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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

देहरी पर दिया (Dehri par diya by Ajneya)

देहरी पर दिया 
बाँट गया प्रकाश
कुछ भीतर कुछ बाहर :
बँट गया हिया -
कुछ गेही कुछ यायावर l
हवा का हल्का झोंका 
कुछ सिमट, कुछ बिखर गया 
लौ काँप कर फिर थिर हुई :
मैं सिहर गया l

कवि - अज्ञेय  संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है  प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

हम साथी (Hum sathi by Trilochan)

चोंच में दबाए एक तिनका 
गोरैय्या 
मेरी खिड़की के खुले हुए 
पल्ले पर 
बैठ गयी 
और देखने लगी 
              मुझे और 
                    कमरे को l 
मैंने उल्लास से कहा 
                        तू आ 
                        घोंसला बना 
                   जहाँ पसन्द हो 
शरद के सुहावने दिनों से 
हम साथी हों l 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

इंशा जी बहुत दिन बीत चुके (Insha ji bahut din beet chuke by Ibne Insha)

इंशा जी बहुत दिन बीत चुके 
तुम तन्हा थे तुम तन्हा हो 

ये जोग-बिजोग तो ठीक नहीं 
ये रोग किसी का अच्छा हो ?
कभी पूरब में कभी पच्छिम में 
तुम पुरवा हो तुम पछुवा हो ?
जो नगरी-नगरी भटकाए 
ऐसा भी न मन में काँटा हो 
क्या और सभी चोंचला यहाँ 
क्या एक तुम्हीं यहाँ दुखिया हो 
क्या एक तुम्हीं पर धूप कड़ी 
जब सब पर सुख का साया हो 
तुम किस जंगल का फूल मियाँ 
तुम किस बगिया का मेला हो ?
तुम किस सागर की लहर भला 
तुम किस बादल की बरखा हो 
तुम किस पूनम का उजियारा 
किस अंधी रैन की ऊषा हो 
तुम किन हाथों की मेंहदी हो 
तुम किस माथे का टीका हो 

क्यों शहर तजा क्यों जोग लिया 
क्यों वहशी हो क्यों रुसवा हो 
हम जब देखें बहरूप नया 
हम क्या जानें तुम क्या-क्या हो ?


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

खुर्शीद को इब्ने इंशा पसंद थे। आज उनके लिए यह सवाल है - "क्यों शहर तजा क्यों जोग लिया ... हम क्या जानें तुम क्या-क्या हो ?"

रविवार, 15 दिसंबर 2013

पास (Paas by Trilochan)

और, थोड़ा और, आओ पास 
मत कहो अपना कठिन इतिहास 
मत सुनो अनुरोध, बस चुप रहो 
कहेंगे सब कुछ तुम्हारे श्वास
 
कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

जो नाथेगा नाग (Jo nathega naag by Rakesh Ranjan)

आसमाँ उगलता है भर-भर मुँह आग 
घोड़ों के जबड़ों से झड़ता है झाग 

ऊब है, थकावट है, गुस्सा है, पस्ती है 
लुटे-पिटे लोगों से पटी पड़ी बस्ती है 
बस्ती का नूर हुआ बस्ती से दूर 
बस्ती में कोई मैदान है न बाग !

बस्ती में बच्चे हैं, सच्चे हैं छलियों में 
उछल-उछल खेल रहे गेंद तंग गलियों में 
वे हैं, तो वह भी होगा कहीं जरूर 
होगा ही होगा, जो नाथेगा नाग !



कवि - राकेश रंजन
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

वसंत (Vasant by Dwijdev)

औरें भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,
औरें भाँति सबद पपिहाँ के बै गए l 
औरें भाँति पल्लव लिए हैं बृंद-बृंद तरु,
औरें छबि-पुंज कुंज-कुंजन उनै गए ll 
औरें भाँति सीतल, सुगंध, मंद डोलै पौंन,
'द्विजदेव' देखत न ऐसैं पल द्वै गए l 
औरें रति, औरें रंग, औरें साज, औरें संग,
औरें बन, औरें छन, औरें मन, ह्वै गए ll 

मनहरन घनाक्षरी में वसंत की अनिर्वचनीय शोभा बताई गयी है। द्विजदेव केवल इतना ही कह सकते हैं कि और ही प्रकार के कोकिल, चकोर स्थल-स्थल पर बोलने लगे तथा और ही प्रकार के पपीहों के शब्द हो गए। तरु समूह कुछ और हीतरह पल्लवों को धारण किए हुए हैं, छवि पुंज कुछ और ही तरह प्रतिकुंज में उनए पड़ते हैं तथा और ही प्रकार की शीतल, मंद, सुगंध समीर का संचार हो रहा है। दो पल भी न बीतने पाए कि अभी रति (प्रीति), रंग, साज, संग, समय और मन सबकुछ और ही हो गए l 


कवि - द्विजदेव 
संकलन -  द्विजदेव ग्रंथावली 
संपादक - विद्यानिवास मिश्र 
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 2000


शनिवार, 7 दिसंबर 2013

प्यार (Pyar by Parveen Shakir)


अब्रे-बहार ने 
फूल का चेहरा 
अपने बनफ़शी हाथ में लेकर 
ऐसे चूमा 
फूल के सारे दुख 
ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं 



शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे 
संपादक - डॉ. विनोदानन्द झा 
प्रकाशक - किलकारी, बिहार बाल भवन, पटना, 2012

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

राजा, रानी और बाढ़ (Raja, rani aur badh by Nirmal Kumar Chakravarti)


ताजे लहू की तरह लाल
बदमिजाज राजा के गाल 

बाहर से सुर्ख भीतर से सड़े टमाटर-सरीखे फूले गालोंवाला राजा 
बमककर फट पड़ता है सुबह-सुबह 
झूठमूठ हँसने की जुगत में जुटे चेहरों पर 
गन्धाता गूदा छिटककर 
पसर जाता है बीजों के साथ 
संक्रामक टीबी-मरीजों की थूक की तरह 

राजा उड़ जाता है फिर फुर्र से ऊपर, बहुत ऊपर 
चील-जहाज पर 
घर्र घर्र घर्र 
बैठी घटोत्कच की अम्मा-सरीखी सुन्दर रानी साथ 
हिलाती है हाथ 

नीचे, बहुत नीचे 
नदियों का पानी 
चढ़ता है, चढ़ता है, चढ़ता ही जाता है 
गर्भिणी-गर्विनी नदियाँ 
पेट फुलाए दौडती  हैं उन्मत्त 
सर्वस्व निगलती 
पछाड़ खाती, हरा-पीला झाग उगलती 
हजार-हजार फणोंवाले विषधरों की तरह फुफकारती 
नदियों की नीयत भाँप भागते हैं लोग बदहवास 
बच्चे तक डर जाते हैं 
कुछ डूब जाते हैं, कुछ घिर जाते हैं 
कुछ तैरते हैं दुर्गन्ध के गँदले फेनिल असीम महासागर में 
साँपों को तैरना आता है 
मुर्दों को भी 
साँप तैरते हैं गली-फूली लाशों के साथ 
बेशुमार लाशें 
कुछ भूख-महामारी में मरे आदमजादों के, पशुओं के 
कुछ सँपकट्टी से मरे ढोरों के, शिशुओं के 
जो तैर नहीं पाए जीवन-भर 
उनके भी मुर्दे तैरते हैं आसानी से 

महाविनाश महाशोक का महोत्सव

भूख-भूख-भूख, पानी-पानी 
सर पटकता, झपटता, हहाता दहाड़ता पानी 
पानी जीवन नहीं, सहमरण समूहमरण 
नीचे जीवन, भूख-भीख, दान-ग्लानि 
ऊपर राजा-रानी l 




कवि - निर्मल कुमार चक्रवर्ती
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

फ़ोड़े का गीत (Fode ka geet by Manmohan)

फ़ोड़ा मेरा यार यही है 
मेरा सच्चा प्यार यही है 

जब जब मैंने धोखा खाया 
इस फ़ोड़े ने मुझे बचाया 

मैंने इसको कभी न टोका 
मनमर्ज़ी से कभी न रोका 

जिसने इसको हाथ लगाया 
मैंने उसको मार भगाया 

सब दुनिया से इसे छिपाया 
पाल पोस मुटमर्द बनाया 

जब-जब ये सूखा मुर्झाया 
तब-तब मैं सहमा घबराया 

जब-जब मैं कुछ करके आया 
इसने मेरा जिगर बढ़ाया 

दुनिया मुझको समझ न पाई 
इस फ़ोड़े ने जान बचाई 

बाकी घपला यही सही है 
ढाल यही तलवार यही है 

मेरा सच्चा प्यार यही है


कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

निशा-निमन्त्रण (Nisha-nimantran by Bachchan)

               रात आधी हो गयी है !

               जागता मैं आँख फाड़े,
               हाय, सुधियों के सहारे,
जबकि दुनिया स्वप्न के जादू-भवन में खो गयी है !
               रात आधी हो गयी है !

               सुन रहा हूँ, शान्ति इतनी,
               है टपकती बूँद जितनी,
ओस की जिनसे द्रुमों का गात रात भिगो गयी !
               रात आधी हो गयी है !

               दे रही कितना दिलासा,
               आ झरोखे से ज़रा-सा 
चाँदनी पिछले पहर की पास में जो सो गयी है !
               रात आधी हो गयी है !


कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

ख़ाली समय में (Khali samay mein by Sarveshvar Dayal Saxena)

बैठकर ब्लेड से नाख़ून काटें,
बढ़ी हुई दाढ़ी में बालों के बीच की 
ख़ाली जगह छाटें,
सर खुजलायें, जम्हुआयें,
कभी धूप में आयें,
कभी छाँह में जायें,
इधर-उधर लेटें,
हाथ पैर फैलायें,
करवट बदलें 
दायें-बायें,
ख़ाली कागज़ पर कलम से
भोंड़ी नाक, गोल आँख, टेढ़े मुँह 
की तसवीरें खींचें,
बार-बार आँख खोलें 
बार-बार मींचें,
खाँसें, खखारें 
थोड़ा-बहुत गुनगुनायें,
भोंड़ी आवाज़ में 
अख़बार की ख़बरें गायें,
तरह-तरह की आवाज़ 
गले से निकालें,
अपनी हथेली की रेखाएँ 
देखें-भालें,
गालियाँ दे-दे कर मक्खियाँ उड़ायें,
आँगन के कौओं को भाषण पिलायें,
कुत्ते के पिल्ले से हाल-चाल पूछें,
चित्रों में लड़कियों की बनायें मूंछें,
धूप पर राय दें, हवा की वकालत करें,
दुमड़-दुमड़ तकिये की जो कहिए हालत करें,

ख़ाली समय में भी बहुत-सा काम है 
क़िस्मत में भला कहाँ लिखा आराम है l 


कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
संकलन - कविताएँ-1 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978


रविवार, 24 नवंबर 2013

मणिसर्प (Manisarp by Shrikant Verma)

मेरी बांबी से तुम ले गये 
मेरी मणि हर कर l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है
अनुभूति खो गयी है 
अनुभूति खो गयी है !
अर्थहीन मन्त्रों-सा पथ पर मैं फिरता हूं 
अंधियारे की झाड़ी झुरमुट में 
लटक,
अटक,
पत्थर पर फण पटक 
रहता हूं l 
मणि के बिना मैं अंधा, अपाहिज सांप हूं l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है !
अनुभूति खो गयी है !!
शब्द मर गये हैं, आवाज़ मर गयी है l 
डोल रहे शब्दहीन गीत हवा में जैसे 
वंशी की बिछुड़पन में    
प्राणों की राधा की लाज मर गयी है l 
मेरी -
अनुभूति खो गयी है ! 

मणि बिन मैं अंधा हूं l
मणि बिन मैं गूंगा हूं 
मणि बिन मैं सांप नहीं l 
मणि बिन मैं मुर्दा हूं l 

ठहरो, ठहरो, ठहरो,
मेरी बांबी मत रौंदो अपने पांवों से l 
मुझमें अब भी विष है l 
मेरा विष ही मणि बन मुझे पथ दिखायेगा l 
मेरे विष की थैली 
रत्ना, मणिगर्भा है l 
मणि लेकर मुझसे, मुझ पर मत कौड़ी फेंको l
दूध का कटोरा मत मेरे आगे रक्खो l 
विष को लग जाएगा दूध 
ज़हर मेरा मर जाएगा l 

मेरे फुफकारों की लहू की त्रिवेणी में 
डूबेंगे तीर्थ सभी 
चर्बी के पंडों के l 

मेरे दंशन से ये सोने की मुंडेरें नीली पड़ जाएंगी -
तुमने मेरी मणि को 
उल्लू की आंख बना रक्खा है l 
लेकिन मेरे विष को कैसे पी पाओगे ?
मेरी ही केंचुल से मुझी को डराओगे ?

सम्हलो ! जिन सांपों को दूध पिलाया तुमने 
मैं उनसे भिन्न हूं-
मैं अपनी मणि वापिस लेने को आया हूं l 

मैं मणि का स्वामी हूं l 
मैं मणि का  स्रष्टा हूं l 
मैं मणि का रक्षक हूं l 
तक्षक हूं, तक्षक हूं l  

कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

बुधवार, 20 नवंबर 2013

होना ( by Mahmoud Darwish)




हम यहाँ खड़े हैं. बैठे हैं. यहाँ हैं. अनश्वर यहाँ.
और हमारा बस एक ही मकसद है :
होना.
फिर हम हर चीज़ पर असहमत होंगे ;
राष्ट्रध्वज की डिजाइन पर
(बेहतर हो मेरे ज़िंदा लोगो
अगर तुम चुनो एक भोले गधे का प्रतीक)
और हम नए राष्ट्रगान पर असहमत होंगे 
(बेहतर हो अगर तुम चुनो एक गाना कबूतरों के ब्याह का)
और हम असहमत होंगे औरतों के कर्तव्य पर
(बेहतर हो अगर तुम चुनो एक औरत को सुरक्षा प्रमुख के रूप में)
हम प्रतिशत पर असहमत होंगे, निजी पर और सार्वजनिक पर,
हम हरेक चीज़ पर असहमत होंगे. और हमारा एक ही मकसद होगा :
होना...
उसके बाद  मौक़ा मिलता है और मकसद चुनने का.



फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश  
संकलन - द बटरफ्लाई'ज़ बर्डन  
प्रकाशक - कॉपर कैनियन प्रेस, वाशिंगटन, 2007
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - फैडी जूडा 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 



शनिवार, 16 नवंबर 2013

नेहरु (Nehru by Makhdoom Mohiuddin)


हज़ार रंग मिले, इक सुबू की गरदिश में 
हज़ार पैरहन आए गए ज़माने में 
मगर वो सन्दल-ओ-गुल का गुबार, मुश्ते बहार 
हुआ है वादिए जन्नत निशां में आवारा 
अज़ल के हाथ से छूटा हुआ हयात का तीर 
वो शश जेहत का असीर 
निकल गया है बहुत दूर जुस्तजू बनकर l

मुश्ते बहार = मुट्ठी भर बहार 
वादिए जन्नत निशां  = स्वर्ग के चिह्नों की घाटी में 
अज़ल = अनादि काल
शश जेहत का असीर = छः दिशाओं का बन्दी


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

पहरेदार से (To a guard by Mahmoud Darwish)



(एक पहरेदार से:) मैं तुम्हें सिखाऊँगा इन्तजार करना
मेरी स्थगित मौत के दरवाजे पर
धीरज रखो, धीरज रखो
हो सकता है तुम मुझसे थक जाओ
और अपनी छाया मुझसे उठा लो
और अपनी रात में प्रवेश करो
बिना मेरे प्रेत के !

.......

(एक दूसरे पहरेदार से:) मैं तुम्हें सिखाऊँगा इन्तजार करना
एक कॉफीघर के प्रवेशद्वार पर
कि तुम सुन सको अपने दिल की धड़कन को धीमा होते, तेज़ होते
तुम शायद जान पाओ सिहरन जैसे कि मैं जानता हूँ
धीरज रखो,
और तुम शायद गुनगुना सको एक प्रवासी धुन
अन्दालुसियायी तकलीफ में, और परिक्रमा में फारसी
तब चमेली भी तकलीफ देती है तुम्हें और तुम चले जाते हो   

.......

(एक तीसरे पहरेदार से:) मैं तुम्हें इन्तजार करना सिखाऊँगा
एक पत्थर की बेंच पर, शायद
हम बताएँगे एक-दूसरे को अपने नाम. तुम शायद देख पाओ
एक ज़रूरी मुस्कराहट हम दोनों के दरम्यान:
तुम्हारी एक माँ है
और मेरी एक माँ है
और हमारी एक ही बारिश है
और हमारा एक ही चाँद है
और एक छोटी सी अनुपस्थिति खाने की मेज से.



फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश  संकलन - द बटरफ्लाई'ज़ बर्डन  प्रकाशक - कॉपर कैनियन प्रेस, वाशिंगटन, 2007
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - फैडी जूडा 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद