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रविवार, 31 मार्च 2013

पीआ पीआ (Piya piya by Bulleh Shah)


पीआ पीआ करते हमीं पीआ होए,
अब पीआ किस नूँ कहीए ?
          
                                    हिजर वसल हम दोनों छोड़े,
                                    अब किस के हो रहीए ?                           
                                    पीआ पीआ करते हमीं पीआ होए,
                                    अब पीआ किस नूँ कहीए ? 

मजनूं लाल दीवाने वाँगूं,
अब लैला हो रहीए l 
पीआ पीआ करते हमीं पीआ होए,
अब पीआ किस नूँ कहीए ? 

                                     बुल्ला सहु घर मेरे आए,
                                     अब क्यों ताने सहीए ?
                                     पीआ पीआ करते हमीं पीआ होए,
                                     अब पीआ किस नूँ कहीए ? 


  हिजर = विछोड़ा            वसल = मिलाप 



रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003  

शनिवार, 30 मार्च 2013

बुनने का समय (Bunane ka samay by Kedarnath Singh)

उठो मरे सोये हुए धागों 
उठो  
उठो कि दर्ज़ी की मशीन चलने लगी है 
उठो कि धोबी पहुँच गया है घाट पर 
उठो कि नंग-धडंग बच्चे 
जा रहे हैं स्कूल 
उठो मेरी सुबह के धागों 
और मेरी शाम के धागों, उठो 

उठो कि ताना कहीं फँस रहा है 
उठो कि भरनी में पड़ गयी हैं गाँठ   
उठो कि नावों के पाल में 
कुछ सूत कम पड़ रहे हैं 

उठो 
झाड़न में 
मोज़ों में 
टाट में 
दरियों में दबे हुए धागों उठो 
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है 
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा 
फिर से बुनना होगा 
उठो मेरे टूटे हुए धागों, उठो 
और मेरे उलझे हुए धागों, उठो 

उठो 
की बुनने का समय हो रहा है            
 
     कवि - केदारनाथ सिंह
     संकलन - यहाँ से देखो
     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

घटकवाद की उठा-पटक है (Ghatakvaad ki utha-patak hai by Nagarjun)


चीं-चीं चें-चें चटक-मटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
जै-जै राम सटाक-सटक है 
          फैल गई हिंसा की लीला 
          गंगा दूषित, जल है पीला 
          काँप रहा मजनू का टीला 
घोंट-घाँट है, घटा-घटक है 
घटकवाद है, उठा-पटक है 
          बंदूकों ने रंग जमाया 
          चरणसिंह ने भस्म रमाया 
          उधर पुलिस ने नाम कमाया 
चीं-चीं चें-चैन चटक-मटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
          यम का खुला हुआ फाटक है 
          छीना-झपटी का त्राटक है 
          ठगपंथी का ही नाटक है 
जै-जै राम सटाक-सटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
          नानाजी नव कामराज हैं 
          अटल प्रमुख हैं, बिना ताज हैं 
          पूर्ण क्रांति के साज-वाज हैं 
कुटिल नीति यह कूट-कटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
          आरक्षण का संरक्षण क्या 
          नौकरशाही का भक्षण क्या 
          भ्रष्ट तंत्र का है लक्षण क्या 
जातिवाद की भूल-भटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
           घाव घाव है, दवा नहीं है 
           घुटन घुटन है, हवा नहीं है 
           चूल्हा है, पर तवा नहीं है 
राशन सीताराम सटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
           शासन का जादुई यंत्र है 
           धन-कुबेर का महा मंत्र है 
           लोकनीति है पुलिस तंत्र है 
हिंसा में क्या कहीं अटक है 
पाँच नहीं यह एक घटक है 
           खुली जीभ का जादू देखो 
           कबीरा देखो, दादू देखो 
           झग्गल देखो, लादू देखो 
करनी सीताराम सटक है 
घटकवाद की उठा-पटक है 
                               - 1978



कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 2
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003


गुरुवार, 28 मार्च 2013

नौजवान ख़ातून से (Naujavan khatoon se by Majaz Lakhnawi)


हिजाबे-फ़ित्नापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था

तिरी चीने-जबीं ख़ुद इक सज़ा क़ानूने-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था

ये तेरा ज़र्द रुख़, ये ख़ुश्क लब, ये वह्म, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था

दिले-मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल !
तू आँसू पोंछकर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तिरे ज़ेरे-नगीं घर हो, महल हो, क़स्र हो, कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़ो-समाँ लेती तो अच्छा था

अगर ख़िलवत में तूने सर उठाया भी तो क्या हासिल !
भरी महफ़िल में आकर सर झुका लेती तो अच्छा था

तिरे माथे का टीका मर्द की क़िस्मत का तारा है
अगर तू साज़े-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

अयाँ हैं दुश्मनों के खंज़रों पर ख़ून के धब्बे
इन्हें तू रंगे-आरिज़ से मिला लेती तो अच्छा था 


सनानें खैंच ली हैं सरफिरे बाग़ी जवानों ने 
तू सामाने-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था

तिरे माथे पर ये आँचल बहुत ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
                                            - 1937

                              
            

ख़ातून = स्त्री ;  हिजाबे-फ़ित्नापरवर= फ़ित्ने जगानेवाला पर्दा ;  मुहाफ़िज़ = रक्षक ;  चीने-जबीं = माथे की त्यौरी ;  क़ानूने-फ़ितरत = प्रकृति का विधान ;  कारे-सज़ा = दंड देने का काम ;  दिले-मजरूह = घायल दिल ;  
ज़ेरे-नगीं = निगरानी (अधिकार) में ;  क़स्र = महल ;  अर्ज़ो-समाँ = धरती-आकाश ;  ख़िलवत = एकांत ;  साज़े-बेदारी = जागृति का साज़ ;  अयाँ = प्रकट ;  रंगे-आरिज़ = गालों के रंग ;  सनानें = तलवारें ;  सामाने-जराहत = इलाज का सामान 


शायर - 'मजाज़' लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, 2001

1985 की बात है। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मलेन जमशेदपुर में हो रहा था। उसमें यादगार के तौर पर मैंने कैफ़ी आज़मी से दस्तख़त लिए थे। उन्होंने मजाज़ की इसी नज़्म की ये अंतिम पंक्तियाँ लिखकर मुझे दी थीं - 
                 तिरे माथे पर ये आँचल बहुत ख़ूब है लेकिन
                 तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

वह 'ऑटोग्राफ बुक' तो गुम हो गई, लेकिन यह पंक्ति मुझे कभी नहीं भूलती है।

बुधवार, 27 मार्च 2013

कैफ़ियते-बाग़ (Kaifiyat-e-bagh by Mirza 'Shauq' Lakhnawi)

बाग़ है पर अजब है ये रूदाद 
न कोई आदमी न आदमज़ाद 
गुल हैं सब अपने-अपने जोबन पर 
बू-ए-गुल है सबा के तौसन पर 
हैं अजब लुत्फ़ पर सबा-ओ-गुल 
बाग़ रंगीन जिससे है बिलकुल 
है अजब लुत्फ़ पर जमाले-चमन 
झूमते हैं खड़े निहाले-चमन 
सब्ज़ा इक जा पे लहलहाता है 
पेच सुम्बुल कहीं पे खाता है 
मालती खिल रही जो हर सू है 
कुछ अजब भीनी-भीनी खुशबू है 
आबपाशी से सब्ज़ा लायक़े-दीद 
सब्ज़ मख़मल पे जैसे मरवारीद 
फूल एक-एक उसमें बू-क़लमूँ 
हो जिसे देख आदमी को जुनूँ 
वो सुहाना-सुहाना वक़्ते-ज़वाल 
लुत्फ़े-गुलशन से हर शजर है निहाल 
बाग़ छोटा सा, प्यारे-प्यारे चमन 
गुल तो गुल, पत्ते-पत्ते पर जोबन 
बीच में बँगला एक है ख़स का 
फ़र्श जिसमें तमाम अतलस का 
चार जानिब से आती है खुशबू 
कहीं जूही खिली, कहीं शब्बू 
हर चमन पर नई तरह की बहार 
फूला इक सिम्त को है हार-सिंगार 
सब चमन अपने-अपने रंग के हैं 
फूल कुछ चीन, कुछ फ़िरंग के हैं 
क़फ़से - तायराने - तेज़ - ज़बीं 
हैं  क़रीनों  से  अपने  आवेज़ां 
गुल जो चारों तरफ़ महकते हैं 
मस्त हो-हो के सब चहकते हैं


रूदाद = कहानी ;  बू-ए-गुल = फूल की बू ;  सबा = ठंडी हवा ;  तौसन= घोड़े का उद्दंड बच्चा ;  जमाले-चमन = चमन का सौन्दर्य ;  निहाले-चमन = चमन के पौधे ;  सब्ज़ा = हरियाली  ;  सू = तरफ़ ;  आबपाशी = सिंचाई ;   लायक़े-दीद = दर्शनीय ;  मरवारीद = मोती ;  बू-क़लमूँ = रंग-बिरंगे ;  वक़्ते-ज़वाल = दिन ढलने का समय ;  शजर = पेड़ ;  अतलस = एक तरह का कपड़ा ;  सिम्त = तरफ़ ;  हार-सिंगार = हरसिंगार ;  क़फ़से - तायराने - तेज़ - ज़बीं = तेज़ बोलनेवाले परिंदों के पिंजरे ;  आवेज़ां = सुसज्जित 


शायर - मिर्ज़ा 'शौक़' लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मिर्ज़ा 'शौक़' लखनवी में फ़रेबे-इश्क़ से 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, 2010

गुरुवार, 21 मार्च 2013

बधाई (Badhai by Trilochan)

ब्राह्म काल में पूर्वा आई, कहा, "बधाई
है कवि, तुमने सैंतीस वर्षों की प्रिय कड़ियाँ 
पूरी कीं l " पर मुझे लगा बस दो ही घड़ियाँ 
अभी गई होंगी l सम्मान से झुका l "आई 
हो कैसे, क्यों कष्ट किया l" - पूछा l मुसकाई 
वह कि सज गईं इधर उधर फूलों की छड़ियाँ,
टूटा चंद्रहार रजनी का, बिखरी लड़ियाँ 
तारों की दिन की श्री जगतीतल पर छाई l 

बोली, "जो रवि उदित हुआ था साथ तुम्हारे 
उस दिन, वही जगाने जगते ही आया है l 
दैवयोग से तुम ने दिव्य मित्र पाया है 
इस जीवन में l घर या बाहर जब तुम हारे 
तुम्हें दिया अवलंब, स्निग्ध कर सदा पसारे 
इस ने दिव्य ज्योति दी है, तुम ने गाया है l" 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - फूल नाम है एक 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1985

बुधवार, 20 मार्च 2013

रात गये (Raat gaye by Firaq Gorakhpuri)



ये रात !  हवाओं की सोंधी सोंधी महक 
ये खेल करती हुई चांदनी की नर्म दमक 
सुगंध 'रात की रानी' की जब मचलती है 
फ़ज़ा में रूहे-तरब करवटें बदलती हैं 
ये रूप सर से क़दम तक हसीं जैसे गुनाह 
ये आरिज़ों की दमक, ये फ़ुसूने-चश्मे-सियाह 
ये धज न दे जो अजन्ता की सनअतों को पनाह 
ये सीना, पड़ ही गई देवलोक की भी निगाह 
ये सरज़मीन है आकाश की परस्तिश-गाह 
उतारते हैं तेरी आरती सितारा-ओ-माह 
सिजल बदन की बयां किस तरह हो कैफ़ीयत 
सरस्वती के बजाये हुए सितार की गत 
जमाले-यार तेरे गुलिस्तां की रह रह के 
जबीने-नाज़ तेरी कहकशां की रह रह के 
दिलों में आईना-दर-आईना सुहानी झलक 


रूहे-तरब = आह्लाद की आत्मा        आरिज़ों = कपोलों  
फ़ुसूने-चश्मे-सियाह = काली आंखों का जादू        सनअतों = कलाओं 
सरज़मीन = धरती        सितारा-ओ-माह = चांद-सितारे 
जमाले-यार = प्रेयसी की सुन्दरता        जबीने-नाज़ = प्रेयसी का माथा   
 कहकशां = आकाशगंगा  

शायर - फ़िराक़ गोरखपुरी 
संकलन - उर्दू के लोकप्रिय शायर : फ़िराक़ गोरखपुरी 
संपादक - प्रकाश पंडित 
प्रकाशक - हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 

सोमवार, 18 मार्च 2013

सुनो (Suno by Pash)

हमारे चूल्हे का संगीत सुनो 
हम दर्दमंदों की पीड़ा-लिपटी चीख़ सुनो 
मेरी बीवी की फ़रमाइश सुनो 

मेरी बच्ची की हर माँग सुनो 
मेरी बीड़ी के भीतर का ज़हर गिनो 
मेरे खाँसने का मृदंग सुनो 
मेरी पैबंदों-भरी पतलून की ठंडी आह सुनो 
मेरे पाँव में पहनी जूती से 
मेरे फटे दिल का दर्द सुनो 
मेरी निःशब्द आवाज़ सुनो 
मेरे बोलने का अंदाज़ सुनो 
मेरे ग़ज़ब का ज़रा अंदाज़ करो 
मेरे रोष का ज़रा हिसाब सुनो 
मेरे शिष्टाचार की लाश लो 
मेरे वहशत का अब राग सुनो 
आओ आज अनपढ़ जंगलियों से 
पढ़ा-लिखा इक गीत सुनो 
आप गलत सुनो या ठीक सुनो 
हमसे हमारी नीति सुनो l 



कवि - पाश 
किताब - सम्पूर्ण कविताएँ : पाश 
संपादन और अनुवाद - चमनलाल 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, 2002

रविवार, 17 मार्च 2013

चाँद (Chand by Sumitranandan Pant)


                    
                    टूटी चूड़ी-सा चाँद 
                     न जाने निर्जन नभ में 
                     किसकी मृदुल 
                                  कलाई से गिर पड़ा ! -

हाय, दूज की चाँद 
कौन, जग से अदृश्य,
                    गोरी होगी वह !





कवि - सुमित्रानंदन पन्त  
संकलन - स्वच्छंद  
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानंद, प्रभात रंजन
प्रकाशक -  महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

शनिवार, 16 मार्च 2013

भाषा : पहचान (Bhasha : Pahchan by Ajneya)

एक भिखारी ने 
दूसरे भिखारी को सूचना दी :
उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी l 

बड़े काम की चीज़ है भाषा : उस के सहारे 
एक से दूसरे तक 
जानकारी पहुँचायी जा सकती है l 
वह सामाजिक उपकरण है l 

पर नहीं l उस से भी बड़ी बात है यह
कि भाषा है तो 
एक भिखारी जानता है कि वह दूसरे से जुड़ा हुआ है 
क्यों कि वह उस जानकारी का 
साझा करने की स्थिति में है l 
वह मानवीय उपलब्धि है l 

हम सभी भिखारी हैं l 
भाषा की शक्ति 
यह नहीं कि उस के सहारे 
सम्प्रेषण होता है :
शक्ति इस में है कि उस के सहारे 
पहचान का वह सम्बन्ध बनता है जिस में 
सम्प्रेषण सार्थक होता है l 


कवि - अज्ञेय 
संकलन - नदी की बाँक पर छाया (कविताएँ 1977-81)
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली,  1981
 

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

इधर से पहले (Idhar se pahle by Ibne Insha)


अपने हमराह जो आते हो, इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर  से पहले

चल दिए उठ के सूए-शहरे-वफ़ा कूए-हबीब
पूछ लेना था किसी खाक़बसर  से पहले

इश्क़ पहले भी किया, हिज्र का ग़म भी देखा
इतने तड़पे हैं न घबराए न तरसे पहले

जी बहलता ही नहीं अब कोई साअत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर  से पहले

हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी
सैंकड़ों दर थे मेरी जाँ तेरे दर से पहले

चाँद से आँख मिली, जी का उजाला जागा
हमको सौ बार हुई सुब्ह, सहर  से पहले

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

गुरुवार, 14 मार्च 2013

क्यों ? (Kyon ? by Allama 'Kaifi')

दुखी हैं तो क्यों आप झुँझला रहे हैं 
                       कियेका ही तो अपने फल पा रहे हैं l 
कभी उनके कामोंपै भी मन लगाते,
                       जो अगलों के गुन रात दिन गा रहे हैं l
जो उलटी समझ है तो है काम उलटा उलटा,
                        कि वह सीधी बातोंको उलझा रहे हैं l
नयी उलझनें और पड़ती हैं आकर,
                         यह क्या गुत्थियाँ आप सुलझा रहे हैं l
किधर जा रहे हैं, नहीं इसकी सुधबुध,
                          जो हैं अपनी धुनमें, चले जा रहे हैं l
नहीं खेल लड़कोंका कुछ देस भगती,
                          यही कबसे हम तुमको समझा रहे हैं l
जो हो प्यार आपसमें तो भाग जागें,
                           तुम्हें बात यह गुरकी बतला रहे हैं l
नहीं साँचको आँच, भूलो न इसको,
                            वह पछतायेंगे, अब जो इतरा रहे हैं l 
वही बात है साथ ले डूबनेकी,
                            जो बहके हुए हैं वह बहका रहे हैं l 
है एक आपका और उसका विधाता,
                            हरीजनसे क्यों आप कतरा रहे हैं l 
यह क्या उलटी गंगा बहानेकी सूझी,
                            कि भाईसे भाई छुटे जा रहे हैं l 
न आना कभी उनकी बातोंमें देखो,
                            जो अनबन यहाँ हममें फैला रहे हैं l
कड़ा जीको रखना कि विपदाके बादल,
                            जहाँ जायँ हम सरपै मंडला रहे हैं l 
न जाने यह चक्कर कहाँ जाके ठहरे,
                             अभीसे यह क्यों आप घबरा रहे हैं l
सूनी अनसुनी कर दें क्या इससे हमको,
                              जो कहना है 'कैफ़ी' कहे जा रहे हैं l
 
 
 
शायर - अल्लामा 'कैफ़ी'
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

सोमवार, 11 मार्च 2013

अगर कहीं मैं तोता होता (Agar kahin main tota hota by Raghuvir Sahai)

          
          अगर कहीं मैं तोता होता 

तोता होता तो क्या होता ?
          तोता होता l 
होता तो फिर ?
          होता, 'फिर' क्या ?
          होता क्या ? मैं तोता होता l 
          तोता तोता तोता तोता 
          तो तो तो तो ता ता ता ता 
          बोल पट्ठे सीता राम 



कवि - रघुवीर सहाय  
संकलन - रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएँ  
संपादक - सुरेश शर्मा  
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1994

रविवार, 10 मार्च 2013

जनहित का काम (Janhit ka kaam by Kedarnath Singh)

यह एक अद्भुत दृश्य था 

मेह बरसकर खुल चुका था 
खेत जुतने को तैयार थे 
एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था 
और एक चिड़िया बारबार-बारबार 
उसे अपनी चोंच से 
उठाने की कोशिश कर रही थी 

मैंने देखा 
और मैं लौट आया 
क्योंकि मुझे लगा, मेरा वहाँ होना 
जनहित के उस काम में 
दखल देना होगा 


कवि - केदारनाथ सिंह
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शनिवार, 9 मार्च 2013

क्यों (Kyon by Sanjay Shandilya)

दुबारा जीवन मिले
तो दादी
दादी होना नहीं चाहती

माँ
माँ होना

बीवी भी नहीं चाहती
बीवी होना

बहन नहीं होना चाहती
बहन

बेटी होना
बेटी नहीं चाहती

जीवन के
रेगिस्तानों में
फँसी हुई हैं वे ...

हजार बार भी मिले जीवन
तो मैं
क्यों होना चाहता हूँ
संजय शांडिल्य ?



कवि - संजय शांडिल्य
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि 
संपादक - नन्दकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

आँसू का मोल न लूँगी मैं (Aansoo ka mol na loongi main by Mahadevi Verma)


आँसू का मोल न लूँगी मैं !

यह क्षण क्या ? द्रुत मेरा स्पंदन ;
यह रज क्या ? नव मेरा मृदु तन ;
यह जग क्या ? लघु मेरा दर्पण ;
प्रिय तुम क्या ? चिर मेरे जीवन ;

                     मेरे सब सब में प्रिय तुम,
                     किससे व्यापार करूँगी मैं ?

आँसू का मोल न लूँगी मैं !

निर्जल हो जाने दो बादल ;
मधु से रीते सुमनों के दल ;
करुणा बिन जगती का अंचल ;
मधुर व्यथा बिन जीवन के पल ;

                     मेरे दृग में अक्षय जल,
                     रहने दो विश्व भरूँगी मैं !

आँसू का मोल न लूँगी मैं !

मिथ्या, प्रिय मेरा अवगुण्ठन 
पाप शाप, मेरा भोलापन !
चरम सत्य, यह सुधि का दंशन,
अंतहीन, मेरा करुणा-कण ;

                     युग युग के बंधन को प्रिय !
                     पल में हँस 'मुक्ति' करूँगी मैं !

आँसू का मोल न लूँगी मैं !


कवयित्री - महादेवी वर्मा 
संकलन - महादेवी साहित्य समग्र, भाग 1 
संपादन - निर्मला जैन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली,  2000
         

गुरुवार, 7 मार्च 2013

छेड़ो मत इनको ! (Chhedo mat inko by Nagarjun)

जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाया होगा !
छेड़ो मत इनको 
बाहर निकालने दो इन्हें अपनी उपलब्धियाँ 
भरने दो मधुकोष 
छेड़ो मत इनको 
बड़ा ही तुनुक है मिज़ाज 
रंज हुईं तो काट खाएँगी तुमको 
छोड़ दो इनको, करने दो अपना अकाम 
छेड़ो मत इनको 
रचने दो मधुछत्र 
जमा हो ढेर-ढेर-सा शहद 
भरेंगे मधुभाँड ग़रीब बनजारे के 
आख़िर तुम तक तो पहुँचेगा ही शहद 
मगर अभी छेड़ो मत इनको !

नादान होंगे वे  
उनकी न बात करो 
मारते हैं शहद के छत्तों पे कंकड़ 
छेड़ते हैं मधु-मक्खियों को नाहक 
उनकी न बात करो, नादान होंगे वे 
कच्ची होगी उम्र, कच्चे तजरबे 
डाँट देना उन्हें, छेड़खानी करें अगर वे 
तुम तो सयाने हो न ?
धीरज से काम लो 
छेड़ो मत इनको 
करने दो जमा शहद 
भरने दो मधुकोष 
रचने दो  रस-चक्र 
छेड़ो मत इनको ! 


कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003