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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

सन्नाटा (Sannaataa by Makhdoom Mohiuddin)


कोई धड़कन
न कोई चाप
न संचल (हलचल?)
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये राहगुज़र
कोई रुखसार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे l


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004

ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने ठीक ही कहा था कि "मख़्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूँदें भी...वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी."

सोमवार, 30 जुलाई 2012

सब कुछ की जड़ में (Sab kuchh ki jad mein by Deviprasad Chattopadhyay)


        बहुत पहले की बात है. लोगों की एक जमात थी. उनका पेशा मवेशी पालना था. रोहिताश्व ऐसी ही एक जमात का आदमी था. उसके पिता का नाम हरिश्चंद्र था. रोहिताश्व का मतलब लाल घोड़ा होता है. हरि के माने भी घोड़ा है. शायद साईं जमात ही अपना परिचय घोड़ा कहकर देती थी.
       ब्राह्मण बने इन्द्र ने रोहित को बार-बार नसीहत दी थी-काम में ही मंगल बसता है, सौन्दर्य रहता है. जो काम करता है, वही श्रेष्ठ है. काम से ही सुख मिलता है. इसलिए काम करो. जो काम करता है उसका शरीर और मन, दोनों बढ़ते हैं. मेहनत सारी कमियाँ दूर किए रहती है. इसलिए काम करो. काम करने से मधु, मीठे फल मिलते हैं. देखो, सूरज की रोशनी सदा चलती है, कभी नहीं सोती. इसलिए काम करो, काम करो.
       लेकिन इन्द्र ने पहले ही कहा तह, काम की यह महत्ता उनकी सुनी हुई है. इससे यह पता चलता है कि इन्द्र स्वयं परिश्रम नहीं करते थे. बहुत संभव है, वे उस ज़माने के एक दास-प्रभु थे. खुद मेहनत करने के बजाय दासों से मेहनत कराके वे अपार संपत्ति के मालिक बन बैठे थे. रोहिताश्व को पाने के लिए वे बहुत दिनों से सत्तू बाँधकर पीछे पड़े थे, जैसा कि चाय बागान की कुलीगिरी और लड़ाई के सिपाही की भर्ती के लिए दलाल तरह-तरह से फुसलाते हैं. यह भी शायद वैसा ही था.
       इन्द्र ने कहा था, चरैवेति, चरैवेति - काम करो, काम करो. लेकिन जो काम करेगा, वह अपनी मेहनत का पूरा फल पाएगा या नहीं, इस पर उन्होंने ख़ास कुछ नहीं कहा. दरअसल अगर काम का फल काम करने वालों को मिलता तो इन्द्र का वैसा महल बनकर नहीं खड़ा होता.
       बात चाहे अच्छी ही हो, पर वह किसके लाभ के लिए कही गई है, यही देख लेना ज़रूरी है. आज जब कुछ लोग स्वयं आराम करते हुए देश के बाकी लोगों की गर्दन तोड़ने के लिए उपदेश दिया करते हैं, तो वह सत्य नहीं जँचता, जाली हो जाता है. उसमें छन्द नहीं फन्द है. 


सम्पादक - देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय 


पुस्तक - जानने की बातें, भाग 5 , साहित्य और संस्कृति 
मूल - बांग्ला में प्रकाशित 'जानवर कथा' पुस्तकमाला का पंचम भाग 
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

प्रख्यात दार्शनिक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बच्चों में समय, समाज और प्रकृति को देखने-परखने की वैज्ञानिकी समझ तथा ज्ञान के विकास के लिए विभिन्न विषयों के आधिकारिक विद्वानों के सहयोग से ग्यारह खंडों में इस महत्त्वपूर्ण पुस्तकमाला का संकलन-संयोजन-संपादन किया है. यह किसी बाल विश्वकोश से कम नहीं. खुशी-खुशी लक्ष्य की ओर बढ़ना ही छन्द है - इस तरह से छन्द को परिभाषित करते हुए वे चलते-चलाते रोहित की जो कहानी सुनाते हैं, वह पेश है.

शनिवार, 28 जुलाई 2012

जब जंगी जहाज ओझल हो जाते हैं (A State of Siege by Mahmoud Darwish)

जब जंगी जहाज ओझल हो जाते हैं, फाख्ता  उड़ती  हैं
उजली , उजली  .आसमान के गालों को पोंछते हुए
अपने आज़ाद डैनों से,  वापस हासिल करते हुए वैभव और प्रभुसत्ता 
वायु और क्रीड़ा की. ऊंचे और ऊंचे
फाख्ता उड़ती हैं , उजली , उजली . काश, कि आसमान 
असली होता (एक आदमी ने गुजरते हुए दो बमों के बीच से मुझे कहा)
..........

(एक हत्यारे से:)  अगर तुमने शिकार के चेहरे पर ध्यान दिया होता
और सोचा होता , तुम याद कर पाते गैस चैंबर में  अपनी मां को      ,
तुम खुद  को आज़ाद कर पाते राइफल के विवेक से
और बदल देते अपना विचार : यह वह तरीका नहीं 
जिससे पहचान वापस हासिल की जाती है! 
...........

हमारे नुकसानात :  दो शहीदों से आठ 
हर रोज़,
और दस ज़ख़्मी
और बीस घर
और पचास जैतून के दरख़्त , 
अलावा उस संरचनात्मक आघात  के 
जो होगा कविता को , नाटक और अधबनी पेंटिंग को 
............





एक औरत ने एक बादल से कहा: मेरे प्यारे को ढांप लो
क्योंकि मेरे कपड़े तर हैं उसके खून से !
..........

अगर तुम एक बारिश नहीं मेरे प्यारे
एक पेड़ हो जाओ
उर्वरता से तर.. पेड़ हो जाओ एक
और अगर तुम पेड़ नहीं हो मेरे प्यारे
एक शिला बन जाओ
नमी से तर..शिला बन जाओ एक
और अगर तुम शिला नहीं हो मेरे प्यारे
एक चाँद बन जाओ
आशिक की नींद में..चाँद बन जाओ एक
(यह है वह जो एक औरत ने कहा
अपने बेटे को उसके दफ़न पर)

  





फिलिस्तीनी कवि - महमूद दरवेश
संग्रह - द बटरफ्लाई'ज़ बर्डन
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - फैडी जूडा 
प्रकाशक - कॉपर कैन्यौन प्रेस, वाशिंगटन, 2007
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

  

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

सीटी बजी खलबली मची (Seetee bajee khalbalee machee by Suniti Namjoshi)


             एक थी चंचल राजकुमारी
     महलों की रौनक सब की दुलारी l
        शौक था उसका सीटी बजाना
               मीठी धुन में गाना गाना ll

         राजा रानी को चिंता सताती 
           सीटी की धुन कभी न भाती l
        लड़की की जाति है उसने पाई 
          फिर भी लाज कभी ना आई ll 

               ब्याह इससे कौन रचाए 
         आखिर इसको कौन समझाए l
       तभी दिमाग में सूझी एक चाल 
        मुकाबला करवाएं हम तत्काल ll

        इससे बढ़िया जो सीटी बजाए 
               ब्याह वह उसी से रचाए l
              आधा राज इनाम में पाए 
         शान से अपना जीवन बिताए ll

          दूर-दूर से राजकुमार थे आए
              सीटी पर धुन खूब सुनाए l
        सीटी बजा कर मुंह भी फुलाए
फिर भी राजकुमारी को हरा न पाए ll

       चमक उठे राजकुमारी के नयन
              मुस्कुराई वह मन ही मन l
             होंठ दबाती हंसी छिपाती
      झुक कर राजकुमारों को सुनाती ll

             गाल फुला कर पेट फुलाया
         सीटी पर इतना जोर लगाया l
            शादी पर यूँ दिल ललचाया
      फिर भी कोई मुझे हरा न पाया ll

           राजकुमार थे हार से परेशान
           मिट गई थी अब उनकी शान l
लगता है,राजकुमारी को जादू है आता
               वरना हमको कौन हराता ?

    तभी बढ़ कर बोला एक राजकुमार
                    मान गया मैं तुमसे हार l
            कितनी बढ़िया सीटी बजाती
             धुन में मुझको तुम उलझाती ll

         सच्चाई सुन सब रह गए हैरान
   खुशी से राजकुमारी ने किया ऐलान l
            हार मानने से यह न कतराए
                 सच्ची बात से न घबराए ll

                      अहंकार नहीं है इसमें
                    शादी करूँगी मैं इसी से ll


रचनाकार - सुनीति नामजोशी
मूल - फेमिनिस्ट फेबल्स 
किताब - बोलती है भाषा
काव्य रूपांतरण - आरती श्रीवास्तव 
प्रकाशक - निरंतर, दिल्ली, 2002


नारीवादी सिद्धांतों की बात कथा से कविता में और अपनी ज़िन्दगी में लानेवाली आरती को याद करते हुए जिसने छंद और लय से ज़्यादा भावना की परवाह की है...

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

ओछी (Ochhee by Siyaramsharan Gupt)



जल तक  गगरी  पहुँच न  पाई  घनी-घनी  यह अँधेरी ;
                                         ओछी री रसरी मेरी !
गहरा कुआँ, व्योम-तारक  वह विहँस  उठा जल में नीचे,
रीता (खाली) घट भी भारी-भारी, हतभागी  कैसे खींचे. 
लौट  गईं  जल भर-भरकर वे  सब की सब घर अपने री,
                                          ओछी री रसरी मेरी !

हुई अबेर (देर), दूर तक वन-पथ, खग-मृग झीमे-झीमे से;
किसे   पुकारूँ, खिसक  रही  है  साँझ-सुबह  री  धीमे-से.
बढ़ी  आ रही  रजनी  प्रतिपल लिए मौन  भय  की  भेरी.
                                           ओछी री रसरी मेरी !

आओ   हो  आओ, मुझको   ही  बाँधो   मेरी   रसरी   में;
बड़ी   बनूँगी   उतर  आप  ही  भर  लाऊँगी   गगरी   मैं.
रीता   घट   ले  लौट  सकेगी  कैसे  यह   प्रिय  की  चेरी;
                                           ओछी री रसरी मेरी !


कवि - सियारामशरण गुप्त 
संग्रह - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

बुधवार, 25 जुलाई 2012

समधिन (Samdhin by Nazeer Akabarabadi)


सराप हुस्ने-समधिन गोया गुलशन की क्यारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधिन से हारी है
खिंची कंघी गुँथी चोटी जमी पट्टी लगा काजल
कमाँ अब्रू नज़र जादू निगाह हर एक दुलारी है
जबीं महताब आँखें शोख़ शीरीं ब गोहर-दन्दाँ
बदन मोती दहन गुंचा अदा हँसने की प्यारी है
नया किमख़्वाब का लहँगा झमकते ताश की अँगिया
कुचें तसवीर-सी जिन पर लगा गोटा किनारी है
मुलायम पेट मख़मल-सा कली-सी नाफ़की सूरत 
उठा सीना सफ़ा पेडू अजब जोबन की नारी है
लटकती चाल मदमाता चले बिच्छू को झनकाती 
अदा में दिल लिये जाती अजब समधिन हमारी है
भरे जोबन पै इतराती झमक अँगिया की दिखलाती
कमर लहँगे से बल खाती लटक घूँघट की भारी है  

सराप- सर से पैर तक, अब्रू - भवें कमान की तरह, जबीं - ललाट, महताब - चाँद, गोहर - मोती, दन्दाँ - दाँत यानी मोती की तरह दाँत, नाफ़की - नाभि, बिच्छू - पैर की अँगुली में पहननेवाला जेवर, बिछुवा 

कवि - नजीर अकबराबादी 
संग्रह - नज़ीर की बानी 
प्रस्तुतकर्ता - फ़िराक़ गोरखपुरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1999 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

कवि का स्कूल (Kavi ka school by Rabindranath Tagore)



मुझसे जो सवालात अकसर पूछे जाते हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जनसमुदाय मुझसे, एक कवि से स्कूल खोलने का दु:साहस करने की वजह पूछता है. मैं इसे स्वीकार करता हूं कि रेशम का कीड़ा जो रेशम बुनता है और तितली जो यों ही उड़ती फिरती है, ये दोनों एक दूसरे के विपरीत अस्तित्व के दो प्रकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं. लगता है, प्रकृति के लेखाविभाग में रेशम का कीड़ा जितना उत्पादन करता है, उसके हिसाब से उसके काम का नकदी मूल्य नोट होता रहता है. लेकिन तितली गैरजिम्मेदार प्राणी है. इसका जो भी महत्त्व है, वह इसके नाते दो हलके पंखों के साथ उड़ता रहता है, उसमें न कोई भार है, न ही कोई मूल्य. संभवतः यह सूर्य की रोशनी में छिपे रंगों के कुबेर को खुश करती रहती है, जिनका लेखाविभाग से कोई लेना देना नहीं और जो लुटाने की महान कला में पूरी तरह माहिर है.
कवि की तुलना उसी बुद्धू तितली से की जा सकती है. वह भी सृष्टि के सभी उत्सवी रंगों को अपने छंदों की धड़कन में उतार देना चाहता है. तब वह कर्तव्यों की अनंत श्रृंखला में अपने आपको क्यों बांधे ? क्यों उससे कुछ अच्छे, ठोस और दर्शनीय परिणाम की आशा की जाए ? अपने बारे में निर्णय करने का अधिकार वह उन बुद्धिमान लोगों को क्यों दे जो उसकी रचना का गुण होने वाले फायदे की मात्रा से समझने की कोशिश करें.
इस कवि का उत्तर होगा कि जाड़े की खिली धूप में कुछ विस्तृत शाखाओं वाले मजबूत, सीधे और लंबे साल वृक्षों की छाया में जब एक दिन मैं कुछ बच्चों को लेकर आया तो मैंने शब्द के अतिरिक्त एक और माध्यम से कविता लिखनी शुरू की.


रचनाकार - रवींद्रनाथ ठाकुर
किताब - रवींद्रनाथ का शिक्षादर्शन
अनुवादक - गोपाल प्रधान  
प्रकाशक - ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 1997

सोमवार, 23 जुलाई 2012

पाषाण से संवाद (Paashaan se samvaad - Kanka Murthy)


कनका मूर्ति का जन्म मैसूर के निकट तिरुमाकूडलु नरसीपुर में हुआ था....इनका गांव सोमनाथपुर के होयसाल मंदिर के पास था. चूँकि यह प्राचीन मंदिर घर के पास था, अतः जब भी कोई उनके घर उनसे मिलने के लिए आता तो उसे मंदिर को ज़रूर दिखाया जाता था....बचपन में कनका वहाँ मूर्तियों से खेलती और सोचती थी कि हर समय संगीत का अभ्यास करने के स्थान पर वह मूर्तियां क्यों नहीं बनाती ?  
कनका की मां सुन्दरम्मा एक कलाकार थी. वह अच्छा गाती थी पर घरेलू ज़िम्मेदारियों की वजह से उन्हें गाने का अधिक समय नहीं मिलता....सुन्दरम्मा गांव की पहली महिला थी, जिन्होंने सिर्फ बेटों को ही नहीं बल्कि अपनी बेटियों को भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बंगलोर भेजा.   
विज्ञान की स्नातक होने के बाद कनका एक साल तक घर पर ही रही क्योंकि उनके परिवार ने उन्हें आगे पढ़ाने की ज़रुरत महसूस नहीं की. उनके विवाह के लिए प्रयत्न किए जाने लगे. कनका मुस्कुराते हुए कहती हैं, कि वह काली थी और एक काली लडकी के लिए वर मिलना बहुत मुश्किल था. उसका काला रंग उसके लिए वरदान साबित हुआ. कनका ने इस बीच रेखाचित्र बनाने का प्रयास किया और कुछ समय तक चित्र भी बनाए....
कलामंदिरम् में पढ़ते हुए ही कनका ने वादिराज के विषय में सुना था. वादिराज एक महान परंपरावादी मूर्तिकार थे....एक दिन वादिराज ने उनसे कहा कि चित्रकला उसके लिए उपयुक्त नहीं है. संभव है कि परंपरागत मूर्तिकला के लिए अनिवार्य रेखाचित्रांकन में निपुण होने के कारण मूर्तिकला उसके लिए अधिक उपयुक्त हो....कनका ने वादिराज से सीखना शुरू कर दिया....कनका के पिता...सोचते थे कि कनका पहले ही काली है और धूप में बैठकर मिट्टी और अन्य सामग्री से काम करने से वह और काली हो जाएगी. उन्हें इस बात का डर था कि  इससे उसकी शादी के आसार और कम हो जाएंगे. उसके पिता बैलगाड़ी से यात्रा करते थे. गाड़ी के लौटने की आवाज़ कनका दूर से ही सुन लेती और तुरंत काम के स्थान को साफ़ कर वहां से हट जाती...
कनका ने पहले प्लास्टर ऑफ पेरिस को ढालना सीखा और फिर...उन्होंने लकड़ी पर प्रशिक्षण लेना शुरू किया....धीरे-धीरे उन्होंने मूर्ति बनाने वाले पत्थरों से उसे परिचित कराया. इस पूरी प्रक्रिया में चार-पांच साल लग गए. कनका ने पत्थर के माध्यम को बहुत खूबसूरत और अपनी सर्जना के समीप पाया....कनका के लिए पत्थर का अर्थ कुछ और ही है. कनका कहती है कि छेनी के हरेक प्रहार के साथ पत्थर उनसे बात करता लगता है जैसे वह अपने भीतर छुपे आकार के विषय में मुझे कुछ बता रहा हो....
कनका अधिकांश काम मानवाकृति पर करना चाहती हैं....कनका ने तांबे...पर भी कार्य किया है. उनकी बनाई गणेश की एक मूर्ति बंगलोर के एक मंदिर में स्थापित की गई है....कनका जब स्त्री का चेहरा बनाती है तो वह बहुत कोमल नहीं होता. वह चेहरे पर शक्ति का भाव उत्पन्न करना चाहती है. वह अपनी स्त्री में बहुत स्त्रियोचित भाव नहीं लाना चाहती हैं. उनके अनुसार चेहरे पर विशेष गौरव के भाव होने चाहिए. वह यह कहते हुए हंसती है कि , "संभवतः मैं अपनी कुछ विशेषताओं को वहां ढालती हूं." 



मूल पाठ -सी.एस लक्ष्मी 
बातचीत - लेखिका शशि देशपांडे और चित्रकार भारती कपाडिया 
किताब - पंखों की उड़ान 
दृश्य श्रव्य कार्यशाला में सहभागी महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों पर आधारित श्रृंखला  
सम्पादन - सुधा अरोड़ा 
अनुवाद संयोजन - मालविका अहलावत, तुलसी वेणुगोपाल 
प्रकाशक - स्पैरो, मुंबई, 2003

रविवार, 22 जुलाई 2012

कितने नसीब की बात है (What Luck by Tadeusz Różewicz)


कितने नसीब की बात है कि मैं चुन सकता हूँ

जंगल में बेरियाँ
मैंने सोचा था 
कोई जंगल नहीं है और न बेरियाँ

कितने नसीब की बात है कि मैं लेट सकता हूँ
पेड़ की छाया में
मैंने सोचा था पेड़
अब और छाया नहीं देते

कितने नसीब की बात है कि मैं हूँ तुम्हारे साथ
मेरा दिल धड़कता है यों
मैंने सोचा था
आदमी के दिल  नहीं होता.


                          पोलिश कवि - तादयूश रुज़ेविच



                      संग्रह - 'होलोकास्ट पोएट्री'
                      संकलन और प्रस्तावना - हिल्डा शिफ़ 
                      पोलिश से अंग्रेज़ी अनुवाद - ऐडम ज़ेर्निआव्स्की  
                      प्रकाशक - सेंट मार्टिन्स ग्रिफिन, 1995
                      अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

मैं यकीन करता हूँ ( I Believe from Holocaust Poetry )




मैं यकीन करता हूँ सूरज पर
हालाँकि देर लगाता है 
यह उगने में 

मैं प्रेम पर यकीन करता हूँ
हालाँकि यह अनुपस्थित है

मैं ईश्वर पर यकीन करता हूँ
हालाँकि  वह
खामोश है...


संकलन - 'होलोकास्ट पोएट्री'
संकलन और प्रस्तावना - हिल्डा शिफ़ 
फ्रेंच से अंग्रेज़ी अनुवाद - हिल्डा शिफ़
प्रकाशक - सेंट मार्टिन्स ग्रिफिन, 1995
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

यह कोलोन में एक गुफा की (जिसमें यहूदी छिपे थे) दीवार पर लिखी इबारत है जिसके नीचे कोई नाम नहीं .

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

कवि की पूर्णिमा (Kavi Ki Purnima by U. R. Ananthamurthy)



पूरे दिनों से बैठी भाभी की तेजस्वी दृष्टि हाथ में बुनाई के साथ कोई सपना देख रही थी. भय्या की नज़र खिड़की के बाहर कहीं शून्य में कुछ टटोल रही थी. कमरे के भीतर अनंत प्रकाश फैला था. भाभी के बालों से हवा के झोंकों में तैरकर आने वाली मल्लिका की सुगंध. खिड़की से बाहर फैले आकाश की अपार शुभ्र नीलिमा.
   भरा-पूरा जीवन...छलकता प्रकाश...तीखी सुगंध, डोलता सपना...गगन की अनंतता - बीच में मृत्यु. सब की अनित्यता की घोषणा करने वाली मृत्यु.
   आनंद ह्रदय की पीड़ा से तड़प रहा था. गुलाबी धूप में घूँ-घूँ करता आने वाला एक भँवरा बिस्तर के पास आकर सौन्दर्य के सन्देश से उसे दुखी कर रहा था. अनन्तता के बीच यह मृत्यु...मिट्टी ! मिट्टी !  अन्त में सब-कुछ मुट्ठी-भर मिट्टी !
   खाँसी से जैसे दिल फट-सा गया. उसने अपने को संभालकर चारों ओर घबरा कर देखा. ताज़ा धूप की किरणें भाभी की आँखों और नाक की लौंग पर छिटक रही थीं.
   सुख-सपना उसकी आँखों से खिसक गया. हाथ की बुनाई यंत्रवत रुक गयी, कुछ भूलने के लिए भाई कमरा छोड़कर बाहर चला गया. भाभी की दृष्टि व्यथित थी.
   यह पच्चीस वर्ष का भरा-पूरा जीवन मृत्यु का ग्रास बनेगा.
   गर्भ में जीवन का पिंड और इधर मृत्यु. सोचते-सोचते भाभी की आँखों में दर्द समा गया.
   अपनी स्थिति से उस छोटे-से परिवार को घेरे दुख को भुलाने के प्रयास में आनंद मुसकराया. उसकी आँखों में जब हँसी चमकी, तब कसे होठों वाली मृत्यु भी ठिठकी. कैसा समय !
   "भाभी, बच्चे का नाम क्या रखोगी ?"
   बच्चे की बात याद आते ही भाभी का कली जैसा मुँह खिल उठा.
   "तुम्हारा नाम. लड़का हुआ तो आनंद, लडकी हुई तो आनंदी."
   यह कह कर वह शरारती हँसी हँस पड़ी. आनंद ने आँखें बंद करके अप्रिय विचारों को भूलने का प्रयास किया.
   "वह पूर्ण आयु पाये. मेरे नाम पर उसका नाम क्यों ?"
भाभी के दिल को बात लग गयी. जीवन-पिंड को अपने गर्भ में बुनने वाली माँ को, आनंद की मृत्यु समीप है, यह सोचना भी असाध्य लगता है. मरने वाले क्या सदा के लिए इस लोक से अलग हो जायेंगे ? इस जीवन में इतना प्रेम भरा है तो ऐसा कैसे संभव होगा ? कितना प्रकाश भरा है इस लोक में ? नहीं, आनंद नहीं जायेगा. अगर चला भी गया तो वापस आ जायेगा ; ज़रूर आयेगा. 


                    कथाकार - यू. आर. अनंतमूर्ति 
                    संकलन - घटश्राद्ध  
                    कन्नड़ से हिन्दी अनुवाद - वी. आर. नारायण 
                    प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1984

(याद करते हुए...एक और आनंद ...)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

कृमिभैषज्यकर्म सूक्त (A hymn for the destruction of parasitic worms from Atharvaveda)



अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन् धनपते जहि l
हता विश्वा अरातय उग्रेण वचसा मम ll2ll
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति l
दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ll3ll   
सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ l
बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हताः ll4ll     
ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णाः शितिबाहवः l      
ये के च विश्वरूपास्तान् क्रिमीन् जम्भयामसि ll5ll
हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः l   
हतो हतमाता क्रिमिर्हतभ्राता हतस्वसा ll11ll 
हतासो अस्य वेशसो हतासः परिवेशसः l  
अथो ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः ll12ll 
सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीणाम् l
भिनद्म्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम्  ll13ll


शिशुओं में विद्यमान कृमियों को दूर करने के मंत्र -


इस कुमार के कृमियों को तू धनपति इन्द्र, कर विनष्ट तुरत
मेरे उग्र  'वचस्' से ये सारे हैं हो गए निहत l
जो आँखों में रेंग रहा है, जो कि नाक में रेंगे दुष्ट
घूम रहा है जो दांतों में, उस कृमि को करते हम नष्ट l 
दो सरूप हैं, दो विरूप हैं, दो काले, दो हैं लोहित
भूरा, भूरे कानों वाला, गृध्र, कोक - सब हुए निहत l
जो कृमि श्वेत कांख वाले, जो काले, श्वेत बांह वाले 
विश्वरूप जो, उन सबको हम क्षण में यहाँ मार डालें l
हत कृमियों का राजा, इनका हत होकर सरदार गिरा  
हत भ्राता, हत है स्वसा, स्वयं हत कृमि गिरा पड़ा l 
इस कृमि के पास दूर के साथी, सभी हो गए हैं हत 
है जिनका आकार सूक्ष्म, वे सब कृमि हत हो गए तुरत l
सब नर मादा कृमियों का सर मैं हूँ फोड़ रहा पत्थर से 
और अग्नि से जला रहा मुख, (दूर रहें ये मेरे घर से) l


     अथर्ववेद (शौनकीय), पञ्चम काण्ड, पञ्चम अनुवाक, द्वितीय सूक्त
     मंत्र संख्या- 2,3,4,5,11,12,13
     मूल - सायण भाष्य सहित और विश्वबन्धु द्वारा संपादित 
     प्रकाशक - विश्वेरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1960
     पुस्तक - प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास
     हिंदी अनुवाद - विशिष्ट अनुवाद समिति 
     लेखक - एम. विंटरनिट्ज  
     प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1961 

बुधवार, 18 जुलाई 2012

सहारा (A helping hand by Miroslav Holub)



हमने घास को  सहारे का हाथ  दिया -
और वह मकई बन गई,
हमने आग को सहारे का हाथ दिया -
और वह रॉकेट बन गई.
झिझकते  हुए,
बचा-बचाकर,
हम सहारा देते हैं
लोगों को,
कुछ लोगों को...

                       चेक कवि - मिरोस्लाव होलुब, 1961
                       संग्रह - पोएम्स : बिफोर एंड आफ्टर
                       चेक से अंग्रेज़ी अनुवाद - जॉर्ज थाइनर
                       प्रकाशक - ब्लडैक्स बुक्स, ग्रेट ब्रिटेन, 1990
                       अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

सुरक्षित (Safe by Charles Bukowski)



बगल का घर मुझे 
उदास करता है.
पति-पत्नी, दोनों तड़के जगते हैं और 
काम पर निकल जाते हैं
वे शाम ढलते घर आ जाते हैं.
उन्हें एक  छोटा 
लड़का और लड़की है.
रात नौ बजे तक घर की सारी बत्तियां 
बुझ जाती  हैं.
अगली सुबह दोनों, पति और 
पत्नी फिर जागते हैं तड़के   और जाते हैं 
काम पर.
वे शाम ढलते वापस आते हैं.
नौ बजे रात तक सारी बत्तियां 
बुझ जाती हैं.

बगल का घर मुझे 
उदास करता है. 
लोग  भले लोग हैं, मैं उन्हें 
पसंद करता हूँ.

   लेकिन मैं महसूस करता हूँ उन्हें डूबते हुए.
   और मैं उन्हें बचा नहीं सकता. 

   वे जी रहे हैं.
   वे 
   बेघर नहीं हैं.

  लेकिन  इसकी कीमत 
  भीषण है.

  कभी-कभी दिन के वक्त 
  मैं घर को देखता हूँ
  और वह घर 
  मुझे देखता है
  और वह घर 
  रोता है, हाँ, हाँ!, मैं 
  इसे महसूस करता हूँ.

  वह घर उदास है
  उसमें रहने वाले लोगों के लिए
  और मैं भी
  और हम दोनों एक-दूसरे को देखते हैं
  और गाड़ियां सड़क पर आती जाती हैं,
  नावें बन्दरगाह पार करती हैं
  और ऊंचे ताड़-वृक्ष कोंचते हैं
  आसमान को
  और आज रात नौ बजे 
  बत्तियां बुझ जाएँगी,
  और न सिर्फ उस घर में 
  और न सिर्फ इस शहर में.
  सुरक्षित जिंदगियां छिपाए हुए 
  लगभग 
  बंद,
  सांसें
  देहों की और
  कुछ नहीं. 

              
               अमरीकी कवि - चार्ल्स बुकोव्स्की 
               संकलन - द प्लेज़र्स ऑफ द डैम्ड, पोएम्स 1951-1993

               संपादक - जॉन मार्टिन
               प्रकाशक - हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स, न्यूयार्क, 2008
               अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

पिप्पी (Pippi Longstocking by Astrid Lindgren)


पिप्पी के बारे में टीचर ने शहर के लोगों से भी सुन रखा था.वह एक दयालु और खुशमिजाज टीचर थी, इसलिए उसने तय कर लिया कि वह पिप्पी को स्कूल में संतुष्ट रखेगी.
किसी के कुछ कहे बिना पिप्पी एक खाली कुरसी पर जा कर बैठ गई. लेकिन टीचर ने उसकी लापरवाही पर ध्यान नहीं दिया. प्यार से बोली, "पिप्पी बेटे, स्कूल में तुम्हारा स्वागत है. आशा है तुम यहाँ खुश रहोगी और बहुत कुछ सीखोगी."
"बिलकुल ! और मेरी आशा है कि मुझे क्रिसमस की छुट्टियाँ मिलेंगी," पिप्पी बोली. "इसीलिए तो मैं आई हूँ. सबसे बढ़कर इन्साफ़ !"
"पहले तुम अपना पूरा नाम बताओ," टीचर ने कहा, "और फिर मैं तुमको स्कूल में दाखिल कर देती हूँ."
"मेरा नाम पिप्पीलोटा सामानीया चिक्किलीना पुदीनाहारी इफ़्राइमपुत्री लंबेमोज़े है, बेटी कप्तान इफ्राइम लंबेमोज़े की, जो समुंदर के बादशाह थे और अब हैं दक्षिणी समुद्र के राजा. पिप्पी मेरा उपनाम है क्योंकि बाबा को लगा कि पिप्पीलोटा नाम बहुत लंबा है."
"अच्छा," टीचर ने कहा. "चलो, हम भी तुम्हें पिप्पी ही बुलाते हैं. अब हम तुम्हारी ज्ञान की परिक्षा लेते हैं. तुम तो काफ़ी बड़ी हो, तुमें बहुत कुछ मालूम होगा. गणित से शुरू करते हैं. तो बताओ, 7 और 5 कितने हुए ?"
पिप्पी ने उनको आश्चर्य और गुस्से से देखा. फिर बोली, "तुम्हें नहीं पता तो मैं थोड़े ही जोड़नेवाली हूँ."
बच्चे घबराकर पिप्पी को देखने लगे. टीचर ने समझाया कि स्कूल में जवाब देने का यह तरीका नहीं है. और टीचर को 'तुम' करके नहीं बुलाते, उनको 'मिस' कहते हैं.
पिप्पी को खेद हुआ. वह बोली, "सॉरी. मुझे मालूम नहीं था. दुबारा ऐसा नहीं करूँगी."
"और करना भी नहीं चाहिए," टीचर ने कहा. "ठीक है, तो मैं बताती हूँ, 7 और 5 होते हैं 12 ."
"देखा," पिप्पी बोली. "तुम्हें मालूम था तो पूछा क्यों ?उफ़ ! मैं बिलकुल बुद्धू हूँ ! फिर से तुम्हें 'तुम' बोल दिया. माफ़ करो." ऐसा कहकर उसने अपने आप को चिहुँटा.
टीचर ऐसे पेश आई जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं. वह बोली, "अच्छा तो पिप्पी बताओ, तुम्हें क्या लगता है, 8 और 4 कितने होते हैं ?"
"लगभग 67 ," पिप्पी बोली.
"बिलकुल नहीं," टीचर ने कहा ."8 और 4 होते हैं 12 ."
"चल, चल मेरी अम्मा, तुम हद से बाहर जा रही हो,: पिप्पी बोली. "तुम्हीं ने कहा कि 7 और 5 होते हैं 12 . स्कूल में भी कुछ तरीका होना चाहिए. इस तरह के बचपने में तुम्हें दिलचस्पी है तो तुम क्यों न कोने में बैठी गिनती करती रहो और हम शांति से छोन-छुँई खेलते हैं. ओहो, फिर से 'तुम' कह दिया !" पिप्पी भयभीत हो बोली. "इस बार भी माफ़ कर सकती हो ? आगे से याद रखने की कोशिश करूँगी."
टीचर मान गई.

              लेखिका - ऐस्ट्रिड लिंडग्रन  
              बाल उपन्यास - पिप्पी लंबेमोज़े, मूल में पिप्पी लौंगस्टरुम्प 
              स्वीडिश भाषा से हिन्दी अनुवाद - संध्या राव और मेटा औट्टोस्सौन
              प्रकाशक - तूलिका पब्लिशर्स, चेन्नई , पहला संस्करण - 2004  

रविवार, 15 जुलाई 2012

अफ़सोस, हम इतना बढ़िया आविष्कार थे (A Pity, We Were Such a Good Invention by Yehuda Amichai)



उन्होंने काट कर अलग कर दीं
तुम्हारी जांघें मेरे नितम्बों से
जहां तक मेरी बात है
वे सब सर्जन हैं. सब के सब.

उन्होंने काट कर अलग कर दिया हमें
हर एक को दूसरे से .
जहां तक मेरी बात है
वे सब इंजीनियर हैं. सब के सब.

अफ़सोस. हम इतना बढ़िया
और प्यारा आविष्कार थे.
एक मर्द और एक औरत से बना एक हवाईजहाज.
पंख और बाकी सारा कुछ.
हम धरती के ज़रा ऊपर मंडराए.

यहाँ तक कि हम थोड़ा उड़े भी.
 


                     इस्राइली कवि येहूदा आमिखाई
                  संकलन - सेलेक्टेड पोएम्स
                  संपादक - टेड ह्यूज़ और डैनियल वेस्बोर्ट
                  हिब्रू से अंग्रेज़ी अनुवाद - आसिया गुतमान्न और टेड ह्यूज
                  प्रकाशक - फेबर एंड फेबरलंदन , 2000 
                  अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद
                                  

शनिवार, 14 जुलाई 2012

क़ब्रिस्तान में औरतों की रूहें (Kabristan mein auraton ki roohein by Zahida Hina)


...ख़बर कुछ यूँ है कि कराची से पाँच सौ किलोमीटर के फ़ासले पर ताल्लुक़ा हेडक्वार्टर ढरकी से सत्तर किमी.दूर यूनियन कौंसिल बरुथा में चार कब्रिस्तानों का पता चला है, जिनमें लगभग दो सौ औरतें दफ़न हैं, इन कब्रिस्तानों में आम लोग और बस्ती वाले दाख़िल नहीं हो सकते. यहाँ सिर्फ़ वही लोग आते हैं, जो यहाँ किसी औरत को लाकर क़त्ल करते हैं और फिर यहीं दफ़न कर देते हैं. इन क़ब्रिस्तानों की कोई चारदीवारी नहीं है और इनमें हर तरफ़ झाड़ियाँ उगी हुई हैं. आसपास के आठ-दस गाँव ख़ाली हो चुके हैं, क्योंकि इन गाँव वालों का कहना है कि रात में उन्हें क़त्ल होने वाली औरतों की रूहें नज़र आती हैं और उनके रोने की आवाजें सुनाई देती हैं.
   21 वीं सदी में हमारे यहाँ की बेशुमार गरीब और पिछड़ी हुई औरतों का यह मुक़द्दर है. उनके अंजाम पर उदास होते हुए मुझे भोपाल की रियासत याद आती है, जहाँ एक सदी से ज्यादा सिर्फ़ औरतों ने हुकूमत की. प्रिंसेस आबिदा सुल्तान याद आती हैं, जिनकी खुद-नविश्त (आत्मकथा)  उनकी मौत से कुछ दिन पहले 'मेमोरीज़ ऑफ़ अ रीबेल प्रिंसेस' के नाम से आई है. भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान ने अगर एक बाग़ी शहज़ादी की ज़िंदगी गुज़ारी तो इस बारे में हैरान नहीं होना चाहिए. फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेज़ी उन्हें बचपन से पढ़ाई गई. लकड़ी का काम और जस्त के बरतन बनाना सिखाया गया.वह कमाल की निशानेबाज़ और घुड़सवार थीं. घुड़सवारी उन्होंने उस उम्र में सीखी, जब उन्होंने चलना भी नहीं शुरू किया था. वह हॉकी और क्रिकेट खेलतीं, मौसिक़ी की शौक़ीन थीं. हारमोनियम बजातीं और हर एडवेंचर में आगे-आगे रहतीं. कार चलातीं, तो उसकी रफ़्तार से साथ बैठने वालों की चीख़ें निकल जातीं. मुहिमजूई (एडवेंचर) उनके मिज़ाज का हिस्सा थी. ऐसे में साबिक़ (पूर्व) बेगम भोपाल, सुल्तान जहाँ बेगम की निगरानी में कड़े परदे की पाबंदी करना उनके लिए एक सज़ा थी. बारह बरस की उम्र में जाकब वह वाली अहद (उत्तराधिकारी) नामज़द की गईं, तो शाही जुलूस में वह इस हुलिए में शामिल थीं कि उनका पूरा वजूद एक काले बुरके में लिपटा हुआ था और सियाह बुरके की टोपी पर ताज जगमगा रहा था. 
   यह सब कुछ आबिदा सुल्तान के लिए अज़ाब से कम न था. आख़िरकार उन्होंने रस्सियाँ तुड़ाईं, कमर से नीचे आने वाले बाल काटकर फेंके. पर्दा तर्क किया (छोड़ा) और भोपाल की सड़कों पर मोटरसाइकिल दौडाने लगीं. एक मर्तबा घर से फ़रार हुईं और भेस बदलकर हवाई जहाज़ उड़ाना सीखती रहीं. उधर भोपाल के नवाब उनकी तलाश में हिंदुस्तान भर की ख़ाक छानते रहे. शादी हुई, एक बेटा पैदा हुआ. शहज़ादी की शादी को नाकाम होना था, सो हो गई...
   प्रिंसेस आबिदा सुल्तान की खुद-नविश्त हिन्दुस्तानी अशराफिया (खानदानी लोग) की एक ऐसी औरत की कहानी है, जिसने बग़ावत के रास्ते पर क़दम रखा और अपने बाद आने वालियों के लिए नयी राहें खोलीं. यह खुद-नविश्त हमारे सामने भोपाल के महलात से मलीर (कराची) के मज़ाफात (ग्रामीण क्षेत्र) और मुल्क चीन से अमेरिका तक ज़िंदगी गुज़ारने वाली ऐसी लडकी का किस्सा है, जिसने उस अहद (ज़माने) की लड़कियों और औरतों की आँखों में ख़्वाबों के जाने कितने चिराग़ जलाए. लेकिन मुझे घोटकी (ढरकी ?) के क़ब्रिस्तान में दफ़न वे कारी औरतें याद आती हैं, जिनके लिए किसी आँख से आँसू नहीं गिरते और जिनकी क़ब्र पर कोई चिराग़ नहीं जलता . 
                                                                                           14 अगस्त, 2005

                               
                    लेखिका  - जाहिदा हिना
                    संकलन - पाकिस्तान डायरी
                    प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

चेतावनी (Warning by Taha Muhammad Ali)



शिकार के शौकीनो,
और अपना शिकार तलाशते नौसिखुओ :
अपनी  राइफलों को न साधो
मेरी खुशी पर ;
जिसकी औकात
बुलेट के दाम बराबर नहीं
( तुम उसे बेकार ही करोगे)
जो तुम्हें इतनी फुर्तीली और खूबसूरत लगती है
हिरनौटे की तरह,
और उड़ती फिरती है
हर तरफ,
एक तीतर की तरह,
खुशी नहीं है.
यकीन करो मेरा :
मेरी खुशी का
खुशी से कोई वास्ता ही  नहीं.

    



फिलिस्तीनी कवि - ताहा मुहम्मद अली
संग्रह - ‘सो व्हाट’, 1971 से 2005 के बीच की नई और चुनींदा कविताएँ अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद और चयन - पीटर कोले, याह्या हिलाज़ी , गब्रैल लेविन
प्रकाशक - कौपर कन्योन प्रेस, वाशिंगटन, 2006
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद


ताहा मुहम्मद अली इस्राइली हमले के चलते कभी के ऐतिहासिक शहर सेप्फोरिस के स्थल पर बसे गाँव सफ्फुरिया से बेवतन होकर लेबनान में रहे. फिर उन्होंने नाज़ेरथ में घर बसाया.