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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

खाना बनातीं स्त्रियाँ (Khana banatin striyan by Kumar Ambuj)


जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँथा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़

आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो ज़मीन पर गिराने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की

वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे धकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पडा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकाने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

इस नगरी में रात हुई (Is nagari mein raat hui by Vijaydevnarayan Sahi)


मन में पैठा चोर अँधेरी तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे धीरे तल्ख़ अँधेरा फैल गया, ख़ामोशी है
आओ ख़ुसरो लौट चलें घर इस नगरी में रात हुई।


कवि - विजयदेवनारायण साही
संकलन - मछलीघर 

प्रथम संस्करण के प्रकाशक - भारती भण्डार, इलाहाबाद, 1966
दूसरे संस्करण के प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1995

बुधवार, 28 नवंबर 2012

चार ईमानदार (Char imandar by Kunwar Narayan)


चार ईमानदार मिलकर
बेईमानी पर बहस कर रहे थे

उनमें से एक
बेमानी का सरकारी वक़ील नियुक्त किया गया

उसने बेमानी के पक्ष में
हर सम्भव दलील दी

लेकिन मुक़द्दमा बहुमत से हार गया l

दरअसल
चारों में से कोई भी
बेमानी के पक्ष में न था

चारों ने मिलकर
बेमानी को शुद्ध बहुमत से हरा दिया था

और चारों ईमानदार एकमत थे
कि बेमानी को हराने का
यही एक तरीक़ा है
कि उसे अल्पमत में ला दिया जाए l


कवि - कुँवर नारायण
संकलन - इन दिनों
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

गीत (Geet by Bhikari Thakur)


सुनील हमार बात, नइखे नइहर रहल जात; जाइके करब बन में भजन हो भउजिया!
सेज मिरिगा के चाल, ओढ़ना भेड़ी के बाल; जंगल में मंगल उड़ाइब हो भउजिया!
सारी गेरुआ के रंग, मलि के भभूत अंग; गलवा में तुलसी के मलवा भउजिया!
छूरा से छिला के केस, धरबि जोगिन के भेस; लेइब एक हाथ में सुमिरनी भउजिया!
नइहर से छूटल लाग, खाइब कंद-मूल-साग; अनवाँ बउरावत बा बेइमानवाँ भउजिया!
'पिउ-पिउ' करब सोर, मन लागल बाटे मोर; बाँवाँ करवा में सोभी कमंडलवा भउजिया!
बानी पर धेयान दीहन, जंगल में खोज लिहन; दायानिधि चरन का चेरी के भउजिया!
कहत 'भिखारीदास', कातिक से चार मास; जाड़ में लेहब जलसयन हो भउजिया!
फागुन से महीना चारि, धूँई चउरासी जारि; ताहि बीच में हरिगुन गाइब हो भउजिया!
रितु बरसात भर, करि-करि हर-हर; गउरी-गनेस के पूजब  हो भउजिया !


सुमिरनी = स्मरण की माला ; जलसयन = जलशयन, हठयोग की एक विधि ; चउरासी  =  चौरासी अग्नि, हठयोग की एक विधि 

कवि - भिखारी ठाकुर
किताब - भिखारी ठाकुर रचनावली
प्रकाशक - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 2005


प्रस्तुत गीत 'ननद-भउजाई' नाटक से लिया गया है। इसमें तीन पात्र हैं - अखजो (एक अज्ञातयौवना गँवई स्त्री), उसकी भउजाई (बड़े भाई की पत्नी) और उसका पति चेंथरू (झंझटपुर का रहनेवाला युवक) l अखजो की शादी बालपन में हो गई थी l अभी गवना (गौना) नहीं हुआ है l 

सोमवार, 26 नवंबर 2012

तज्दीद (Tajdeed by Kaifi Azmi)


तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
सब उसके साथ रुख़्सत हो चुके थे
यकीं था  अब न हँसना है न रोना
कुछ इतना हँस चुके थे, रो चुके थे

किसी ने आज इक अँगड़ाई लेकर
नज़र में  रेशमी  गिरहें  लगा दीं
तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
वही  चिंगारियाँ  फिर मुस्करा दीं 

तज्दीद = नवीनीकरण, नवीनता;    तलातुम = बाढ़, तूफ़ान, उद्वेग;

वलवले = उमंगें;    हैजान = बेचैनी, अशांति 
 
शायर - कैफ़ी आज़मी
किताब - कैफ़ियात (कुल्लियात-ए-कैफ़ी आज़मी, 1918-2002)
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2011

रविवार, 25 नवंबर 2012

पुराना दुख, नया दुख (Purana dukh, naya dukh by Shakti Chattopadhyay)



वह जो अपना एक दुख है पुराना 
क्या उससे आज कहूँ कि आओ 
और थोड़ी देर बैठो मेरे पास 

यहाँ मैं हूँ 
वहाँ, मेरी परछाईं 
कितना अच्छा हो कि इसी बीच वह भी आ जाय 
और बैठ जाय मेरी बगल में 

तब मैं अपने नये दुख से कहूँगा 
जाओ 
थोड़ी देर घूम-फिर आओ 
झुलसा दो कहीं कोई और हरियाली 
झकझोर दो किसी और वृक्ष के फूल और पत्ते 
हाँ, जब थक जाना 
तब लौट आना 
पर अभी तो जाओ 
बस थोड़ी-सी जगह दो मेरे पुराने दुख के लिए 
वह आया है न जाने कितने पेड़ों 
और घरों को फलाँगता हुआ 
वह आया है 
और बैठ जाना चाहता है बिल्कुल मुझसे सटकर 

बस उसे कुछ देर सुस्ताने दो 
पाने दो कुछ देर उसे साथ और सुकून 
ओ मेरे नये दुख 
बस थोड़ी-सी जगह दो 
थोड़ा-सा अवकाश 
जाओ 
जाओ 
फिर आ जाना बाद में l 


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 24 नवंबर 2012

नूतन अहं (Nutan aham by Muktibodh)



कर सको घृणा 
क्या इतना 
रखते हो अखण्ड तुम प्रेम ?
जितनी अखण्ड हो सके घृणा 
उतना प्रचण्ड 
रखते क्या जीवन का व्रत-नेम ?
प्रेम करोगे सतत ? कि जिस से 
उस से उठ ऊपर बह लो 
ज्यों जल पृथ्वी के अन्तरंग 
में घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर वह लो ?
क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि 
कि जिस से मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर ?
क्या कभी उदासी गहिर रही 
सपनों पर, जीवन पर छायी 
जो पहना दे एकाकीपन का लौह वस्त्र, आत्मा के तन पर ?
है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा 
जो रखता था मन में कुछ गीलापन 
और रिक्त हो चुका सर्व-रोष 
जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गर्मी, सहज भव्यता,
मधुर आत्म-विश्वास l 
है सूख चुकी वह ग्लानि 
जो आत्मा को बेचैन किये रखती थी अहोरात्र 
कि जिस से देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर 
तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण,
किन्तु आज लघु स्वार्थों में घुल, क्रन्दन-विह्वल,
अन्तर्मन यह टार रोड के अन्दर नीचे बहाने वाली गटरों से भी 
है अस्वच्छ अधिक,
यह तेरी लघु विजय और लघु हार l 
तेरी इस दयनीय दशा का लघुतामय संसार 
अहंभाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में 
जैसे घूरे पर उट्ठा है 
धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मत्त l 


कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध 
संकलन - तार सप्तक 
संकलनकर्ता और संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण - 1963

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

वह शांत है, और मैं भी (He's Calm, and I Am Too by Mahmoud Darwish)



वह शांत है, और मैं भी
वह नींबू वाली चाय पी रहा है,
और मैं कॉफ़ी पी रहा हूँ,
यही फर्क है हम दोनों के बीच.
उसने पहन रखी है, जैसे मैंने, धारीदार बैगी शर्ट
और मैं पढ़ रहा हूँ, जैसे कि वह, शाम का अखबार.
वह मुझे नज़र चुरा कर देखते नहीं देखता
मैं उसे नज़र चुरा कर देखते नहीं देखता,
वह शांत है, और मैं भी.
वह वेटर से कुछ माँगता है,
मैं वेटर से कुछ माँगता हूँ...
एक काली बिल्ली हमारे बीच से गुजरती है,
मैं उसके रोयें सहलाता हूँ
और वह उसके रोयें सहलाता है....
मैं उसे नहीं कहता : आज आसमान साफ़ था
और अधिक नीला
वह मुझसे नहीं कहता : आसमान आज साफ़ था.
वह दृश्य है और द्रष्टा
मैं दृश्य हूँ और द्रष्टा
मैं अपना बायाँ पैर हिलाता हूँ
वह अपना दायाँ पैर हिलाता है
मैं एक गीत की धुन गुनगुनाता हूँ
वह उसी धुन का कोई गीत गुनगुनाता है.
मैं सोचता हूँ : क्या वह आईना है जिसमें मैं खुद को देखता हूँ?

तब मैं उसकी आँखों की ओर देखता हूँ,
लेकिन मैं उसे नहीं देखता...
मैं कैफे से निकल आता हूँ तेजी से .
मैं सोचता हूँ, हो न हो वह एक ह्त्यारा  है, या शायद
वह एक  राहगीर  है जो सोचता हो कि मैं हत्यारा हूँ
वह डरा हुआ है, और मैं भी ! 


फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश 
संकलन - द बटरफ्लाई'ज़ बर्डन 
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - फैडी जूडा 
प्रकाशक - कॉपर कैनियन प्रेस, वाशिंगटन, 2007
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

ब्लडप्रेशर (Blood pressure by Vishnu Dey)


इस बीमारी का कोई इलाज नहीं, असाध्य सत्ता की व्याधि में
दवा-दारु बेकार है, सही-सही पथ्य या व्यायाम - किसी से भी
क्या कुछ भी होता है ! अनिद्रा के 
फन्दे में रात कटती है,
रक्त मचल-मचल उठता है, बेदम हो कर नाड़ी छूटने लगती है l
लाल आँखें नीले आकाश पर उदार प्रान्तर पर टिका दो
ऑफ़िस की गोपनीय फ़ाइलों में आँखों का इलाज नहीं है l
अगर खुले मैदान में पेशियों की ज़ंजीर खोल दोगे,
अगर स्नायु नित्य निःस्वार्थ विराट् में मुक्तिस्नान करेंगे,
अगर दिगन्त तक फ़ैली निर्मल हवा में अपने निश्वास छोड़ोगे,
तभी शरीर सुधरेगा, उच्च ताप घटेगा ; इस की दवाई
वैद्यों के हाथ में नहीं है l  इस रोग का नुस्ख़ा है आकाश में,
धरती में, वनस्पति ओषधि में, खेत-मैदान-घास में,
पहाड़ में, नदी में, बाँध में, दृश्य जगत् के अनन्त प्रान्तर में,
प्रकृति में ह्रदय के सहज  स्वस्थ स्वप्न में रूपान्तर में ;
इस की चिकित्सा है लोगों की भीड़ में, गन्दी बस्ती की झोंपड़ियों की
                                                                                   जनता में -
जनता में या धरती में, एक ही बात है, अन्योन्य सत्ता में ll
                                                                                  - 7.3.1959


कवि - विष्णु दे
संकलन - स्मृति सत्ता भविष्यत्

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - भारतभूषण अग्रवाल 

प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1972

















 

सोमवार, 19 नवंबर 2012

गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई की डायरी (Malala Yousafzai's diary)


सनीचर, जनवरी, 2009 : मैं डर गई हूं

कल पूरी रात मैंने ऐसा डरावना ख़्वाब देखा जिसमें फ़ौजी हेलीकॉप्टर और तालिबान दिखाई दिए। स्वात में फ़ौजी ऑपरेशन शुरू होने के बाद इस क़िस्म के ख़्वाब मैं बार-बार देख रही हूं। मां ने नाश्ता दिया और फिर तैयारी करके मैं स्कूल के लिए रवाना हो गई। मुङो स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़ौफ महसूस हो रहा था क्योंकि तालिबान ने एलान किया है कि लड़कियां स्कूल न जाएं।

आज हमारे क्लास में 27 में से सिर्फ़ 11लड़कियां हाज़िर थीं। यह तादाद इसलिए घट गई है कि लोग तालिबान के एलान के बाद डर गए हैं। मेरी तीन सहेलियां स्कूल छोड़कर अपने ख़ानदानवालों के साथ पेशावर, लाहौर और रावलपिंडी जा चुकी हैं।

एक बजकर चालीस मिनट पर स्कूल की छुट्टी हुई। घर जाते व़क्त रास्ते में मुङो एक शख़्स की आवाज़ सुनाई दी जो कह रहा था, ‘मैं आपको नहीं छोडूंगा।मैं डर गई और मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। जब थोड़ा आगे गई तो पीछे मुड़ कर मैंने देखा वह किसी और को फोन पर धमकियां दे रहा था मैं यह समझ बैठी कि वह शायद मुङो ही कह रहा है। 

सोमवार, 5 जनवरी, 2009 : ज़रक़ बरक़ लिबास नहीं पहनें 

आज जब स्कूल जाने के लिए मैंने यूनिफॉर्म पहनने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो याद आया कि हेडमिस्ट्रेस ने कहा था कि आइंदा हम घर के कपड़े पहन कर स्कूल आ जाया करें। मैंने अपने पसंदीदा गुलाबी रंग के कपड़े पहन लिए। स्कूल में हर लड़की ने घर के कपड़े पहन लिए जिससे स्कूल घर जैसा लग रहा था। इस दौरान मेरी एक सहेली डरती हुई मेरे पास आई और बार-बार क़ुरान का वास्ता देकर पूछने लगी कि ख़ुदा के लिए सच-सच बताओ, हमारे स्कूल को तालिबान से ख़तरा तो नहीं?’

मैं स्कूल ख़र्च यूनिफॉर्म की जेब में रखती थी, लेकिन आज जब भी मैं भूले से अपनी जेब में हाथ डालने की कोशिश करती तो हाथ फिसल जाता क्योंकि मेरे घर के कपड़ों में जेब सिली ही नहीं थी।

आज हमें असेम्बली में फ़िर कहा गया कि आइंदा से ज़रक़ बरक़ (तड़क-भड़क, रंगीन) लिबास पहन कर न आएं क्योंकि इस पर भी तालिबान ख़फ़ा हो सकते हैं।

बुधवार, 14 जनवरी, 2009 शायद दोबारा स्कूल ना आ सकूं

आज मैं स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़फा थी क्योंकि कल से सर्दियों की छुट्टियां शुरू हो रही हैं। हेडमिस्ट्रेस ने छुट्टियों का एलान तो किया तो मगर मुक़र्रर तारीख़ नहीं बताई। ऐसा पहली बार हुआ है। पहले हमेशा छुट्टियों के ख़त्म होने की मुक़र्रर तारीख़ बताई जाती थी। इसकी वजह तो उन्होंने नहीं बताई, लेकिन मेरा ख़याल है कि तालिबान की जा
निब से पंद्रह जनवरी के बाद लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी के सबब ऐसा किया गया है।

इस बार लड़कियां भी छुट्टियों के बारे में पहले की तरह ज़्यादा ख़ुश दिखाई नहीं दे रही थीं क्योंकि उनका ख़याल था कि अगर तालिबान ने अपने एलान पर अमल किया तो शायद स्कूल दोबारा न आ सकें।

जुमेरात, 15 जनवरी, 2009 तोपों की गरज से भरपूर रात

पूरी रात तोपों की शदीद घन गरज थी जिसकी वजह से मैं तीन मर्तबा जग उठी। आज ही से स्कूल की छुट्टियां भी शुरू हो गई हैं, इसलिए मैं आराम से दस बजे उठी। बाद में मेरी क्लास की एक दोस्त आई और हमने होमवर्क के बारे में बात की।

आज पंद्रह जनवरी थी यानी तालिबान की तरफ़ से लड़कियों के स्कूल न जाने की धमकी की आख़िरी तारीख़। मगर मेरी दोस्त कुछ इस एत्माद से होमवर्क कर रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

आज मैंने मक़ामी अख़बार में बीबीसी पर शाया होनेवाली अपनी डायरी भी पढ़ी। मेरी मां को मेरा फ़र्ज़ी नाम गुल मकईबहुत पसंद आया और अब्बू से कहने लगी कि मेरा नाम बदल कर गुल मकई क्यों नहीं रख लेते। मुङो भी यह नाम पसंद आया क्योंकि मुङो अपना नाम इसलिए अच्छा नहीं लगता कि इसके मानी ग़मज़दा:के हैं।

अब्बू ने बताया कि चंद दिन पहले भी किसी ने डायरी की प्रिंट लेकर उन्हें दिखाई थी कि ये देखो स्वात की किसी तालिबा कि कितनी ज़बरदस्त डायरी छप रही है। अब्बू ने कहा कि मैंने मुस्कराते हुए डायरी पर नज़र डाली और डर के मारे यह भी न कह सका कि हां, यह तो मेरी बेटी की है।



लेखिका - गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई
मूल स्रोत - बीबीसी उर्दू वेबसाइट 
उर्दू से हिन्दी अनुवाद- नासिरूद्दीन
प्रकाशक - जेण्डर जिहाद ब्लॉग    https://www.facebook.com/genderjihad, http://t.co/fZ8vD99L


शनिवार, 17 नवंबर 2012

सागर-मुद्रा (Sagar-mudra by Ajneya)


यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो, सागर,
                     कहीं मुझे तोड़ दो !
मेरी दीठ को और मेरे हिये को,
मेरी वासना को और मेरे मन को,
मेरे कर्म को और मेरे मर्म को,
मेरे चाहे को और मेरे जिये को
मुझ को और मुझ को और मुझ को
                      कहीं मुझ से जोड़ दो !
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
                       यों मत छोड़ दो !





कवि - अज्ञेय
संकलन - सागर-मुद्रा (1967-1969 की कविताएँ)
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1970

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

एक लहर फैली अनन्त की (Ek lahar failee anant ki by Trilochan)


सीधी है भाषा वसन्त की 

कभी आँख ने समझी 
कभी कान ने पायी 
कभी रोम रोम से 
प्राणों में भर आयी 
और है कहानी दिगन्त की 

नीले आकाश में 
नयी ज्योति छा गयी 
कब से प्रतीक्षा थी 
वही बात आ गयी 
एक लहर फैली अनन्त की l 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - त्रिलोचन : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1985

सोमवार, 12 नवंबर 2012

राजधानी में बैल (Rajdhani mein bail by Uday Prakash)


सूर्य सबसे पहले बैल के सींग पर उतरा 
फिर टिका कुछ देर चमकता हुआ 
हल की नोक पर 

घास के नीचे की मिट्टी पलटता हुआ सूर्य 
बार-बार दिख जाता था 
झलक के साथ 
जब-जब फाल ऊपर उठते थे 

इस फ़सल के अन्न में 
होगा 
धूप जैसा आटा 
बादल जैसा भात 

हमारे घर के कुठिला में 
इस साल 
कभी न होगी रात l 


कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - एक भाषा हुआ करती है 
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2009 

शनिवार, 10 नवंबर 2012

सपने (Sapaney by Paash)



सपने 
हर किसी को नहीं आते 
बेजान बारूद के कणों में 
सोई आग को सपने नहीं आते 
बदी के लिए उठी हुई 
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते 
शेल्फों में पड़े 
इतिहास-ग्रंथों को सपने नहीं आते 

सपनों के लिए लाज़िमी है 
झेलनेवाला दिलों का होना 
सपनों के लिए 
नींद की नज़र लाज़िमी है 

सपने इसलिए 
हर किसी को नहीं आते l 


कवि - पाश 
किताब - सम्पूर्ण कविताएँ : पाश 
संपादन और अनुवाद - चमनलाल 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, 2002

सोमवार, 5 नवंबर 2012

मोह (Moh by Sumitranandan Pant)



छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
     बाले ! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन ?
                              भूल अभी से इस जग को !

तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
      तेरे भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन ?
                                भूल अभी से इस जग को !

कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
       कह, तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण ?
                                             भूल अभी से इस जग को !

ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
           ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन ?
                                       भूल अभी से इस जग को !
                                                        
                                                                      (1918)


कवि - सुमित्रानंदन पन्त 
संकलन - आधुनिक कवि 
प्रकाशक - हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग, 1994 

रविवार, 4 नवंबर 2012

घर (Ghar by Shankho Ghosh)



मन-ही-मन 
रहा हूँ खोज घर 
एक, बहुत दिनों से l
जाऊँगा जाने कब 
डूब मैं 
प्रकाश की तरलता में !

घर क्या मिला तुम्हें ?
घर तो लिया है ढूँढ़ 
बहुत दिन पहले - 
मन-ही-मन,
चाहिए घर - दुनिया के बाहर l


कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 3 नवंबर 2012

सन् 47 को याद करते हुए (47 ko yaad karte huye by Kedarnath Singh)


तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह 
गेहुँए नूर मियाँ 
ठिगने नूर मियाँ 
रामगढ़ बाज़ार से सुर्मा बेचकर 
सबसे अन्त में लौटने वाले नूर मियाँ 
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह 

तुम्हें याद है मदरसा 
इमली का पेड़ 
इमामबाड़ा 
तुम्हें याद है शुरू से अख़ीर तक 
उन्नीस का पहाड़ा 
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर 
जोड़-घटाकर 
यह निकाल सकते हो 
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर 
क्यों चले गए थे नूर मियाँ 
क्या तुम्हें पता है 
इस समय वे कहाँ हैं 
ढाका
या मुल्तान में 
क्या तुम बता सकते हो 
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में  

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह 
क्या तुम्हारा गणित कमज़ोर है 


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1983

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

दु:ख (Dukh by Ekant Shrivastav)


दु:ख वह है 
जो आँसुओं के सूख जाने के बाद भी 
रहता है
ढुलकता नहीं मगर मछली की आँख-सा
रहता है डबडब 

जो नदी की रेत में अचानक चमकता है 
चमकीले पत्थर की तरह 
जब हम उसे भूल चुके होते हैं 

दु:ख वह है 
जिसमें घुलकर 
उजली हो जाती है हमारी मुस्कान 

जिसमें भीगकर 
मज़बूत हो जाती हैं
हमारी जड़ें

कवि - एकान्त श्रीवास्तव 
संकलन - मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2000