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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

नया शिवाला (Naya shivala by Iqbal)

सच कह दूँ ऐ बिरहमन ! गर तू बुरा न माने,
                             तेरे सनमकदोंके बुत हो गये पुराने ll
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा,
                             जंगो जदल सिखाया वाअज़को भी ख़ुदाने ll
तंग आके मैंने आख़िर दैरोहरमको छोड़ा,
                              वाअज़का वाज़ छोड़ा, छोड़े तिरे फ़साने ll
             पत्थरकी मूरतोंमें समझा है तू ख़ुदा है,
             ख़ाके वतनका मुझको हर ज़र्रा देवता है ll
आ, गैरियतके पर्दे इक बार फिर उठा दें,
                               बिछड़ोंको फिर मिला दें, नक़शे दुई मिटा दें ll
सूनी पड़ी हुई है मुद्दतसे दिलकी बस्ती,
                               आ, इक नया शिवाला इस देसमें बना दें ll
दुनियाके तीरथोंसे ऊँचा हो अपना तीरथ,
                                दामने आस्मासे उसका कलस मिला दें ll
हर सुबह उठके गायें मन्तर वह मीठे मीठे,
                                सारे पुजारियोंको मय पीतकी पिला दें ll
               शक्ती भी शान्ती भी भगतोंके गीतमें है,
               धरतीके बासियोंकी मुकती पिरीतमें है ll


शायर - इक़बाल 

किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

कॉमन सेंस (Common sense by Alan Brownjohn)



एक खेतिहर मजदूर, जिसके
एक बीवी और चार बच्चे हैं, पाता है 20 शिलिंग एक हफ्ते के.
¾ से आता है भोजन, और परिवार के सदस्य
तीन शाम खाना खाते हैं प्रतिदिन.
तो फिर प्रति व्यक्ति प्रति खुराक कितना पड़ा?
                     -    पिटमैन्स कॉमन सेन्स अरिथमेटिक,1917 से

एक माली को, जिसे मिलता है 24 शिलिंग प्रति सप्ताह,
जुर्माना होता है 1/3 अगर वह काम पर देर से आता है.
26 हफ्ते के अंत में उसे मिलते हैं
30.5.3 पौंड. कितनी
बार वह देर से आया ?
                      -    पिटमैन्स कॉमन सेन्स अरिथमेटिक, 1917 से

... नीचे दिए गए टेबल में संख्या दी हुई है
गरीबों की यूनाइटेड किंगडम में, और 
पूरा खर्च गरीबों को दी जाने वाली राहत का.
तो पता करो औसत संख्या 
गरीबों की प्रति दस हज़ार व्यक्ति.
                    -    पिटमैन्स कॉमन सेन्स अरिथमेटिक, 1917 से

28,000 लोगों की सेना में से
15% मारे गए,
25% घायल हुए. तो गणना करो
कि कितने लोग बचे रह गए युद्ध करने के लिए ?   
                    -    पिटमैन्स कॉमन सेन्स अरिथमेटिक, 1917 से 


   कवि - एलन ब्राउनजॉन 
स्रोत - टेरी इग्लटन की किताब 'हाउ टू रीड अ पोएम’ 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 
प्रकाशक - ब्लैकवेल, यू.के., 2007 


रविवार, 24 फ़रवरी 2013

शिशिर-समीर (Shishir-sameer by Subhadra Kumari Chauhan)

शिशिर-समीरण, किस धुन में हो,
कहो किधर से आती हो ?
धीरे-धीरे क्या कहती हो ?
या यों ही कुछ गाती हो ?

क्यों खुश हो ? क्या धन पाया है ?
क्यों इतना इठलाती हो ?
शिशिर-समीरण ! सच बतला दो,
किसे ढूँढने जाती हो ?

मेरी भी क्या बात सुनोगी,
कह दूँ अपना हाल सखी ?
किन्तु प्रार्थना है, न पूछना,
आगे और सवाल सखी ll

फिरती हुई पहुँच तुम जाओ,
अगर कभी उस देश सखी !
मेरे निठुर श्याम को मेरा
दे देना सन्देश सखी !

मिल जावें यदि तुम्हें अकेले,
हो ऐसा संयोग सखी !
किन्तु देखना वहाँ न होवें
और दूसरे लोग सखी !!

खूब उन्हें समझा कर कहना
मेरे दिल की बात सखी l
विरह-विकल चातकी मर रही
जल-जल कर दिन रात सखी !!

मेरी इस कारुण्य दशा का
पूरा चित्र बना देना l
स्वयं आँख से देख रही हो
यह उनको बतला देना !!

दरस-लालसा जिला रही है,
कह देना, समझा देना l
नासमझी यदि कहीं हुई हो
तो उसको सुलझा देना ll

कहना किसी तरह वे सोचें
मिलने की तदबीर सखी l
सही नहीं जाती अब मुझसे
यह वियोग की पीर सखी ll

चूर-चूर हो गया ह्रदय यह
सह-सह कर आघात सखी !
शिशिर-समीरण भूल न जाना l
कह देना सब बात सखी ll 


कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान
संग्रह - मुकुल तथा अन्य कविताएँ
प्रकाशन - हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1980

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

मनोरथ (Manorath by Balkrishn Sharma 'Naveen')

अलमस्त हुई मन झूम उठा, चिड़ियाँ चहकीं डरियाँ डरियाँ 
चुन ली सुकुमार कली बिखरी मृदु गूँथ उठीं लरियाँ लरियाँ 
किसकी प्रतिमा हिय में रखिके नव आर्ति करूँ थरियाँ थरियाँ  
किस ग्रीवा में डार ये डालूँ सखी, अँसुआन ढरूँ झरियाँ झरियाँ  

सुकुमार पधार खिलो टुक तो इस दीन गरीबिन के अँगना 
हँस दो, कस दो रस की की रसरी, खनका दो अजी कर के अँगना 
तुम भूल गये कल से हलकी चुनरी गहरे रँग में रँगना 
कर में कर थाम लिये चल दो रँग में रँग के अपने सँग - ना ?

निज ग्रीव में माल-सी डाल तनिक कृतकृत्य करौ शिथिला बहियाँ 
हिय में चमके मृदु लोचन वे, कुछ दूर हटे दुख की बहियाँ 
इस साँस की फाँस निकाल सखे, बरसा दो सरस रस की फुहियाँ 
हरखे हिय रास रसे जियरा, खिल जायें मनोरथ की जुहियाँ l 


कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संकलन - आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : 'नवीन'
संपादक - भवानीप्रसाद मिश्र 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

अमरूद (Amrood by Kedarnath Singh)

अमरुद फिर आ गए बाज़ार में 
और यद्यपि वहाँ जगह नहीं थी 
पर मैंने देखा छोटे-छोटे अमरूदों ने 
सबको ठेल-ठालकर 
फुटपाथ पर बना ही ली 
अपने लिए थोड़ी सी जगह 
और अब देखो तो किस तरह एक छोटी सी टोकरी में 
वे बैठे हैं शान से 
फुटपाथों के शहंशाह की तरह !

नहीं, मुझे नहीं चाहिए कोई चाकू 
नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए 
मैं नहीं चाहता मेरे दाँतों 
और अमरूद के बीच 
कोई तीसरा आए 

मैं बिना किसी मध्यस्थ के 
छिलकों और बीजों के बीच से होते हुए 
सीधे अमरूद के धड़कते हुए दिल तक पहुँचना चाहता हूँ 
जोकि उसका स्वाद है 

जीने का यही एक ढंग है 
सबसे अचूक 
और सबसे भरोसेमन्द 

यह मैंने एक दिन 
एक अमरुद से सीखा था 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - तालस्ताय और साइकिल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

अब कुछ ठीक नहीं (Ab kuchh theek nahin by Sarveshwar Dayal Saxena)

अब कुछ  ठीक नहीं l 

मैं कब हँस पडूँ 
कब चीखकर 
अपना गला दबा लूँ 
कब छुरा उठाकर 
सामने वार कर बैठूँ 
अब कुछ  ठीक नहीं l 

मेरे चारों तरफ 
कुएँ का यह घेरा 
सँकरा होता होता 
मेरे जिस्म को ही नहीं 
मेरी आत्मा को छूने लगा है 
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है l 

मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था 
न आसमान फटने का 
उनमें से रास्ता निकालना 
मैं जानता था 
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ l 
लेकिन अब 
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ 
उसकी हर ईंट का 
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो 
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही 
पिघलकर पानी बन जाती है l 
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा 
बनता जा रहा है इतिहास मेरा l 

मैं सोचता था 
इन्हें पहचानकर 
इन्हें सही-सही समझकर 
मैं इस कुएँ के बाहर 
निकल आऊँगा 
और इसी के सहारे 
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा l 

लेकिन अब किसी की 
कोई पहचान नहीं 
और इनसे घिरकर 
मैं अपनी पहचान भी 
        खोता जा रहा हूँ l 
अब कुछ  ठीक नहीं 
मैं कब क्या हो जाऊँ ?

कब हँस पडूँ 
कब चीखकर 
अपना गला दबा लूँ 
कब छुरा उठाकर 
सामने वार कर बैठूँ 

अब कुछ  ठीक नहीं l 




कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - खूँटियों पर टँगे लोग
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982


बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे (Haji lok Makke nun jande by Bulleh shah)

हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे,
           मेरा राँझण माही मक्का,
           नी मैं कमली आँ l
मैं ते मंग राँझे दी होई आँ, मेरा बाबल करदा धक्का,
           नी मैं कमली आँ l
हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे, मेरे घर विच्च नौ सौ मक्का,
           नी मैं कमली आँ l
विच्चे हाजी विच्चे गाज़ी, विच्चे चोर उचक्का,
           नी मैं कमली आँ l
हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे, असाँ जाणा तख़त हज़ारे,
           नी मैं कमली आँ l
जित वल्ल यार उते वल्ल काअबा, भावें फोल किताबाँ चारे,
           नी मैं कमली आँ l

धक्का - ज़बरदस्ती                 गाज़ी - धर्म की खातिर लड़ने वाला
किताबाँ चार - चार धार्मिक ग्रन्थ (तौरेत, ज़ंबूर, अंजील एवं कुरान)


रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003  

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

लोहे का गीत (Lohe ka geet by Ekant Shrivastav)


लुहार के हाथों में घन बन जाना
माली के हाथों में खुरपी
बढ़ई के हाथों में बन जाना बसुला
किसान के हाथों में कुदाल
पर ओ भैया लोहा
सेठ की संदूकची में
मत बनना ताला और चाबी

रसोई में जाना तो हँसिया बन जाना
आँगन में कपड़ों का तार
रोटी जो जले तो चिमटा बन जाना
चप्पल जो टूटे तो कील
पर ओ भैया लोहा
हत्यारों के हाथों में
मत बनना खंजर-तलवार

कुएँ में बाल्टी और घिर्री बन जाना
घोड़े के पाँवों में नाल
दुल्हन जो जाए तो पेटी बन जाना
पाहुन जो आए तो साँकल
पर ओ भैया लोहा
जुल्मी राजा के राज में
मत बनना जेल की सलाख l 

कवि - एकान्त श्रीवास्तव 
संकलन - मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2000   

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

तुक्तक (Tuktak by Bharatbhushan Agrawal)


तीन गुण हैं विशेष कागज़ के फूल में 
एक तो वे उगते नहीं हैं कभी धूल में 
दूजे झड़ते नहीं 
काँटे गड़ते नहीं 
तीजे, आप चाहें उन्हें लगा लें बबूल में 
* * *
बारह बजे मिलीं जब घड़ी की दो सुइयाँ 
छोटी बोली बड़ी से, 'सुनो तो मेरी गुइयाँ 
कहाँ चली मुझे छोड़ ?'
बड़ी बोली भौं सिकोड़,
'आलसी का साथ कौन देगा, अरी टुइयाँ ' 
* * *
मोती ने दिए थे एक साथ सात पिल्ले 
दो थे तन्दुरुस्त और दो थे मरगिल्ले 
एक चितकबरा था 
और एक झबरा था 
सातवें की पूँछ पे थे लाल-लाल बिल्ले !
* * *
रास्ते में मिला जब अरोड़ा को रोड़ा 
थाम के लगाम झट रोक दिया घोड़ा 
उठाया जो कोड़ा 
घोड़ा ने झिंझोड़ा 
थोड़ा हँस छोड़ा, घोड़ा अरोड़ा ने मोड़ा !
* * *
टालीगंज रहते थे फूलचन्द छावड़ा 
फूलों का था शौक लिये फिरते थे फावड़ा 
बीज कुछ पूने के 
आए थे नमूने के 
माली बुलाने गए पैदल ही हावड़ा !


कवि - भारतभूषण अग्रवाल 
संकलन - भारतभूषण अग्रवाल  : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अशोक वाजपेयी
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2004

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

चौबीस घण्टा (24 ghanta by Ratan Thiyam)


समय को चौबीस घण्टों ने 
जकड़ रखा है 
सुकून से बात करना है तो 
चौबीस घण्टों के बाहर के 
समय में तुम आओ 
मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूँगा 
बीते हुए समय को 
अभी के समय में बदलकर 
पहली मुलाक़ात के 
क्षण से शुरू करें !


कवि - रतन थियाम 
मणिपुरी भाषा से अनुवाद - उदयन वाजपेयी 
पत्रिका - संगना, वर्ष 2, अंक 7-8, जुलाई-सितंबर / अक्टूबर-दिसंबर 2012
संपादक - प्रयाग शुक्ल 
प्रकाशक - संगीत नाटक अकादेमी, दिल्ली

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

वासन्ती (Vaasanti by Nirala)

अति ही मृदु गति ऋतुपति की
प्रिय डालों पर, प्रिय, आओ,
पिक के पावन पंचम में
गाओ, वन्दन-ध्वनि गाओ !

प्रिय, नील-गगन-सागर तिर,
चिर, काट तिमिर के बन्धन,
उतरो जग में, उतरो फिर,
भर दो, पग-पग नव स्पन्दन !

सिहरे द्रुम-दल, नव पल्लव
फूटें डालों पर कोमल,
लहरे मलयानिल, कलरव
भर लहरों में मृदु-चंचल !

मुद्रित-नयना कलिकाएँ
फिर खोल नयन निज हेरें,
पर मार प्रेम के आयें,
अलि, बालाएँ मुँह फेरें !

फागुन का फाग मचे फिर,
गावें अलि गुञ्जन -होली,
हँसती नव हास रहें घिर,
बालाएँ डालें रोरी !

मञ्जरियों के मुकुटों में
नव नीलम आम-दलों के
जोड़ो मञ्जुल घड़ियों में
ऋतुपति को पहनाने को
झुक डालों की लड़ियों में l

अयि, पल्लव के पखनों पर
पालो कोमल तन पालो,
आलोक-नग्न पलकों पर
प्रिय की छवि खींच उठा लो l

भर रेणु-रेणु में नभ की,
फैला दो जग की आशा,
खुल जाय खिली कलियों में
नव-नव जीवन की आशा l

प्रिय, केशर के रञ्जन की,
मसि से पत्रों पर लिख दो -
"जग, है लिपि यह नूतन की
सिख लो, तुम भी कुछ सिख लो !

"अति गहन विपिन में जैसे
गिरि के तट काट रही हैं
नव-जल-धाराएँ, वैसे
भाषाएँ सतत बही हैं l"

फिर वर्ष सहस्र पथों से,
आया हँसता-मुख आया,
ऋतुओं के बदल रथों से
लाया तुमको हर लाया !

हाँ, मेरे नभ की तारा
रहना प्रिय, प्रति निशि रहना,
मेरे पथ की ध्रुव धारा
कहना इंगित से कहना !

मैं और न कुछ देखूँगा
इस जग से मौन रहूँगा,
बस नयनों की किरणों में
लख लूँगा, कुछ लख लूँगा !

नव किरणों के तारों से
जग की यह वीणा बाँधो,
प्रिय, व्याकुल झंकारों से,
साधो, अपनी गत साधो !

फिर उर-उर के पथ बन्धुर,
पग-द्रवित मसृण ऋजु कर दो,
खर नव युग की कर-धारा
भर दो द्रुत जग में, भर दो !

फिर नवल कमल-वन फूलें
फिर नयन वहाँ पथ भूलें,
फिर झूलें नव वृन्तों पर
अनुकूलें अलि अनुकूलें l


कवि - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
किताब - निराला रचनावली, भाग - 1
संपादक - नन्दकिशोर नवल
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1983

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

दृश्य 1919 (Drishya 1919 by Amrita Pritam)

जीवन की ये दुश्वारियाँ 
मजबूरियाँ, लाचारियाँ 
ये ज़िल्लतें, ये ख़्वारियाँ
ये रेंगती-सी हसरतें 
ये दासता की लानतें 
ये गुलामों की किस्मतें 
इक क़हर था 
जो जर लिया   
इक सबर था 
जो कर लिया 
इक ज़हर था 
जो पी लिया 
इक मौत को भी 
जी लिया 

छाती में आग जल रही 
आँखों से पानी बह रहा 
सुनो सुनो सुनो सुनो 
यह वक़्त क्या कुछ कह रहा 
यह वक़्त क्या कुछ सह रहा 
यह वक़्त क्या कुछ कह रहा 
मैं वक़्त एक सवाल हूँ -
ये गोलियों से छलनी 
दीवारों का सवाल 
ये हज़ारों आत्माओं की 
पुकारों का सवाल 
ये ज़र्द चेहरे, ये सर्द लाशें 
अँधेरा, अँधेरा 
और होठों पर लगा 
संगीनों का पहरा 
ये घायल उम्मीदें,
ये ज़ख़्मी आवाज़ें  
ये खूनी सवेरे,
ये काली दुपहरें 
आओ, अब आओ 
ये अँधेरा जलाओ 
बादशाहियत के आगे,
शहंशाहियत के आगे 
ये सर नहीं झुकेगा, 
नहीं झुकेगा 
ये जवानी का दावा 
ये छाती का लावा 
ये अब नहीं रुकेगा 
नहीं रुकेगा 
ये दीवारें, ये कूचे,
ये बरबाद गलियाँ 
ये गलियाँ 
जो दुखों में पली हैं, दुखों में ढली हैं 
और देखो ये गलियाँ -
गुलामी की दुनिया जलाने चली हैं l 




यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

One Billion Rising - उमड़ते सौ करोड़ में एक स्वर यह भी !

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

इन्तिसाब (Intisab by Faiz Ahmad Faiz)


आज के नाम 
और 
आज के ग़म के नाम 
आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा 
ज़र्द पत्तों का बन 
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है 
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है 
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम 
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम 
पोस्टमैनों के नाम 
ताँगेवालों के नाम 
रेलवानों के नाम 
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम 
बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,
                                                         दहकाँ के नाम 
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए 
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए 
हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है 
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है 
जिसकी पग ज़ोरवालों के पाँवों तले 
धज्जियाँ हो गई हैं 
उन दुखी माओं के नाम 
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और 
नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं 
दुःख बताते नहीं 
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं 

उन हसीनाओं के नाम 
जिनकी आँखों के गुल 
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल के 
मुरझा गये हैं 

उन ब्याहताओं के नाम 
जिनके बदन 
बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं 
बेवाओं के नाम 
कटड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम 
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों 
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू 
जिनके सायों में करती हैं आहो-बुका 
आँचलों की हिना 
चूड़ियों की खनक 
काकुलों की महक 
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू 

तालिबे इल्मों के नाम 
वो जो असहाबे-तब्लो-अलम 
के दरों पर किताब और क़लम 
का तक़ाज़ा लिये, हाथ फैलाये 
पहुँचे, मगर लौटकर घर न आये 
वो मासूम जो भोलेपन में 
वहाँ अपने नन्हें चिराग़ों में लौ की लगन 
ले के पहुँचे, जहाँ 
बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये 

उन असीरों के नाम 
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर 
जेलख़ानों की शोरीद: रातों की सरसर में 
जल-जल के अंजुम-नुमाँ हो गये हैं 

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम 
वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह 
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं l 


शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987

फ़ैज़ अक्सरहा याद आते हैं l आज के दौर में तो और भी l उनके जन्मदिन पर उनका यह इन्तिसाब (समर्पण) कितना मौजूँ है ! बहुपठित और बहुचर्चित होने पर भी हर बार यह ज़माने की नई से नई तस्वीर से मेल खाता नज़र आता है l 


मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

रोटीके मतवाले (Roti ke matwale by Shrimannarayan Agrawal)


                      हम तो रोटीके मतवाले !
नहीं चाह मदिराकी साक़ी क्या होंगे ये प्याले !
सुरापान कर जीवनके दुख नहीं भुलाना हमको !
हम तो दुखजीवनके प्रेमी, गावें राग निराले !
विस्मृतिके सागर में बहना, हम अति तुच्छ समझते,
कंटकमय जीवनपथ चलते, पड़े पदोंमें छाले,
इन काँटोंकी पीर जगानेको खाते हम रोटी,
पाकर जीवनदान उसीमें हो जाते मतवाले !

कवि - श्रीमन्नारायण अग्रवाल 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

नीलोफर की मुस्कान (Neelofar ki muskan by Aqram gasempar)

एक सुबह क्या गज़ब हुआ l नीलोफर जागी तो उसने देखा कि उसकी मुस्कान गायब है l उसने चप्पा-चप्पा छान मारा l तकिए के नीचे, जेब के अन्दर, अलमारी में ... जूते के डिब्बे तक को खँगाल लिया l पर वो कहीं न मिली l 
मुस्कान के बिना उसका चेहरा अच्छा नहीं लग रहा था l आँखों से चमक भी गुम हो गई थी l उसे माँ की बात याद हो आई, "मुस्कुराते बच्चों की आँखों में ही तारे चमकते हैं l"
शायद मैंने अपनी मुस्कान का ध्यान नहीं रखा l  पर अब क्या करूँ ? क्या माँ को बताना ठीक रहेगा ? पर वो तो यही कहेगी, 'अच्छी तरह याद करो कि तुमने उसे कहाँ रख छोड़ा है l'
ब...हु...त सोचा l ब...हु...त  ढूँढ़ा l बिस्तर के नीचे तक देखा पर ...
फिर चित्रों वाली अपनी कॉपी के पन्ने पलटे l कौन जाने वहीं दबी हो ?

कितने गुस्से में लग रहे हैं ये चेहरे l ये उसी ने तो बनाए थे l इतने सारे उदास चित्रों को देख उसे बहुत बुरा लगा l अपनी मुस्कान खोने के बाद पता चला कि मुस्कान के बिना कितना गन्दा लगता है l

उसने पेंसिल उठाई l और सभी चेहरों पर मुस्कान बनाने लगी l पापा के चेहरे पर बड़ी-सी मुस्कान ...माँ के चेहरे पर चमकती मुस्कान ...उड़ते आसमान के चेहरे पर एक बड़ी-सी पीली मुस्कान बनाई l अब आसमान उदास नहीं ...

बिल्ली के चेहरे पर नारंगी मुस्कान l अब वो चूहे और मछली को नहीं सताएगी l उसने सभी के माथे की सभी लकीरें पोंछ दीं l भौंहों को ज़रा ऊपर खिसका दिया l अब सबकी आँखें चमकने लगी थीं l और तो और उसने चिमनी पर भी हरी मुस्कान बना दी l कित्ती मज़ेदार लग रही है वो !

नीलोफर ज़ोर से हँसी ...और अचानक उसकी मुस्कान लौट आई l नीलोफर अपनी मुस्कान जाने कहाँ गुमा बैठी थी l पर अब देखो अपने गुड्डे-गुड़िया और खिलौनों के साथ कैसी मुस्कुराती घूम रही है !

ईरानी लेखक - अक़रम ग़ासेमपोर
हिन्दी अनुवाद - शशि सबलोक
प्रकाशक - एकलव्य, भोपाल, 2005

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

नन्हीं पुजारन (Nanheen pujaran by Majaz)

इक नन्हीं मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें, पतली गरदन
                   भोर भये मन्दिर आई है
                   आई नहीं है मां लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
                   ठोड़ी तक लट आई हुई है
                   यूंही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
                   कैसी सुन्दर है क्या कहिए
                   नन्हीं सी इक सीता कहिए
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
                   चांद का टुकड़ा, फूल की डाली
                   कमसिन, सीधी, भोली-भाली
कान में चांदी की बाली है
हाथ में पीतल की थाली है
                    दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
                    पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
                    मां बढ़कर चुटकी लेती है
                    चुपके-चुपके हंस देती है
हंसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
                    ख़ुद तो आई है मन्दिर में
                    मन उसका है गुड़िया-घर में
                                               (1936)

शायर - मजाज़
किताब - मजाज़ : प्रतिनिधि शायरी
संपादक - अर्जुमन्द आरा
प्रकाशक - पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा) लि , दिल्ली, 2011

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

तनहाई (Tanhai by Faiz Ahmad Faiz)


फिर कोई आया दिले-ज़ार नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का ग़ुबार 
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीद: चिराग़ 
सो गई रास्त: तक-तक के हरइक राहगुज़ार 
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिये क़दमों के सुराग़ 
गुल करो शम्एँ, बढ़ा दो मयो-मीना-ओ-अयाग़ 
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो 
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा 

राहरौ - पथिक,       ऐवानों - महलों
मयो-मीना-ओ-अयाग़ - शराब, सुराही और प्याला, 
मुक़फ़्फ़ल -  ताला लगाना 

शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987