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गुरुवार, 31 जनवरी 2013

धूप का गीत (Dhoop ka geet by Kedarnath Agrawal)

धूप धरा पर उतरी
जैसे शिव के जटाजूट पर
नभ से गंगा उतरी l
धरती भी कोलाहल करती
तम से ऊपर उभरी
धूप धरा पर बिखरी l

बरसी रवि की गगरी,
जैसे ब्रज की बीच गली में
बरसी गोरस गगरी l
फूल-कटोरों-सी मुसकाती
रूप भरी है नगरी
धूप धरा पर निखरी l

कवि - केदारनाथ अग्रवाल 
संग्रह - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

बुधवार, 30 जनवरी 2013

चरखा गीत (Charkha geet by Siyaramsharan Gupt)

चला हमारा अपना चरखा, चरखा मनका मीत,
गूँज उठा इसके भन-भनमें जन-जनका संगीत l 
          धसक रही धरती धक्कोंमें,
          पुतलीघरके उन चक्कोंमें,
          बन्ध कर लोहके लच्छोंमें,
                                     वहाँ सभी भयभीत l 
यहाँ फूट है सबकी सबसे, जन जनकी है जीत,
चला हमारा अपना चरखा, चरखा मनका मीत ll 1 ll 

सीधे सच्चे इस तकुएका पक्का पतला तार,
बढ़ बढ़कर ले सकता है यह सात समन्दर पार l 
          लोट पाट करके औरोंमें,
          जले फुँके उजड़े ठौरोंमें,
          बन बैठे जो सर मोरोंमें,
                                   भय उसका निस्सार l 
यहाँ हमारे जिस चरखेमें सकल सुखी संसार,
सीधे सच्चे इस तकुएका पक्का पतला तार ll 2 ll 

इस घर-घर-घरमें आती है उन खेतोंकी याद,
उमड़-घुमड़ आया था जिनपर सावनका उन्माद l 
           खेत-खेतमें साख भरी थी,
           आगेकी अभिलाष भरी थी,
           धरती चारों ओर हरी थी,
                                     लायी थी सम्वाद l 
जुग जुगसे है अन्न-वसनकी अमिट यहाँ मरयाद,
इस घर-घर-घरमें आती है उन खेतोंकी याद ll 3 ll 


कवि - सियारामशरण गुप्त 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952




मंगलवार, 29 जनवरी 2013

उत्तर-आधुनिकता (Uttar aadhunikta by Shyam Kashyap)


अब न तो इतिहास है 
न कोई विचारधारा 
न ही इस अंतहीन अनंत में 
भविष्य है -
अब नहीं बची है भाषा से आशा l 

पहले जहाँ सब-कुछ था 
वहाँ अब 
कुछ नहीं है -
जहाँ कुछ नहीं है वहाँ शब्द हैं !

शब्द नहीं शब्द 
यानी 'टेक्स्ट'
माने पाठ -
शब्द शब्द शब्द 
केवल कुपाठ -

जहाँ शब्द हैं 
वहाँ -
उनका अर्थ नहीं है 
अनर्थ है -
यानी कि व्यर्थ है !

लेकिन -
व्यर्थ वा अनर्थ का भी 
कहीं कोई 
अर्थ नहीं है l 

है तो है बस -
मात्र एक अन्धकार गर्त है !

चचा ग़ालिब को 
डुबोया था -
फकत होने ने ;

यहाँ तो -
सारा खेल ही रचा है 
निरर्थक न होने के रोने ने !

कवि - श्याम कश्यप
संकलन - जनपद कविता बुलेटिन - 10, समापन अंक 
संपादक - निर्मल कुमार चक्रवर्ती 

सोमवार, 28 जनवरी 2013

ज़िल्लत की रोटी (Zillat ki roti by Manmohan)


पहले किल्लत की रोटी थी 
अब ज़िल्लत की रोटी है 

किल्लत की रोटी ठंडी थी 
ज़िल्लत की रोटी गर्म है 
बस उस पर रखी थोड़ी शर्म है 

थोड़ी नफ़रत 
थोड़ा खून लगा है 
इतना नामालूम कि कौन कहेगा कि खून लगा है 

हर कोई यही कहता है 
कितनी स्वादिष्ट कितनी नर्म कितनी खुशबूदार होती है 
यह ज़िल्लत की रोटी 

कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

शनिवार, 26 जनवरी 2013

खाली नहीं और खाली (Khali nahin aur khali by Nagarjun)

मकान नहीं खाली है
दूकान नहीं खाली है
स्कूल नहीं खाली, खाली नहीं कॉलेज
खाली नहीं टेबुल, खाली नहीं मेज
खाली अस्पताल नहीं
खाली है हाल नहीं
खाली नहीं चेयर, खाली नहीं सीट
खाली नहीं फुटपाथ, खाली नहीं स्ट्रीट
खाली नहीं ट्राम, खाली नहीं ट्रेन
खाली नहीं माइंड, खाली नहीं ब्रेन

खाली है हाथ, खाली है पेट
खाली है थाली, खाली है प्लेट !                              

                                                       (1948)

कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

हम लड़ेंगे साथी (Hum ladeinge sathee by Pash)

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल की लीकें अब भी बनती हैं, चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता, सवाल नाचता है
सवाल के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए जज्बात की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़ी गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक
कि बीरू बकरिहा जब तक
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूलों को
बीजने वाले जब तक ख़ुद नहीं सूँघते

कि सूजी आँखोंवाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
जंग से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने ही भाइयों का गला दबाने के लिए विवश हैं
कि बाबू दफ़्तरों के
जब तक रक्त से अक्षर लिखते हैं ...
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाकी है ...

जब बंदूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी ...

हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अभी तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों
की याद ज़िंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी ...


कवि - पाश 
किताब - सम्पूर्ण कविताएँ : पाश 
संपादन और अनुवाद - चमनलाल 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, 2002

बुधवार, 23 जनवरी 2013

मुकरियाँ (Mukariyan by Nagarjun)


बातन की फुलझड़ियाँ छोड़ै
बखत पड़े तो चट मुँह मोड़ै
छन में शेर, छन ही में गीदड़ 
क्या सखी साजन ? ना सखि, लीडर 

मारै मौज, मनावैं खैर 
अपन अपन से जिनका वैर 
रिखी-मुनी का देय नजीर 
क्या सखि प्रीतम ? नहीं वजीर 

चाहैं अमृत, चटावैं धूल 
वादे गए जिन्हें सब भूल 
कोई भी अब नाम न लेता 
कौन, गँजेड़ी ? ना सखि, नेता 

कल तक चढ़ा चुकी है शान 
अब रस्ते पर पड़ी अजान 
लगा रही बस रह-रह ठेस 
क्या सखि, सिल है ? ना, कांग्रेस 


कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003


मंगलवार, 22 जनवरी 2013

व्याख्या (Vyakhya by Nemichandra Jain)


एक दिन कहा गया था 
दुनिया की व्याख्या बहुत हो चुकी 
ज़रूरत उसे बदलने की है 
तब से लगातार 
बदला जा रहा है 
दुनिया को 
बदली है अपने-आप भी 
पर क्या अब यह नहीं लगता 
कि और बदलने से पहले 
कुछ 
व्याख्या की ज़रूरत है ?


कवि - नेमिचंद्र जैन 
संकलन - अचानक हम फिर 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1999

सोमवार, 21 जनवरी 2013

हस्ताक्षर (Hastakshar by Kedarnath Singh)


बालू पर हवा के 
असंख्य हस्ताक्षर थे 
और उन्हें देखकर हैरान था मैं 
कि मेरा हस्ताक्षर 
हवा के हस्ताक्षर से 
कितना मिलता है !

कैसे हुआ यह ? 
क्या मैंने हवा की 
नक़ल की है 
या हवा ने चुरा लिया है 
मेरा हस्ताक्षर ?

दोनों में से 
एक-न-एक को 
जाली ज़रूर होना चाहिए 
मैंने सोचा 

पर अब सवाल यह था 
कि तय कैसे हो 
और हो तो किस अदालत में 
कि कौन-सा हस्ताक्षर जाली है 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1995

रविवार, 20 जनवरी 2013

अतुकांत चंद्रकांत (Atukant Chandrakant by Raghuvir Sahai)


चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था 
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था 
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था 
सरसठ में लोहिया था और ...और क्यूबा था 
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था 
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था 

अब बचा महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूँ 


कवि - रघुवीर सहाय  
संकलन - रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएँ  
संपादक - सुरेश शर्मा  
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1994




शनिवार, 19 जनवरी 2013

हम उनसे अगर (Hum unse agar by Ibne Insha)


हम उनसे अगर मिल बैठते हैं क्या दोष हमारा होता है
कुछ अपनी जसारत (दिलेरी) होती है कुछ उनका इशारा होता है

कटने लगीं रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर 
या शामे-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है

हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके
ऐ बंजारो हम लोग चले, हमको तो ख़सारा (नुक़सान) होता है

दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए, कुछ शे'र कहे कुछ कॉफ़ी पी
पूछो जो मआश (आजीविका) का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

अँधेरे में (Andhere mein by Shakti Chattopadhyay)


हाथ पर 
हाथ !
अँधेरे में अचानक 
यह किसने रख दिया 
मेरे हाथ पर हाथ !

कौन है यह ?
बताओ बताओ 

शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं 
शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं l

कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

बुधवार, 16 जनवरी 2013

हृदय(Poems by Antonio Porchia)


हृदय को घायल करना उसे रचना है l

*  *  *

एक बड़ा हृदय बहुत थोड़े से भरा जा सकता है l

*  *  *

एक भरे हुए हृदय में सब चीज़ों के लिए जगह होती है और एक खाली हृदय में किसी चीज़ के लिए जगह नहीं होती। कौन समझता है ?


अर्जेंटीनी कवि - अन्तोनियो पोर्किया (1885-1968)
स्पैनिश भाषा का मूल काव्य संकलन 'बोसेज़' (आवाज़ें) 
स्पैनिश से अंग्रेज़ी अनुवाद - डब्ल्यू. एस. मर्विन 
अंग्रेज़ी से हिन्दी रूपांतर - अशोक वाजपेयी 
हिन्दी संकलन - हम छाया तक नहीं 
प्रकाशक - यात्रा बुक्स, दिल्ली, 2013

पोर्किया की कविताएँ कुल एक या दो पंक्तियों की हैं। उनकी खासियत बताते हुए अशोक वाजपेयी कहते हैं, "एक बेहद बड़बोले समय में ऐसी शांत कविता अप्रत्याशित उपहार की तरह है ...उसकी ईमानदारी, विनय और पारदर्शिता बेहद उजला और कुछ हमें भी उजला करता उपहार है।"

सोमवार, 14 जनवरी 2013

आम का पेड़ (Aam ka ped by Vinod Kumar Shukla)

आम का पेड़ उस जगह निष्प्रयोजन था
परंतु आम का पेड़ होने से प्रयोजन था
घोंसला था
गिलहरी शाखों की गलियों में
आते-जाते दिखती थी
कोई योजना नहीं थी
और बहुत कुछ था -
पेड़ पर ऋतुएँ होतीं
ग्रीष्म, पतझड़ होती 

धूप होती और छाया
वह एक ऐसी जगह थी
जहाँ किसी भी दिन
मेरा आना निष्प्रयोजन था
परंतु आम का पेड़ होने से
मेरा वहाँ पहली बार का आना
आये दिन का
पहला दिन हुआ था।

कवि -  विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - अतिरिक्त नहीं
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

रविवार, 13 जनवरी 2013

एक औरत हिपेशिया भी थी (Ek aurat Hipeshiya bhee thee by Habib Tanvir)

हिपेशिया की  तक़रीर - "वो लोग जो मिर्गी के मरीज़ हैं, बस उन्हीं लोगों के अंदर चाँद अपने ठंडे असरात पैदा करता है। इसके बरअक्स वो लोग, जिनके दिमाग़ के अंदर से फूटी हुई किरनें उनके दिल तक उतर जाती हैं, वो बरगज़ीदा हैं, ऐसे ही लोगों के दिलों में वो चिनगारी होती है जिसे अक्ल कहते हैं. यही वो रौशनी है, जो दिमाग़ वाले के लिए इल्म का सबब बनती है। और जानने के लायक़ चीज़ों के लिए उनके पहचाने जाने का सबब बनती है। उसी तरह जिस तरह मामूली रौशनी हमारी नज़र में रंगों को उजागर कर देती है। रौशनी हटा लीजिए, बस फिर अँधेरे के सिवा और कुछ नहीं रह जाएगा। ...
मैं यह मानती हूँ कि कोई भी ऐसा ख़याल, जो दूसरी दुनिया का डर दिल में बिठाकर या किसी और तरीके से हुक्म लगाकर आदमी के दिमाग़ को ज़ंजीरों में जकड़ ले, वो गलत है। इससे ख़याल में बंदिश आ जाती है, तरक्क़ी के रास्ते मसदूद हो जाते हैं, रुक जाते हैं। कोई नया ख़याल पैदा होने की गुंजाइश नहीं रह जाती। नया ख़याल कहता है : अपने आपको जानो। बस नया ख़याल आज़ाद होता है। लेकिन इसका नतीजा होता है ज़िम्मेदारी। नया ख़याल अपने साथ एक ज़िम्मेदारी का अहसास पैदा करता है। या तो आप अपने ख़याल के मुताबिक़ जिएँ, और या फिर उसे खो दें, और ख़मियाज़ा भुगतें। और अगर आप अपने ख़याल के मुताबिक़ जीते हैं, तो गोया आप आज़ाद हैं। सही मायनों में आज़ाद। फिर आपको मौत भी नहीं डरा सकती, जहन्नुम भी नहीं डरा सकता, फिर दुनिया की कोई ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।"


"दुनिया के मशहूर गणितज्ञ थियोन की बेटी हिपेशिया किसी परिचय की मोहताज नहीं है। आप जानते ही हैं कि थियो
ने गणित और खगोल के विषय  पर बहुत महत्त्वपूर्ण किताबें लिखीं। ये विद्या उन्होंने अपनी बेटी को भी सिखाई और कुछ किताबों पर साथ मिलकर भी काम किया। उनके गुजर जाने के बाद हिपेशिया ने उनसे भी ज़्यादा तरक्की की। किताबें लिखीं और अपना नाम रोशन किया। गणित, खगोल और फ़लसफ़े के सिलसिले में इस वक्त दुनिया में हिपेशिया का सानी मौजूद नहीं।"
अक्ल की दुनिया में जिस कदर भी थी
वो सब एक शख़्स में समाई थी
           एक औरत हिपेशिया भी थी।
शक्ल महताब हुस्न की पहली
जिससे दुनिया में रोशनी फैली
          एक औरत हिपेशिया भी थी।
अक्ल की वैसी दिल की भी वैसी
उसको हर शख़्स से थी हमदर्दी
आप अपनी मिसाल थी वैसी
          एक औरत हिपेशिया भी थी।
उसके क्या-क्या हुनर मैं गिनवाऊँ
कम हैं जितना भी उसके गुण गाऊँ
          एक औरत हिपेशिया भी थी।

नाटककार - हबीब तनवीर
किताब - एक औरत हिपेशिया भी थी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

शनिवार, 12 जनवरी 2013

मकई का भूंजा (Makai ka bhoonja by Siddhinath Mishra)


स्वाद में घुलती हुई
सोंधी गरम गंध है
जीभ पर -

नवान्न की गंध,
पकती जमीन की गंध,
पके दानों की गंध,

तपे बालू की गंध,
और बालू पर से कभी की बह चुकी
किसी भरी-पूरी नदी की गंध।

तमाम गंध स्मृतियां
घुल-मिलकर
रच रही हैं जो स्वाद
जीभ पर -
नहीं आ पा रहा
उसका नाम।

उस नाम के लिए
मगज क्या मारना,
आप भी आइए
और चाव से चबाइए।

कवि - सिद्धिनाथ मिश्र 
संग्रह - द्वाभा 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010


शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

मेरा पता (Mera pata by Amrita Pritam)

आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
             - समझना वह मेरा घर है।

यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

सोमवार, 7 जनवरी 2013

हम दोनों हैं दुखी (Hum donon hain dukhi by Trilochan)

हम दोनों हैं दुखी। पास ही नीरव बैठें,
बोलें नहीं, न छुएँ। समय चुपचाप बिताएँ,
अपने अपने मन में भटक भटककर पैठें
उस दुख के सागर में जिसके तीर चिताएँ
अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू।
मौन शिलाओं के नीचे दफ़ना दिये गये
हम, यों जान पड़ेगा। हमको छू छू छू छू
भूतल की उष्णता उठेगी, हैं किये गये
खेत हरे जिसकी साँसों से। यदि हम हारें
एकाकीपन से गूँगेपन से तो हम से
साँसें कहें, पास कोई है और निवारें
मन की गाँस-फाँस, हम ढूँढें कभी न भ्रम से।
गाढे दुख में कभी-कभी भाषा छलती है
संजीवनी भावमाला नीरव चलती है।


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - त्रिलोचन : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1985

शनिवार, 5 जनवरी 2013

औरत की ज़िन्दगी (Aurat ki zindagi by Raghuvir Sahay)

कई कोठरियाँ थीं क़तार में
उनमें किसी में एक औरत ले जायी गयी
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा
                              
                (1972)
कवि - रघुवीर सहाय 

संकलन - रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएँ 

संपादक - सुरेश शर्मा 

प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1994




शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी (Bhainan main kattadi kattadi hutti by Bulleh Shah)



                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
पीहड़ी पिच्छे पिछावाड़े रहि गई,
हत्थ विच्च रहि गई जुट्टी l
अग्गे चरखा पिच्छे पीहड़ा 
मेरे हत्थों तन्द तरूटी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
दाज जवाहर असाँ की करना,
जिस प्रेम कटवाई मुट्ठी l
उहो चोर मेरा पकड़ मँगाओ 
जिस मेरी जिन्द कुट्ठी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
भला होया मेरा चरखा टुट्टा,
मेरी जिन्द अजाबों छुट्टी l
बुल्ला सहु ने नाच नचाए,
ओत्थे धुम्म कड़ कुट्टी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l

हुट्टी = थक गई ;   तरूटी = टूटी ;   कुट्टी = डंके की चोट 

रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003   

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

वाणी की दीनता (Vani ki deenata by Bhawaniprasad Mishra)


वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l
कहने में अर्थ नहीं 
कहना पर व्यर्थ नहीं 
मिलती है कहने में 
एक तल्लीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

आस-पास भूलता हूँ 
जग भर में झूलता हूँ ;
सिन्धु के किनारे, कंकर 
जैसे शिशु बीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

कंकर निराले नीले 
लाल सतरंगी पीले 
शिशु की सजावट अपनी,
शिशु की प्रवीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

भीतर की आहट भर 
सजती है सजावट पर 
नित्य नया कंकर क्रम,
क्रम की नवीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

वाणी को बुनने में ;
कंकर के चुनने में 
कोई उत्कर्ष नहीं 
कोई नहीं हीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

केवल स्वभाव है 
चुनने का चाव है 
जीने की क्षमता है 
मरने की क्षीणता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

कवि - भवानीप्रसाद मिश्र 
संकलन - दूसरा सप्तक 
संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, दूसरा पेपरबैक संस्करण - 2002


बुधवार, 2 जनवरी 2013

भेड़ों का रखवाला-9 (The keeper of sheep by Fernando Pessova)

मैं भेड़ों का रखवाला हूँ l
भेड़ें हैं मेरे विचार
और हर विचार एक संवेदना l
मैं सोचता हूँ अपनी आँखों से और अपने कानों से
और अपने हाथों और पैरों से
और अपनी नाक और अपने मुँह से l

एक फूल को सोचना है उसे देखना और सूँघना 

और एक फल को खाना है उसके मायने जानना।

यही वजह है कि किसी एक गर्म दिन
जिससे मैं इतना आनंदित होता हूँ
मैं उदास महसूस करता हूँ,
और मैं घास पर लेट जाता हूँ
और अपनी गरमाई आँखें मूँद लेता हूँ,
तब मैं महसूस करता हूँ अपनी लेटी हुई पूरी देह यथार्थ में,
मैं सत्य को जानता हूँ, और मैं खुश हूँ l

पुर्तगाली कवि - फ़र्नान्दो पेसोवा (1888-1935)
पुर्तगाली से अंग्रेज़ी अनुवाद - रिचर्ड ज़ेनिथ
प्रकाशक - ग्रोव प्रेस, न्यूयार्क, 1998
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद