलन - नील जल कुछ और भी धुल गया
संपादक - श्याम कश्यप
प्रकाशक - शिल्पायन, दिल्ली, 2012

पापा अपनी माँ को ईया पुकारते थे और हमलोग अपनी दादी को मामा. आज भी मुझे वे दिन याद हैं जब मामा पटना से चाँदपुरा लौटती थी और हर बार पापा उनके लिए रिक्शा बुलाकर लाते थे. मामा की रुलाई का मतलब अब समझ में आता है जब मैं माँ-पापा से विदा लेकर अलग होती हूँ.  

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