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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

कोई आशिक़ किसी महबूबा से (Koi ashique kisi mahbooba se by Faiz Ahmad Faiz)

गुलशने-याद में गर आज दमे-बादे-सबा 
फिर से चाहे तो गुल-अफ़शाँ हो तो हो जाने दो 
उम्रे-रफ़्ता के किसी ताक़ पे बिसरा हुआ दर्द 
फिर से चाहे कि फ़रोज़ाँ हो तो हो जाने दो 

जैसे बेगाने से अब मिलते हो वैसे ही सही 
आओ दो-चार घड़ी मेरे मुक़ाबिल बैठो 
गरचे मिल बैठेंगे हम तुम तो मुलाक़ात के बाद 
अपना एहसासे-ज़ियाँ और ज़ियादा होगा 
हमसुखन होंगे जो हम दोनों तो हर बात के बीच 
अनकही बात का मौहूम-सा पर्दा होगा 
कोई इक़रार न मैं याद दिलाऊँगा न तुम 
कोई मज़्मून वफ़ा का न ज़फ़ा का होगा 

गर्दे-अय्याम की तहरीर को धोने के लिए 
तुम से गोया हों दमे-दीद जो मेरी पलकें 
तुम जो चाहो वो सुनो 
और जो न चाहो न सुनो 
और जो हर्फ़ करें मुझ से गुरेज़ाँ आँखें 
तुम जो चाहो तो कहो 
और जो न चाहो न कहो 
                            - लंदन, 1978


दमे-बादे-सबा = हवा का झोंका                 गुल-अफ़शाँ= फूल बिखराना 
उम्रे-रफ़्ता = बीती हुई उम्र                        फ़रोज़ाँ = उज्ज्वल, रौशन 
एहसासे-ज़ियाँ = खोने की अनुभूति          हमसुखन = दूसरे से बात करते हुए 
मौहूम = आशंकित, हल्का                       गर्दे-अय्याम = युग 
तहरीर = लिखावट                                  दमे-दीद= देखते समय 
गुरेज़ाँ = बचते हुए  


शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987

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