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बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

बन्धु ! जरूरी है (Bandhu jaroori hai by Ramgopal Sharma 'Rudra')



बन्धु ! जरूरी है मुझको घर लौटना,
एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर 

देर तनिक हो गई वहाँ, बाजार में, 
मोल-तोल के भाव और व्यवहार में ;
आईना था एक अनोखी आब का,
इन्द्रजाल-सा था जिसके दीदार में ;
        मैं गरीब ले सका न अपने भाव पर 

सनक नहीं तो क्या कहिए, इस ठाट को -
कौड़ी लेकर साथ, चला था हाट को,
जहाँ प्रसाधन बिकते हैं शृंगार के ! -
कौन पूछता मुझ-जैसे बेघाट को ? 
        पड़ता रहा नमक ही मेरे घाव पर !

हल्का हूँ, कुछ खास न हूँगा भार मैं ;
निर्धन हूँ, दे सकता हूँ, बस, प्यार मैं ;
गीत सुनाऊँगा मीरा के, सूर के ;
ले लेना, जो पाऊँगा दो-चार मैं ;
        कृपा करो अब, सर धरता हूँ पाँव पर      


कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (1.11.1912 -19.8.1991)
किताब - रुद्र समग्र 
संपादक - नंदकिशोर नवल 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

आज नानाजी होते तो 100 साल के होते l उनका यह गीत मैंने उनके स्वर में सुना है और अक्सर अपनी माँ व सबसे छोटी बेबी मौसी के स्वर में भी l हम भाई-बहनों के लिए यह काफी जाना-पहचाना है और आज नानाजी को याद करते हुए एक बार फिर गुनगुनाने का मन कर रहा है : 
बन्धु ! जरूरी है मुझको घर लौटना,
एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर 

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

घंटी (Ghantee by kunwar Narayan)


फ़ोन की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूँ
          और करवट बदलकर सो गया l

दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूँ
          और करवट बदलकर सो गया l

अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूँ
          और करवट बदलकर सो गया l

एक दिन 
मौत की घंटी बजी...
हड़बड़ा कर उठ बैठा - 
मैं हूँ - मैं हूँ - मैं हूँ 
          मौत ने कहा -
          करवट बदलकर सो जाओ l

       
कवि - कुँवर नारायण 
संकलन - इन दिनों 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

रहलीं करत दूध के कुल्ला (Rahaleen karat doodh ke kulla by Vishvanath Prasad Shaida)


रहलीं करत दूध के कुल्ला
छिल के खात रहीं रसगुल्ला
सखी हम त खुल्लम खुल्ला, झूला झूलत रहीं बुनिया फुहार में
                                                सावन के बहार में ना

हम त रहलीं टह-टह गोर
करत रहलीं हम अँजोर
मोर अँखिया के कोर, धार कहाँ अइसन तेग भा कटार में
                                              चाहे तलवार में ना

हँसलीं, चमकल मोरा दाँत
कइलस बिजुली के मात
रहे अइसन जनात, दाना कहाँ अइसन काबुली अनार में,
                                              सुघर कतार में ना

जब से आइल सवतिया मोर
सुख लेलसि हमसे छोर 
झरे अँखिया से लोर, भइया मोर परल बा 'शैदा'-मझधार में 
                                           सुखवा जरल भार में ना 


भोजपुरी कवि - विश्वनाथ प्रसाद शैदा 
संकलन - हिन्दी की जनपदीय कविता 
संपादक - विद्यानिवास मिश्र 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2002

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

आश्विन (Aashwin by Arun Kamal)


ऐसा क्या है इस हवा में
जो मेरी मिट्टी को भुरभुरा बना रहा है
धूप इतनी नम कि हवा उसे
सोखती जाती है पोर पोर से
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक एक दाना भरता है 
और हरसिंगार खोलता है रात के भेद ;
चारों तरफ एक धूम है
एक प्यारा शोरगुल रोंओं भरा 
इसी दिन का तो इंतजार  था मुझको 
इसी नवरात्र के प्रहार का
आकाश इतना नीला गूँज भरा
शरीर इतना साफ निथरा,
ये हवा जो रोंओं को उठा रही है
ये हवा जो मुझे खोल रही है
जैसे मैं फूल हूँ अगस्त्य का
इतनी इच्छाएँ ऐसी लालसा 
मैं भर जाता हूँ जौ के अंकुरों से l


कवि - अरुण कमल 
संकलन -पुतली में संसार
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

चिट्ठी नहीं आयी (Chitthee nahin aayee by Shakti Chattopadhyay)


अभी सन्तरे के आने में देर है
वहाँ प्लेट में रखा है छुरी-काँटा
पनीर
मक्खन
सूप
काली मिर्च
और इन सबके साथ
खूब सिंका हुआ लाल टोस्ट 
जब मैं उसे काटता हूँ 
कच्ची लकड़ी की एक अजीब-सी गंध
भर जाती है मेरे नासा-पुटों में

चीनिया केले-सा 
वहाँ बैठा है चौखट पर
एक गुमसुम विडाल
बँगले की खिड़की से आती हुई हवा
ढकेल रही है धूप को
बँगले के बाहर
धूप वहाँ हिल रही है खिड़की पर
जैसे कोई झीना वस्त्र

सुन्दर 
चमकता हुआ स्क्वैश 
रखा है बरामदे में
अभी सन्तरे के आने में देर है
कोई दो हफ्ते बाद 
हल्दी के रंगवाला सुन्दर सन्तरा
शान से पाँव रखेगा
घरों की मेजों पर 

लेकिन अभी !
अभी तो देर है
अभी कोई चिट्ठी आयी नहीं उसकी l


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएं
अनुवाद - केदारनाथ सिंह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987 

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सब माया है (Sab maya hai by Ibne Insha)


सब माया है सब ढलती-फिरती छाया है
इस इश्क़ में हमने जो खोया या पाया है
जो तुमने कहा है 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
                सब माया है

हाँ गाहे-बगाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिसका रुस्वाई
बस इसके सिवा तो जो भी सवाब कमाया है 
                सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है मर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शम्मा पे देने जान पतंगा आया है
                सब माया है

मालूम हमें सब कैस मियाँ का क़िस्सा भी  
सब एक-से हैं, ये राँझा भी ये इंशा भी 
फ़रहाद भी जो इक नह्र-सी खोद के लाया है
                सब माया है

क्यों दर्द के नामे लिखते-लिखते रात करो
जिस सात समंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोखा खाया है ?
               सब माया है

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्योंकर उसका नाम लिखें
दिल उसकी चौखट चूम के वापस आया है 
              सब माया है

वो लड़की भी जो चाँदनगर की रानी थी 
वो जिसकी अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उसने भी पैग़ाम यही भिजवाया है 
              सब माया है

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोखे खाते धोखे देते हैं
हाँ ठोंक-बजाकर हमने हुक्म लगाया है
              सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शह्र से दूर इक कुटिया हमने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है 
               सब माया है 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

एक नया अनुभव (Ek naya Anubhav by Bachchan)


मैंने चिड़िया से कहा, 'मैं तुम पर एक 
कविता लिखना चाहता हूँ ।'
चिड़िया ने मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में 
मेरे परों की रंगीनी है ?'
मैंने कहा, 'नहीं ।'
'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है ?'
'नहीं ।'
'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैनों की उड़ान है ?'
'नहीं ।'
'जान है ?'
'नहीं ।'
'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे ?'
मैंने कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है ।'
चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है ?'
एक अनुभव हुआ नया ।
मैं मौन हो गया !


कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - हरिवंशराय बच्चन : प्रतिनिधि कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986 

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

निष्फल (Nishfal by Shrikant Verma)


किसी भी उजाले के छोटे से गड्ढे में 
जाकर मुँह धोने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ !
किसी भी सड़क पर जा भीड़ या कि पतझर में 
अपने कुछ होने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ ! 
अपने ज़माने की एक अप्रिय दुनिया में
अपने प्रिय कोने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ !


कवि - श्रीकांत वर्मा
किताब - श्रीकांत वर्मा रचनावली में मायादर्पण से संकलित 
संपादक - अरविंद त्रिपाठी
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1995

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

दीप की लौ-से दिन (Deep ki lau-se din by Kedarnath Agrawal)



भूल सकता मैं नहीं 
ये कुच-खुले दिन,
ओंठ से चूमे गए,
उजले, धूले दिन -
जो तुम्हारे साथ बीते 
रस-भरे दिन,
बावरे दिन,
दीप की लौ-से 
गरम दिन l 


कवि - केदारनाथ अग्रवाल (1911-2000)
संकलन - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006 


गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल (Ghazal by Faiz Ahmad Faiz)



कब तक दिल की ख़ैर मनायें, कब तक  रह  दिखलाओगे 
कब तक चैन की मोहलत दोगे, कब तक  याद  न आओगे 

बीता दीद-उमीद का मौसम, ख़ाक  उड़ती  है आँखों  में 
कब   भेजोगे  दर्द   का  बादल, कब  बरखा  बरसाओगे 

अह्दे-वफ़ा  या  तर्के-मुहब्बत, जो  चाहो  सो  आप करो 
अपने बस की बात  ही  क्या  है, हमसे  क्या  मनवाओगे 

किसने वस्ल का सूरज देखा, किस पर हिज्र की रात ढली 
गेसुओंवाले  कौन  थे  क्या  थे,  उनको  क्या  जतलाओगे 

'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर  बसना भी,  लुट जाना भी 
तुम उस हुस्न के लुत्फ़ो-करम  पर कितने  दिन इतराओगे 

                                             - अक्टूबर,1968 

दीद-उमीद = देखने की आशा,  अह्दे-वफ़ा = वफ़ादारी का प्रण,  तर्के-मुहब्बत =  प्रेम- संबंध का विच्छेद,  गेसुओंवाले = जुल्फ़ोंवाले,  लुत्फ़ो-करम = कृपाओं 

शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987



बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

गेंद का पड़ोस (Geind ka pados by Vinod Kumar Shukl)


गेंद का पड़ोस -
उछाल आकाश की तरफ 
किसी भी दिशा में 
जा सकने के कारण 
सभी दिशाएँ गेंद के पड़ोस में 
धरती पड़ोस 
और गेंद का घर 
हमारा घर l 

कितनी गेंदें पड़ोस में खो चुकी थीं 
गेंद ढूँढ़ने हम 
किसी के भी घर घुस जाते 
घरों में जाना और खो जाना 

हमने गेंद से सीखा l 


कवि  - विनोद कुमार शुक्ल 
संकलन - कभी के बाद अभी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2012

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

पतझर (Patjhar by Sumitranandan Pant)

 
    झरो, झरो, झरो !
जंगम   जग   प्रांगण   में,
जीवन      संघर्षण     में 
नव   युग   परिवर्तन   में 
मन   के    पीले    पत्तो !
    झरो, झरो, झरो !

सन्  सन् शिशिर समीरण 
देता    क्रांति    निमंत्रण !
यही जीवन विस्मृति क्षण, -
जीर्ण   जगत   के   पत्तो !
    टरो, टरो, टरो !

कँप कर, उड़ कर, गिर कर,
दब कर, पिस कर, चर मर,
मिट्टी   में    मिल    निर्भर,
अमर   बीज    के    पत्तो !
    मरो, मरो, मरो !

तुम पतझर, तुम मधु - जय !
पीले   दल,   नव   किसलय,
तुम्हीं  सृजन,   वर्धन,   लय,
आवागमनी             पत्तो !
    सरो, सरो, सरो !

जाने    से    लगता    भय ?
जग   में   रहना    सुखमय ?
फिर    आओगे       निश्चय !
निज   चिरत्व    से    पत्तो !
    डरो, डरो, डरो !

जन्म   मरण     से     होकर,
जन्म   मरण    को    खोकर,
स्वप्नों     में    जग    सोकर,
मधु    पतझर    के     पत्तो !
    तरो, तरो, तरो !
                                   -फरवरी, 1940


कवि  - सुमित्रानंदन पंत 
संकलन - ग्राम्या 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दसवाँ संस्करण - 1986 

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

फ़र्ज़ करो (Farz karo by Ibne Insha)


फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों 
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों 
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो 
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो 
फ़र्ज़ करो तुम्हें खुश करने के ढूँढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों 
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सबकुछ माया हो 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

समस्त आयु (Samast aayu by Naresh Mehta)


तुम्हारे बिना 
काटे नहीं कटा आज का दिन l 
लगा -
दिन नहीं, विषुवत रेखा है ;
पृथिवी की इस मेखला से 
किसी की भी तो मुक्ति नहीं l 

पोर-पोर काट डाला 
पर -
नहीं ही कटा l 
दिन था, कि 
जिसने शाम तक  
मुझे ही काट कर रख दिया l 

परन्तु तुम्हारे आते ही 
लगा -
कितनी छोटी है 
यह समस्त आयु,
कम से कम 
आज के इस एक दिन के बराबर ही होती l 



कवि - नरेश मेहता 
किताब - 'तुम मेरे मौन हो' से 'समिधा, श्रीनरेश मेहता का सम्पूर्ण काव्य', खंड - 1 में संकलित 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1997

जहाँ सुख है (Jahan sukh hai by Ajneya)


जहाँ सुख है 
वहीं हम चटक कर 
टूट जाते हैं बारम्बार
जहाँ दुखता है
वहाँ पर एक सुलगन   
पिघला कर हमें 
फिर जोड़ देती है 


कवि - अज्ञेय 
संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है  
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली, 1986

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

कुफ्र (Kufra by Amrita Pritam)


आज हमने एक दुनिया बेची 
और एक दीन ख़रीद लिया  
हमने कुफ्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली 

आज हमने आसमान के घड़े से 
बादल का ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने 
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे 


यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

हाली के शेर (Couplets by Hali)



जहाँमें   हाली  किसीपै    अपने  सिवा  भरोसा   न  कीजियेगा l
यह भेद  है  अपनी ज़िन्दगीका  बस  इसकी चर्चा न कीजियेगा ll
हो  लाख  गैरोंका   ग़ैर  कोई  न  जानना  उसको  ग़ैर  हरगिज़ l
जो अपना साया भी हो तो उसको तसव्वुर अपना न कीजियेगा ll
लगाव  तुममें  न  लाग ज़ाहिद  न  दर्दे  उल्फ़तकी  आग  ज़ाहिद l
फिर और क्या कीजियेगा  आख़िर जो तर्के दुनिया न कीजियेगा ll


शायर - हाली 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)

संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

तेलंगन (Telangan by Makhdoom Mohiuddin)



फिरने वाली खेत की मेंड़ों पे बल खाती हुई l
नर्मो शीरीं क़हक़हों के फूल बरसाती हुई l
कंगनों से खेलती औरों से शरमाती हुई l
          अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा 
          हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा l

तेलंगन = तेलंगाना की स्त्री, शीरीं = मीठा

अरज़ यकसरगोश है खामोश हैं सब आसमां
राग सुनने रुक गए हैं बादलों के कारवां 
हाँ तराना छेड़, जंगल का मेरी गुन्चा दहां l  
           अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा
           हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा l

अरज़ = धरती, यकसरगोश = सुनने के लिए तैयार, गुन्चा दहां = कली-सा चेहरा

देखने आते हैं तारे शब में सुन कर तेरा नाम
जलवे सुबह-ओ-शाम के होते हैं तुझसे हमकलाम
देख फितरत कर रही है तुझको झुकझुक कर सलाम l
           अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा
           हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा l

हमकलाम = बातचीत

दुख्तरे पाकीज़गी नाआशनाए सीम-ओ ज़र,
दश्त की खुद रौ कली तहज़ीबेनौ से बेखबर
तेरी ख़स की झोंपड़ी पर झुक पड़े सब बामो दर l
           अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा
           हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा l


 दुख्तरे पाकीज़गी = पवित्रता की बेटी, नाआशनाए = अनजान, सीम-ओ ज़र = चाँदी-सोना, दश्त = जंगल, खुद रौ कली = अपने आप उगने वाली कली,
तहज़ीबेनौ = नई सभ्यता, बामो दर = छत और दरवाज़े

ले चला जाता हूँ आँखों में लिए तस्वीर को
ले चला जाता हूँ पहलू में छिपाए तीर को
ले चला जाता हूँ फैला राग की तनवीर को l
           अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा
           हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा l

तनवीर = ज्योति 




शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

कारनामा (Karnama by Akhtar ul Iman)


अज़ीम काम करूँ कोई, एक दिन सोचा
कि रहती दुनिया में अपना भी नाम रह जाए
मगर वो काम हो क्या, ज़ेह्न में नहीं आया 
पयंबरी तो ज़ियाँ जान का है, दावा किया
तो जाने सूली पे चढ़ना हो या चलें आरे 
कि ज़िंदा आग की लपटों की नज़्र होना पड़े 
ख़याल आया फ़ुनूने-लतीफ़ा ढेरों हैं          
सनमतराशी है, नग़मागरी कि नक्काशी  
ये सब ही दायमी शुहरत क़ा इक वसीला हैं
मगर न लफ़्ज़ों पे क़ुदरत न रंग क़ाबू में
फिर एक ज़रिया सियासत है नाम पाने का
अलावा नाम के मोहरे बनाके लोगों को
बिसाते-अर्ज़ पे शतरंज खेल सकते हैं 
मगर ये फ़न भी मिरी दस्तरस से बाहर था
फिर  और क्या हो, बहुत कुछ ख़याल दौड़ाया
अलावा इनके मुझे और कुछ नहीं सूझा 
ज़माने बाद समंदर किनारे बैठा था
अज़ीम शै है समंदर भी मेरे दिल ने कहा
वो क्या तरीक़ा हो मैं इसका भाग बन जाऊँ
समझ में आया नहीं कोई रास्ता भी जब
तो झुँझलाके समंदर में कर दिया पेशाब 

अज़ीम = महान्, ज़ियाँ = हानि, फ़ुनूने-लतीफ़ा = ललित कलाएँ, दायमी = शाश्वत, क़ुदरत = पकड़, बिसाते-अर्ज़ पे  = धरती रूपी बिसात पर, दस्तरस = पहुँच, शै = वस्तु

शायर - अखतरुल ईमान 
संग्रह  - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

ऊमस (Oomas by Nazeer Akabarabadi)



क्या अब्र की गर्मी में घड़ी पह्र है ऊमस
गर्मी के बढ़ाने की अजब  लह्र है ऊमस
पानी से पसीनों की बड़ी नह्र है ऊमस
हर बाग़ में हर दश्त में हर शह्र है ऊमस
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

कितने तो इस ऊमस के तईं कहते हैं गर्माव
यानी कि घिरा अब्र हो और आके रुकी बाव
उस वक़्त तो पड़ता है ग़ज़ब जान में घबराव
दिल सीने में बेकल हो यही कहता है खा ताव  
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

बदली के जो घिर आने से होती है हवा बंद
फिर बंद-सी गर्मी वो ग़ज़ब पड़ती है यक चंद
पंखे कोई पकड़े कोई खोले हैं खड़ा बंद
दम रुक के घुला जाता है करने से हर इक बंद 
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

ईधर तो पसीनों से पड़ी भीगी हैं खाटें
गर्मी से ऊधर मैल की कुछ चियूटियाँ काटें
कपड़ा जो पहनिये तो पसीने उसे आटें
नंगा जो बदन रखिये तो फिर मक्खियाँ चाटें
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

रुकने से हवा के जो बुरा होता है अहवाल
पंखा कोई आँचल कोई दामन कोई रूमाल
दम धौंकने लगता है लोहारों की गोया खाल
कुछ रूह को बेताबियाँ कुछ जान को जंजाल
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

घबरा के दम आता है कभी जाता है फूला
आराम जो दिल का है सभी जाता है भूला
आता है कभी होश कभी जाता है भूला
कपड़े भी बुरे लगते हैं जी जाता है भूला 
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

होती है ऊमस जो कभी इक रात को आकर
कर डालती है फिर तो क़यामत ही मुक़र्रर 
ईधर तो हवा बंद ऊधर पिस्सू व मच्छर 
पानी कोई पीवे तो वो अदहन से भी बदतर
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

जिस वक़्त हवा बंद हो और आके घटा छाए
फिर कहिए दिल उस गर्मी में किस तरह न घबराए
ओढ़ो तो पसीना जो न ओढ़ो तो ग़ज़ब आए
पिस्सू कभी मच्छर कभी खटमल है लिपट जाए
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

गर इसमें हवा खुल गई और पानी भी लाई
तो जी में जी और जान में कुछ जान-सी आई 
और इसमें जो फिर हो गई ऊमस की चढ़ाई 
तो फिर वही रोना वही गुल शोर दुहाई 
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

ऊमस में तो लाज़िम है कि पंखा न हवा हो
इक कोठरी हो जिसमें धुवाँ आके भरा हो
और मक्खियों के वास्ते गुड़ तन से मला हो
उस वक़्त मज़ा देखिए ऊमस का कि क्या हो
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 

इस रुत में तो वल्लाह अजब ऐश है दिल ख़्वाह  
मेंह बरसे है और सर्द हवा आती है हर गाह
जंगल भी हरे गुल भी खिले सब्ज़ा चरागाह
ऊमस है मगर दिल को सताती है 'नज़ीर' आह 
बरसात के मौसम में निपट ज़ह्र है ऊमस
सब चीज़ तो अच्छी है पर इक क़ह्र है ऊमस 


शायर - नज़ीर अकबराबादी 
संकलन - नज़ीर की बानी 
संपादक - फ़िराक़ गोरखपुरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1999

बाव का अर्थ है वायु और उल्लेखनीय है कि नज़ीर ने इसमें 'ऊमस' (उमस),'ईधर' (इधर), 'ऊधर' (उधर) या 'ज़ह्र' (ज़हर), 'नह्र' (नहर) आदि का ही प्रयोग किया है. फ़िराक़ गोरखपुरी ने संकलन की भूमिका में पहले ही बता दिया है कि "जब इनमें से कोई कविता पढ़ना शुरू करें तो उसके छंद के ताल-सम और झंकार और छंद की लय को पकड़िए."

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

लेटर बॉक्स पर चिड़िया (Letter box par chidiya by Sanjay Kundan)


लेटर बॉक्स पर चोंच मारती है चिड़िया 

अभी डाकिये के आने का वक्त नहीं हुआ है
तेज होती जा रही है धूप

अपनी चोंच को चाबी में 
बदल डालने को उत्सुक लगती है चिड़िया
जैसे खोल डालेगी लेटर बॉक्स 
उड़ चलेगी सारी चिट्ठियाँ लेकर 

वह ले जाएगी चिट्ठियाँ
हवा, पानी, धूप और बुरी नजरों से 
बचाते हुए
समय से बहुत पहले ही पहुँचा देगी उन्हें
लोग चौंक उठेंगे
एक नये डाकिये को देखकर

अब तो डाकिये की तरह 
नहीं दिखता डाकिया
पता भी नहीं चलता
उसका आना और जाना 

कम लिखी जा रही चिट्ठियाँ
पर अपनी जगह मुस्तैद खड़ा है लेटर बॉक्स
चिट्ठियों की प्रतीक्षा में 

कई बार लगता है जैसे 
आगे निकल भागेगा चौराहा 
और औंधे मुँह गिर पड़ेगा लेटर बॉक्स  

अभी जबकि सबसे ज्यादा व्यस्त है चौराहा
किसी की नजर लेटर बॉक्स पर नहीं है
उस पर चहलकदमी करती हुई चिड़िया
ढूँढ़ रही है किसी को भीड़ में

वह आवाज देने लगी है
शायद उस आदमी को
जो बड़े जतन से रखता है एक चवन्नी 
और थरथराते हाथों से डालता है पोस्टकार्ड
लेटर बॉक्स के अंदर

पोस्टकार्ड पर उसकी लिखावट नहीं होती
पर भाषा उसी की होती है
एक आदिम भाषा
एक आदिम संदेश
उसी चिड़िया की पुकार की तरह 


कवि - संजय कुंदन
संग्रह - कागज के प्रदेश में
प्रकाशक - किताबघर, दिल्ली, 2001 


सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

संख्या के बच्चे (Sankhya ke bachche by Shrikant Verma)



सच है ये शून्य हैं -
और तुम एक हो l
बड़े शक्तिशाली हो,
क्योंकि शून्य के पहले 
उसके दुर्भाग्य-से खड़े हो l
अपनी आकांक्षा के क़ुतुब बने सांख्य !
मत भूलो -
तुम भी आंकड़े हो l

मत भूलो -
तुम केवल एक हो
शून्य ही दहाई हैं, शून्य ही असंख्य हैं l
शून्य नहीं धब्बे हैं,
आंसू की बूंदों-से,
लोहू के कतरों-से, शून्य ये सच्चे हैं l
संख्या के बच्चे हैं l

शून्यों से मुंह फेर खड़े होने वाले !
शून्य अगर हट जाएं
ठूठे की अंगुली से केवल रह जाओगे l
मत भूलो -
शून्य शक्ति है, शून्य प्रजा है l


कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983