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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

रंगों की हिफाज़त (Rangon ki hifazat by Kunwar Narayan)


रंग के विशेषज्ञों को डर है 
कि आगामी वर्षों में 
कुछ रंगों की भारी कमी मुमकिन है l 
उनका अकाल तक पड़ सकता है 
अगर इसी रफ्तार से हम उन्हें नष्ट करते रहे :

                                   जैसे लाल और हरा, जो या तो 
                                   आसमान की तरह नीले पड़ जाएँगे 
                                   या कोयले की तरह काले l 

एहतियात ज़रूरी है 
कि जहाँ भी वे मिलें 
उन्हें यत्न से बचाया जाए :

                                   लाल को चाहे रक्त कहें 
                                   चाहे हरे को हरियाली 
                                   वे केवल फर्क रंग हैं 
                                   दुश्मन रंग नहीं l 

और दोनों ही को बचाना ज़रूरी है 
एक दूसरे की ज़िंदगी के लिए l 



कवि - कुँवर नारायण 

रविवार, 28 अप्रैल 2013

बावला-बावली (Bavala-bavali bu Gijubhai)


एक था बावला, एक थी बावली l 
       दिन भर लकड़ी काटने के बाद थका-मादा बावला शाम को घर पहुंचा और उसने बावली से कहा, "बावली ! आज तो मैं थककर चूर-चूर हो गया हूं l अगर तुम मेरे लिए पानी गरम कर दो, तो मैं नहा लूं, गरम पानी से पैर सेक लूं और अपनी थकान उतार लूं l"
       बावली बोली, "वाह, यह तो मैं खुशी-खुशी कर दूंगी l देखो, वह हंडा पड़ा है l उसे उठा लाओ l"
       बावले ने हंडा उठाया और पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब पास के कुएं से इसमें पानी भर लाओ l"
       बावला पानी भरकर ले आया l फिर पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब हंडे को चूल्हे पर रख दो l"
       बावले ने हंडा चूल्हे पर रख लिया और पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "बस अब चूल्हा फूंकते रहो l"
       बावले ने फूंक-फूंककर चूल्हा जला लिया और पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब हंडा नीचे उतार लो l"
       बावले ने हंडा नीचे उतार लिया और पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब हंडे को नाली के पास रख लो l"
       बावले ने हंडा नाली के पास रख लिया और पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब जाओ और नहा लो l"
       बावला नहा लिया l उसने पूछा, "अब क्या करूं ?"
       बावली बोली, "अब हंडा हंडे की जगह पर रख दो l"
       बावले ने हंडा रख दिया और फिर अपने सारे बदन पर हाथ फेरता-फेरता वह बोला, "वाह, अब तो मेरा यह बदन फूल की तरह हल्का हो गया है l तुम रोज इस तरह पानी गरम कर दिया करो तो कितना अच्छा हो l"
       बावली बोली, "मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है l सोचो, इसमें आलस्य किसका है ?"
       बावला बोला, "हां, आलस्य तो मेरा ही है, पर अब मैं आलस्य नहीं करूंगा l"
       बावली बोली, "बहुत अच्छा ! तो अब तुम सो जाओ l"



लेखक - गिजुभाई बधेका 
रूपांतरकार - ओम प्रकाश 'सूरज'
संकलन - गिजुभाई की कहानियां 
प्रकाशक - नवसृजन साहित्य, दिल्ली, 2007


मुझे याद है कि इस कहानी को संस्कृत की पाठ्यपुस्तक (NCERT) में देने के लिए पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति में  कितना संघर्ष हुआ था ! उसमें बावला-बावली की जगह पेमला-पेमली था. 

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

एक मुश्किल सवाल (Ek mushkil sawal by Parveen Shakir)



टाट के पर्दे के पीछे से 
एक बारह-तेरह साला चेहरा झाँका 
वह चेहरा 
बहार के पहले फूल की तरह ताजा था 
और आँखें 
पहली मोहब्बत की तरह शफ्फाक 
लेकिन उसके हाथ में 
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं 
और उन लकीरों में 
बर्तन माँजने की राख जमी थी 
उसके हाथ 
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे l 



शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे 
संपादक - डॉ. विनोदानन्द झा 
प्रकाशक - किलकारी, बिहार बाल भवन, पटना, 2012

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

बोल, अरी ओ धरती, बोल ! (Bol, ari o dharti, bol by Majaz Lakhnavi)

बोल, अरी  ओ धरती, बोल 
राजसिंहासन     डाँवाडोल 

बादल, बिजली,रैन अँधियारी 
दुख  की  मारी  परजा  सारी 
बूढ़े - बच्चे   सब   दुखिया  हैं 
दुखिया  नर हैं, दुखिया नारी 
बस्ती - बस्ती   लूट  मची   है 
सब  बनिये  हैं, सब  ब्यौपारी 
                    बोल, अरी  ओ धरती, बोल 
                    राजसिंहासन     डाँवाडोल 

कलयुग  में जग  के रखवाले 
चाँदी  वाले,      सोने  वाले 
देसी   हों  या  परदेसी   हों 
नीले,   पीले,   गोरे,   काले 
मक्खी,भुनगे भिन-भिन करते 
ढूँढे   हैं   मकड़ी    के   जाले 
                   बोल, अरी ओ धरती, बोल 
                   राजसिंहासन     डाँवाडोल 

क्या अफ़रंगी, क्या तातारी 
आँख बची और बरछी मारी 
कब  तक  जनता की बेचैनी 
कब  तक जनता की बेज़ारी 
कब  तक  सरमाया  के  धंदे 
कब  तक  ये  सरमायादारी 
                  बोल, अरी ओ धरती, बोल 
                  राजसिंहासन     डाँवाडोल 


नामी और मशहूर नहीं हम 
लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम 
धोका और मज़दूरों को दें !
 ऐसे  तो मजबूर  नहीं  हम 
मंज़िल  अपने पाँव के नीचे 
मंज़िल से अब दूर नहीं हम 
                  बोल, अरी ओ धरती, बोल 
                  राजसिंहासन     डाँवाडोल 

बोल कि तेरी ख़िदमत की है 
बोल कि तेरा काम किया है 
बोल कि  तेरे  फल  खाए हैं 
बोल  कि  तेरा दूध पिया है 
बोल कि  हमने हश्र उठाया 
बोल कि  हमसे हश्र उठा है 
                 बोल कि हमसे जागी दुनिया 
                 बोल कि हमसे जागी धरती 

                 बोल, अरी ओ धरती, बोल 
                 राजसिंहासन     डाँवाडोल 
                                     
                                       - 1945


अफ़रंगी = फ़िरंगी                           सरमाया = पूँजी 
सरमायादारी = पूँजीवाद                 हश्र = क़यामत 


शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001 
                        

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

समझदार स्त्री (Samajhdar stree by Kunwar Narayan)


वह एक समझदार स्त्री है
        जो उन लोगों को समझती है
        जो घर के कमरे में बैठे
        स्त्रियों के बहाने
        उसके बारे में बात कर रहे हैं

उनके मन में नक़ली हमदर्दी
और असली कौतूहल है,
        कि देखें उसमें कितना आत्मबल है.




कवि - कुँवर नारायण
संकलन - इन दिनों
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002




रविवार, 21 अप्रैल 2013

चिड़ियाँ आएँगी

 
चिड़ियाँ आएँगी  
हमारा बचपन 
धूप की तरह अपने पंखों पर 
लिये हुए l 
 
किसी प्राचीन शताब्दी के 
अँधेरे सघन वन से 
उड़कर चिड़ियाँ आएँगी,
और साये की तरह 
हम पर पड़े अजब वक़्त के तिनके 
बीनकर बनाएँगी घोंसले l 
 
चिड़ियाँ लाएँगी   
पीछे छूट गए सपने,
पुरखों के क़िस्से,
भूले-बिसरे छन्द,
और सब कुछ 
हमारे बरामदे में छोड़कर 
उड़ जाएँगी l 
 
चिड़ियाँ न जाने कहाँ से आएँगी   
चिड़ियाँ न जाने कहाँ जाएँगी l 
नीम और अमरूद के वृक्षों की शाखाओं पर 
हरी पत्तियों, निबौलियों और गदराते फलों के बीच 
चिड़ियाँ समवेत गान की तरह 
हमारा बचपन हमारा जीवन 
हमारी मृत्यु 
सब एक साथ 
गाएँगी l 
 
चिड़ियाँ अनन्त हैं 
अनन्त से आएँगी 
अनन्त में जाएँगी l    
 
 
कवि - अशोक वाजपेयी (2003)
संग्रह - विवक्षा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

गीत (Geet by Ramgopal Sharma 'Rudra')

 मेरे गीतों को भी प्यार मिलेगा क्या !!

                  कलियाँ हो जाएँगी बासी,
                  जब तक आएगी पुनवाँसी !
पतझर के काँटों में फूल खिलेगा क्या !

                  काँटे जो लगते आए हैं,
                  लाल-गुलाबी दल लाए हैं !
इनसे पत्थर का भी मर्म छिलेगा क्या !

                  सूई भी है, डोरा भी है ;
                  शशि है, और चकोरा भी है !
टाँके पाकर मेरा घाव सिलेगा क्या !
                                              - 1954




कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र'
किताब - रुद्र समग्र 
संपादक - नंदकिशोर नवल 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

बड़ी हो रही है लड़की (Badi ho rahi hai ladki by Raghuvir Sahai)


जब वह कुछ कहती है
उसकी आवाज़ में
एक कोई चीज़
मुझे एकाएक औरत की आवाज़ लगती है जो
अपमान बड़े होने पर सहेगी

वह बड़ी होगी
डरी और दुबली रहेगी
और मैं न होऊँगा
वे किताबें वे उम्मीदें न होंगी
जो उसके बचपन में थीं
कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी

लम्बी और तगड़ी बेधड़क लड़कियाँ
धीरज की पुतलियाँ
अपने साहबों को सलाम ठोंकते मुसाहबों को ब्याहकर
आ रही होंगी जा रही होंगी
वह खड़ी लालच में देखती होगी उनका क़द

एक कोठरी होगी
और उसमें एक गाना जो ख़ुद गाया नहीं होगा किसी ने
क़ैदी से छीनकर गाने का हक़ दे दिया गया होगा वह गाना
कि उसे जब चाहो तब नहीं जब वह बजे तब सुनो
बार-बार एक-एक अन्याय के बाद वह बज उठता है

वह सुनती होगी मेरी याद करती हुई
क्योंकि हम कभी-कभी साथ-साथ गाते थे
वह सुर में मैं सुर के आसपास

एक पालना होगा
वह उसे देखेगी और अपने बचपन की यादें आयेंगी
अपने बचपन के भविष्य की इच्छा
उन दिनों कोई नहीं करता होगा
वह भी न करेगी



कवि - रघुवीर सहाय  
संकलन - रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएँ  
संपादक - सुरेश शर्मा  
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1994



लड़की को बड़ी होने के पहले ही सबकुछ झेलना पड़ता है ! आज दिल्ली की दुर्घटना उस अंतहीन श्रृंखला की एक कड़ी है !



गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

कोई आशिक़ किसी महबूबा से (Koi ashique kisi mahbooba se by Faiz Ahmad Faiz)

गुलशने-याद में गर आज दमे-बादे-सबा 
फिर से चाहे तो गुल-अफ़शाँ हो तो हो जाने दो 
उम्रे-रफ़्ता के किसी ताक़ पे बिसरा हुआ दर्द 
फिर से चाहे कि फ़रोज़ाँ हो तो हो जाने दो 

जैसे बेगाने से अब मिलते हो वैसे ही सही 
आओ दो-चार घड़ी मेरे मुक़ाबिल बैठो 
गरचे मिल बैठेंगे हम तुम तो मुलाक़ात के बाद 
अपना एहसासे-ज़ियाँ और ज़ियादा होगा 
हमसुखन होंगे जो हम दोनों तो हर बात के बीच 
अनकही बात का मौहूम-सा पर्दा होगा 
कोई इक़रार न मैं याद दिलाऊँगा न तुम 
कोई मज़्मून वफ़ा का न ज़फ़ा का होगा 

गर्दे-अय्याम की तहरीर को धोने के लिए 
तुम से गोया हों दमे-दीद जो मेरी पलकें 
तुम जो चाहो वो सुनो 
और जो न चाहो न सुनो 
और जो हर्फ़ करें मुझ से गुरेज़ाँ आँखें 
तुम जो चाहो तो कहो 
और जो न चाहो न कहो 
                            - लंदन, 1978


दमे-बादे-सबा = हवा का झोंका                 गुल-अफ़शाँ= फूल बिखराना 
उम्रे-रफ़्ता = बीती हुई उम्र                        फ़रोज़ाँ = उज्ज्वल, रौशन 
एहसासे-ज़ियाँ = खोने की अनुभूति          हमसुखन = दूसरे से बात करते हुए 
मौहूम = आशंकित, हल्का                       गर्दे-अय्याम = युग 
तहरीर = लिखावट                                  दमे-दीद= देखते समय 
गुरेज़ाँ = बचते हुए  


शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

बिहारी सतसई में नैन (Bihari Satsai mein nain by Bihari)


कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात l 
भरे भौन में करत हैं नैननु ही सब बात ll 62 ll 


नटत = नाहीं-नाहीं करते हैं 

कहते हैं, नाहीं करते हैं, रीझते हैं, खीजते हैं, मिलते हैं, खिलते हैं और लजाते हैं l (लोगों से) भरे घर में (नायक-नायिका) दोनों ही आँखों द्वारा बातचीत कर लेते हैं l 


करे चाह-सौं चुटकि कै सरैं उड़ौहैं मैन l 
लाज नवाएँ तरफत करत खूँद-सी नैन ll 79 ll 

चुटकि कै = चाबुक मारकर 
उड़ौहैं= उड़ाकू, उड़ान भरनेवाला 
मैन = कामदेव 
खूँद = जमैती, घोड़े की ठुमुक चाल 


कामदेव ने चाह का चाबुक मारकर नेत्रों को बड़ा उड़ाकू बना दिया है l किंतु लाज (लगाम) से रोके जाने के कारण उसके नेत्र (रूपी-घोड़े) तड़फड़ाकर जमैती-सी कर रहे हैं l 


नोट - जब घोड़े को जमैती सिखाई जाती है, तब एक आदमी पीछे चाबुक फटकारकर उसे उत्तेजित करता रहता है और दूसरा आदमी उसकी लगाम कसकर पकड़े रहता है l यों घोड़ा पीछे की उत्तेजना और आगे की रोकथाम से छटपटाकर जमैती करने लगता है l 


बेधक अनियारे नयन बेधत करि न निषेधु l 
बरबट बेधत मो हियौ तो नासा कौ बेधु ll 86 ll 

बेधक = बेधनेवाला 
अनियारे = नुकीले  
निषेधु= रुकावट 
बरबट = अदबदाकर, जबरदस्ती 
नासा = नाक 
बेधु = छेद 

चुभीली नुकीली आँखें यदि ह्रदय को छेदती हैं, तो छेड़ने दे, उन्हें मना मत कर (वे ठहरी चूभॆलॆ नुकीली, बेधना तो उनका काम ही है); क्योंकि तेरी नाक का बेध - लौंग पहनने की जगह का छेद - मेरे ह्रदय को बरबस बेध रहा है - जो स्वयं बेध रहा है, यही बेध रहा है, तो फिर बेधक क्यों न बढ़े ?



कवि - बिहारी 
टीकाकार - रामवृक्ष बेनीपुरी 
किताब - बेनीपुरी ग्रंथावली
सामग्री संकलन - जितेन्द्र कुमार बेनीपुरी
संपादक - सुरेश शर्मा 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1998


 
 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

मन मूरख (Man moorakh by Meeraji)

मन मूरख मिट्टी का माधो, हर साँचे में ढल जाता है 
इसको तुम क्या धोका दोगे, बात की बात बहल जाता है 

जी की जी में रह जाती है, आया वक़्त ही ढल जाता है 
ये तो बताओ, किसने कहा था काँटा दिल से निकल जाता है 

क्यों करती है अन्धी क़िस्मत अपने भावें आनाकानी 
जग के मुँह पर हँसी-कहानी देखके जी ही जल जाता है 

झूठ-मूठ ही होंट खुले तो दिल ने जाना अमृत पाया 
एक-इक मीठे बोल पे मूरख दो-दो हाथ उछल जाता है 

जैसे बालक पा के खिलौना तोड़ दे उसको और फिर रोए 
वैसे आशा के मिटने पर मेरा दिल भी मचल जाता है 

सुध बिसरे पर हँसनेवालो, चाह की राह चलो तो जानो 
ओछा पड़ता है हर दाँव जब ये जादू चल जाता है 

अब तो साँस यूँ ही आते हैं, काँपते-काँपते कुछ ठहराव 
जैसे रस्ता चलते शराबी गिरते-गिरते सँभल जाता है 

जीवन-रेत की छान-पटक में सोच-सोच दिन-रैन गँवाए 
बैरन वक़्त की हेराफेरी, पल आता है, पल जाता है 

'मीराजी' दर्शन का लोभी, बिन बस्ती जोग का फेरा 
देख के हर अनजानी सूरत पहला रंग बदल जाता है 


शायर - मीराजी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010


सोमवार, 15 अप्रैल 2013

दिल्ली में बबूल (Dilli mein babool by Kedarnath Singh)


वह जाड़ों की एक शाम थी 
मैं चला जा रहा था अकेला 
कि अचानक मेरी दृष्टि पड़ी -
धूल से ढँका 
और काँटों से लदा वह खड़ा था उदास 
आती-जाती बसों को 
एकटक देखता हुआ 

बबूल है - मैंने पहचाना 
जैसे भीड़ में कोई बचपन के दोस्त को पहचान ले 
और उसे देखकर ऐसा कुछ हुआ 
कि रख दिया प्रस्ताव 
चलो कनाट प्लेस चलें !

कनाट प्लेस जाने का 
मेरा कोई इरादा नहीं था 
वैसे भी टी-हाउस की चाय से 
मुझे एक चुक्कड़ की चाय से उठाती हुई भाप 
ज़्यादा आकृष्ट करती है 

पर सवाल एक उदास बबूल का था 
जिसे मैं बरसों से जानता था 
सोचा, हर्ज़ क्या है 
शायद इस तरह झर जाए उसकी कुछ उदासी 
और हो सकता है कनाट प्लेस भी हो जाए 
थोड़ा और समृद्ध !

पर अब सवाल था 
वह जाएगा कैसे ?
मैंने एक तिपहिया की ओर देखा 
और हो गया उदास 

लेकिन प्रस्ताव तो मैं रख चुका था 
और उधर बबूल था 
कि हवा में फेंके जा रहा था 
अपनी पुरानी पत्तियाँ  
जैसे चलने से पहले 
कपड़े बदल रहा हो !

मेरे अन्दर से आवाज़ आई -
सोचते क्या हो 
जाने दो बबूल को 
अगर जाता है कनाट प्लेस
हर बाज़ार में होना ही चाहिए काँटों से लदा 
एक बबूल का पेड़ 
बाज़ार के स्वास्थ्य के लिए !

और बबूल का स्वास्थ्य !

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था 
शायद कोई उत्तर नहीं था 
किसी के पास भी 

सो, मैंने अपना प्रस्ताव वापस लिया 
और बबूल को छोड़ दिया वहीं 
जहाँ खड़ा था वह 
रास्ते-भर अपनी शर्म को छिपाता हुआ सोचता रहा मैं -
कितनी हास्यास्पद थी मेरी सारी सहानुभूति  
एक बबूल के सामने 
जो अपनी उदासी के बीच भी 
खड़ा था तनकर 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - तालस्ताय और साइकिल 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005 





रविवार, 14 अप्रैल 2013

झील के किनारे (Jheel ke kinare by Dharmvir Bharati)


चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता
जा रहा है !
दूर तक फैली हुई
मासूम धरती की
सुहागन गोद में सोये हुए
नवजात शिशु के नेत्र-सी
इस शान्त नीली झील
के तट पर,
चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता
जा रहा है !
गोकि मेरे पाँव
थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरे हर क़दम पर
मंज़िलें भी हो रही हैं
और मुझसे दूर
हज़ारों पगडण्डियाँ भी
उलझनें बनकर
समायी जा रही हैं
खोखले मस्तिष्क में,
लेकिन,
वह निरन्तर जो कि
चलता आ रहा है साथ
इन सबों से सर्वथा निरपेक्ष
लापरवाह
नीली झील के
इस छोर से
उस छोर तक
एक जादू के सपन-सा
तैरता जाता,
उसे छू
ओस-भीगी 
कमल पंखुरियाँ
सिहर उठतीं,
कटीली लहरियों
को लाज रंग जाती
सिन्दूरी रंग,
पुरइन की नसों में
जागता
अँगड़ाइयाँ लेता
किसी भोरी कुँआरी
जलपरी
के प्यार का सपना !
कमल लतरें
मृणालों की स्नान-शीतल
बाँहें फैलाकर
उभरते फूल-यौवन के
कसे-से बन्द ढीले कर
बदलती करवटें,
इन करवटों की
इन्द्रजाली प्यास में भी
झूम लहराकर
उतरता, डूबता,
पर डूबकर भी
सर्वथा निरपेक्ष
इन सबों के बन्धनों को
चीरकर, झकझोरकर
वह शान्त नीली झील की
गहराइयों से बात करता है,
गोकि मेरा पन्थ उसका पन्थ
उसके क़दम मेरे साथ
किन्तु वह गहराइयों से
बात करता चल रहा है !
सृष्टि के पहले दिवस से
शान्त नीली झील में सोयी हुई गहराइयाँ
जिनकी पलक में
युग-युगों के स्वप्न बन्दी हैं !
पर उसे मालूम है
इन रहस्यात्मक,
गूढ़ स्वप्नों का
सरलतम अर्थ
जिससे हर क़दम
का भाग्य,
वह पहचान जाता है !
इसलिए हालाँकि मेरे पाँव थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरी मंज़िलें भी दूर
किन्तु फिर भी
चल रहा हूँ मैं
कि, कोई और मेरे साथ
नीली झील की
गहराइयों से बात करता चल रहा  है !

कवि - धर्मवीर भारती
संग्रह - कुछ लम्बी कविताएँ 
संकलन - संयोजन - पुष्पा भारती
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1998

कई बार अच्छे-से अच्छे कवियों को पढ़ते समय कुछ बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं पर अटक जाती हूँ, फिर भी वे पसंदीदा बने रहते हैं।


शनिवार, 13 अप्रैल 2013

मैंने सपना देखा (Maine sapna dekha by Bruno K. Öijer)


मैंने सपना देखा 
मैंने सपना देखा कि मुझे चाहा जा रहा है
मैंने सपना देखा कि चन्द्रमा क्षीण होता जा रहा है
मैंने सपना देखा 
उस कोमलता का जिसका पात्र हूँ मैं
मैंने सपना देखा कैसे विलुप्त शब्द मेरे पास लौट आया था
कैसे झूम रहा था मेरे भीतर
और आँसुओं की वर्णमाला की तरह भर आया था
मैंने सपना देखा स्वयं का
मैंने सपना देखा बर्फ़ से ठण्डे अकेलेपन का
मैंने सपना देखा कि अन्तरिक्ष घूम रहा था आकाशचक्र के गिर्द
और मोमबत्ती अब भी टिमटिमा रही थी
बाती के आसपास
एक तीख़ी नीली चमक जो बुझने का नाम नहीं लेती थी
मैंने सपना देखा स्वयं का
मैंने सपना देखा एक ख़ास बालक का
दुनिया की ओर पीठ किये
अपनी आवाज़ के पत्तों के नीचे झूलते हुए मैंने समुद्रपान किया
छायाएँ घिर आयीं मेरे जिस्म के आसपास
मुझे आलिंगन में लेती हुई


स्वीडी कवि - ब्रूनो क. अयर (1951)
स्वीडी से हिन्दी अनुवाद - बिर्गित्ता वॉलीन की मदद से तेजी ग्रोवर 
संकलन - बर्फ़ की खुशबू : स्वीडी कविताएँ 
संपादक - तेजी ग्रोवर, लार्श एण्डर्सन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिली, 2001 

किताब में दिए गए परिचय के मुताबिक़ "ब्रूनो क. अयर ने अपने लेखन की शुरुआत 'स्टेंसिल कवि' के रूप में की ('स्टेंसिल कवि' उन्हें कहा जाता है जिन्होंने स्थापित प्रकाशन गृहों से बाहर रहकर अपनी रचनाएँ स्वयं प्रकाशित कीं और जिन्हें उन प्रकाशन गृहों द्वारा बाद में जगह दी गयी)l"

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

आविष्कार (Avishkar by Kumar Ambuj)


[संध्या के लिये]

     हम धूल के बादलों को पीछे छोड़ आये हैं 
     तूफ़ानों से गुज़रने के निशान नश्वर देह पर हैं 
     हमारे आगे पाँच हज़ार साल हैं अभी 

     दरअसल, अब समय का कोई अर्थ नहीं रह गया है 

     हमारे पास आकाशगंगाएँ हैं 
     और साथ-साथ चलते आने से यह ज़मीन और यह हवा 
     अँधेरे में जब हम एक-दूसरे को छूते हैं 
     तो प्रकाश होता है

     हम चंद्रमा की तरफ़ उस निगाह से देखते हैं 
     जो दाग़ नहीं सुंदरता देखती है

     इस चाँदनी में यह जान लेना कितना अलौकिक है 
     कि तुम लौकिक हो 
     और मैं तुम्हें अनुभव कर सकता हूँ इंद्रियों से l 



कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

गान्धारी (Gandhari by Ajneya)


कितने प्रसन्न रहते आये हैं
युग-युग के धृतराष्ट्र, सोच कर
गान्धारी ने पट्टी बाँधी थी
होने को सुहागिन
     उन के अभाग की l
आह ! देख पाते वे -
मगर यही तो था उन का असली अन्धापन ! -
गान्धारी ने लगातार उन के अन्याय सहे जाने से
अत्याचारों के प्रति उन के
उदासीन स्वीकार भाव के
लगातार साक्षी होने से
अच्छा समझा था अन्धे हो जाना !

वह अन्धापन
नहीं वशंवद
पुरुष मात्र के अन्ध अहं का
उस का तिरस्कार है :
नारी की नकार मुद्रा
ज्वाला ढँकी हुई
यों अनबुझ l


कवि - अज्ञेय
संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

रविवार, 7 अप्रैल 2013

मिट्टी (Mittee by Mathilisharan Gupt)


        मिट्टी, तेरा क्या मोल ?
पड़ी है सबके पैरों तले 
उगाये तूने जो अंकुर भले 
        उन पर क्या वारूँ, बोल !



कवि - मैथिलीशरण गुप्त 
संकलन - स्वस्ति और संकेत 
प्रकाशक - साकेत प्रकाशन, चिरगाँव, झाँसी, द्वितीय संस्करण - 1983