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रविवार, 26 मई 2013

अन्त नहीं है यह (Ant nahin hai yah by Pranay Kumar)


ख्यालों में अब भी है कुछ 
हरा-भरा-सा 
थोड़ा सपना भी है आँखों में 
बहुत कुछ बाकी है अब भी जहाँ में 
प्यार के काबिल 
फिर क्यों उदास होऊँ मैं भला ! 

अब भी थरथराता है 
नीलकमल आँखों में 
भले ही बारूदी-सी गन्ध हो फिजाओं में 
लेकिन अन्त नहीं है यह 
आएगा कोई खत  
कहीं से लिए थोड़ी-सी हरियाली जरूर 

यह मौसम उदासी के लिए नहीं है 



कवि - प्रणय कुमार 
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

शनिवार, 25 मई 2013

समझौता (Samjhauta by Zehra Nigah)


मुलायम गर्म समझौते की चादर 
ये चादर मैंने बरसों में बुनी है 
कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं 
किसी भी झूठ का टांका नहीं है 

इसी से मैं भी तन ढंक लूंगी अपना 
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे !
न ख़ुश होगे, न पज़मुर्दा रहोगे 

इसी को तान कर बन जायेगा घर 
बिछा लेंगे तो खिल उठेगा आंगन 
उठा लेंगे तो गिर जायेगी चिलमन. 


आसूदा = तृप्त, आश्वस्त        पज़मुर्दा = मुरझाया हुआ, कुम्हलाया हुआ 


शायरा - ज़हरा निगाह 
संकलन - घास तो मुझ जैसी है (पाकिस्तान की विद्रोही स्त्री-कविता)
संकलन व संपादन - शाहिद अनवर 
संपादन सहयोग - हादी सरमदी 
प्रकाशन - संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009

गुरुवार, 23 मई 2013

प्राणपिक (Pranpik by Mahadevi Verma)


प्राणपिक प्रिय-नाम रे कह ! 

मैं मिटी निस्सीम प्रिय में, 
वह गया बँध लघु ह्रदय में 
         अब विरह की रात को तू 
                  चिर मिलन की प्रात रे कह !

दुख-अतिथि का धो चरणतल, 
विश्व रसमय कर रहा जल ; 
          यह नहीं क्रन्दन हठीले ! 
                  सजल पावसमास रे कह ! 

ले गया जिसको लुभा दिन, 
लौटती वह स्वप्न बन बन, 
          है न मेरी नींद, जागृति 
                 का इसे उत्पात रे कह ! 

एक प्रिय-दृग-श्यामला सा, 
दूसरा स्मित की विभा-सा, 
         यह नहीं निशिदिन इन्हें  
                प्रिय का मधुर उपहार रे कह ! 

श्वास से स्पन्दन रहे झर, 
लोचनों से रिस रहा उर ;
         दान क्या प्रिय ने दिया 
               निर्वाण का वरदान रे कह ! 

चल क्षणों का खनिक-संचय, 
बालुका से बिन्दु-परिचय, 
         कह न जीवन तू इसे 
               प्रिय का निठुर उपहार रे कह !


कवयित्री - महादेवी 
संकलन - सन्धिनी
प्रकाशक - लोकभारती, इलाहाबाद, 2005





रविवार, 19 मई 2013

सहाफ़ी से (Sahafi se by Habeeb 'Jalib')


क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल 
फ़िक्रे-तामीरे-मुल्क दिल से निकाल 
तेरा परचम है तेरा दस्ते-सवाल 
बेज़मीरी का और क्या हो मआल !
             अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

सहाफ़ी = पत्रकार              फ़िक्रे-तामीरे-मुल्क = राष्ट्र-निर्माण की चिन्ता 
दस्ते-सवाल = याचना का हाथ        मआल = परिणाम 

तंग कर दे ग़रीब पर ये ज़मीं 
ख़म ही रख आस्ताने-ज़र पे जबीं 
ऐब का दौर है, हुनर का नहीं 
आज हुस्ने-कमाल को है ज़वाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

ख़म = नत                                    आस्ताने-ज़र = धनदौलत के आस्ताने पर 
हुस्ने-कमाल = कौशल का सौन्दर्य      ज़वाल = पतन                          

क्यों यहाँ सुब्हे-नौ की बात चले 
क्यों सितम की सियाह रात ढले 
सब बराबर हैं आसमाँ के तले 
सबको रजअतपसन्द कहकर टाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

सुब्हे-नौ = नई सुब्ह           रजअतपसन्द = प्रतिक्रियावादी 

नाम से पेशतर लगा के अमीर 
हर मुसलमान को बनाके फ़क़ीर 
क़स्रो-ऐवाँ में हो क़यामपज़ीर 
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

पेशतर = पहले        क़स्रो-ऐवाँ में हो क़यामपज़ीर = महलों में निवासकर 
ख़ुत्बों = प्रवचन     उमर = इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा जिनकी सादगी मशहूर है 

आमरीयत की हमनवाई में 
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में 
बादशाहों की रहनुमाई में 
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल 
               अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

आमरीयत = निरंकुशता           हमनवाई = समर्थन 
हमसर = बराबरी का               ख़ुदाई = सृष्टि 

लाख होठों पे दम हमारा हो 
और दिल सुब्ह का सितारा हो 
सामने मौत का नज़ारा हो 
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल 
                अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल ! 





शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

शनिवार, 18 मई 2013

विरहिणी पर व्यंग (Virahini par vyang by Nirala)


(घनाक्षरी)
हार  मन  मार मार  की  बहू ललाट ठोंक 
काजल  बहा  कपोल  कुत्सित किया करें l 
अंचल ? लजी मशालची की लालटेन काली 
नेत्र  जल  से  प्रबल  नासिका  सदा   झरे l 
कल्पना  ललाम  की लगाम थाम कविदल 
मुख तुलना  न  कभी  चन्द्र  के बिना करे l 
चाँद  आइने  में  चारु  चित्र  देख  चुप  वह 
तकिया  सहारे  पड़ी  तारे  ही  गिना  करे l 

[आदर्श, मासिक, कलकत्ता, वर्ष 1, अंक 2-4, पौष-माघ, 1979 (1922ई.)]

कवि - निराला
संग्रह - असंकलित कविताएँ : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला में 
रामविलास शर्मा की 'निराला की साहित्य साधना - 1' से 
संपादक - नन्दकिशोर नवल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1981

शुक्रवार, 17 मई 2013

एक द्युति भर (Ek dyuti bhar by Uday Prakash)


उत्तर में अभी तक था ध्रुव 
क्षितिज में खिंची नहीं थी ज़ाफ़रान की लकीर 

त्वचा को छू रही थी अँधेरे में घुली शीत 
रक्त को हवा में अदृश्य तिरती ओस 

अँधेरा था अभी बाक़ी 
पितर विदा नहीं हुए थे नींद से 
उनके असबाब रखे हुए थे स्वप्न में डूबे पेड़ों के नीचे यहाँ-वहाँ 

एक छोर रात का अंतिम 
अटका रह गया था,
पल-भर को 

एक अंतिम पत्ता किसी अकेले पेड़ का 
नलके की वह आख़िरी बूँद 

ठीक इसी पल 
विहान के तट पर 
अँधेरे में डूबी किरणों की नदी के मुहाने के ठीक पूर्व 
उसने मुझे देखा 

फ़क़त एक पल 
एक निमिष 
सेकेंड के सहस्रांश भर वह कौंध 
एक विद्युत् ...
...द्युति ...एक 

उसने देखा बस एक आँख भर 
जैसा वही देख सकती थी 
मेरी आँख के भीतर 
मेरी आत्मा के पार 
आर-पार 
...मेरे अतल तक 

मैं हार बैठा हूँ अपना जीवन ...
जो पहले से ही एक हारा-थका जीवन था 
अपनी वंचनाओं में चुपचाप ...




कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - एक भाषा हुआ करती है 
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2009 

गुरुवार, 16 मई 2013

लत्ते उड़ जायेंगे (Latte ud jayeinge by Maithilisharan Gupt)


तड़क भड़क और कड़क मिटेगी सब 
गर्व और गौरव सभी ये गुड़ जायेंगे 
गाज न गिराओ ओ घमण्डी घनो, मानो कहा 
काले मुँह आप ही तुम्हारे मुड़ जायेंगे 
मातृमूर्ति मेदिनी को सीधे जलदान करो 
झोंके झूम झंझा के जहाँ वे जुड़ जायेंगे 
पत्ते उड़ जायेंगे तुम्हारे घटाडम्बर के 
याद रक्खो अम्बर के लत्ते उड़ जायेंगे !



कवि - मैथिलीशरण गुप्त 
संकलन - स्वस्ति और संकेत 
प्रकाशक - साकेत प्रकाशन, चिरगाँव, झाँसी, 1983

बुधवार, 15 मई 2013

गामा और लामा (Gama aur Lama by Rakesh Ranjan)


गामा आए गाम पर !

जन-गण जय-जयकार मचाते 
भारत-भाग्य-विधाता गाते 
पत्रकारगण धाते आते 
फोकस देते चाम पर !

लामा उतरे लाम पर ! 

हन-हन-हन हथियार चलाते  
विरोधियों के किले ढहाते 
ह्त्या करते, खून बहाते 
धरम-करम के नाम पर ! 

लहू दामनेदाम पर !
लहू दामनेबाम पर !
कवि-कोकिल-कुल चाय चुसकते 
कविता करते शाम पर ! 



कवि - राकेश रंजन
संकलन - अभी-अभी जनमा है कवि 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2007

सोमवार, 13 मई 2013

रणनीति (Ranniti by Dhoomil)


भाषा और हवा में एक नाटक चल रहा है 
सालों और दिनों से दूर  

लेकिन पहली बार 
भाषा का पलड़ा भारी पड़ रहा है 
आदमी ने अपने दाँत उसके साथ  
कर दिए हैं l 

मैं भागता नहीं, सिर्फ 
मैं अपना चेहरा बाहर निकाल कर 
हवा में, एक गोल दायरा छोड़ देता हूँ 
बन्द, हत्यारे की बन्दूक दगती है 

दीवार में एक चेहरा बन जाता है  
और आततायी चौंक पड़ता है 
सुनकर  ठीक अपने पीछे 
दीवार की दूसरी ओर से आता हुआ 
मेरा उद्दाम अट्टहास l 

सहसा दूसरी बार 
मैं एक खोमचे में चला जाता हूँ 
और आखिरी बार -
चोली में 
छिपा चला जा रहा हूँ l 

किताबों का झूठ खोल कर  
बैठी रहती हैं वहाँ लड़कियाँ 
उनके बालों में रात 
गिरती रहती है 

कुहरे और नींद से बाहर 
एक सपना कुतरता है 
दूसरे सपने का जिस्म,
भाषा की हदों से 
जुड़ा हुआ मौन 
पिछले किस्से सुनाता है l 



कवि - धूमिल 
संकलन - सुदामा पाँड़े का प्रजातंत्र 

संपादन एवं संकलन - रत्नशंकर 

प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001

रविवार, 12 मई 2013

एक्ला चलो (Ekla chalo by Rabindranath Tagore)


यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे
          तबे एक्ला चलो रे l
एक्ला चलो, एक्ला चलो,
             एक्ला चलो रे ll
यदि केउ कथा ना कय –
      (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि सबाइ थाके मुख फिराये,
      सबाइ करे भय –
             तबे पराण खुले,
ओ तुइ मुख फुटे तोर मनेर कथा,
              एक्ला बलो रे ll
यदि सबाइ फिरे जाय –
       (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि गहन पथे जाबार काले
       केउ फिरे ना चाय –
              तबे पथेर काँटा
ओ तुइ रक्तमाखा चरण तले
              एक्ला दलो रे ll
यदि आलो ना घरे –
       (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि झड़ बादले आँधार राते
       दुयार देय घरे –
तबे बज्रानले
आपन बुकेर पांजर ज्वालिये निये
             एक्ला ज्वलो रे ll
यदि तोर डाक शुने कोउ न आसे,
           तबे एक्ला चलो रे l
एक्ला चलो, एक्ला चलो,
              एक्ला चलो रे ll 

"यदि तेरी पुकार सुनकर कोई न आये तो तू अकेला ही चल पड़ l अरे ओ अभागा, यदि तुझसे कोई बात न करे, यदि सभी मुँह फिरा लें, सब (तेरी पुकार से) डर जायें तो तू प्राण खोलकर अपने मन की वाणी अकेला ही बोल l अरे ओ अभागा, यदि सभी लौट जायें, यदि कठिन मार्ग पर चलते समय तेरी ओर कोई फिरकर भी न देखे तो तू अपने रास्ते के काँटों को अपने खून से लथपथ चरणों द्वारा अकेला ही रौंदता हुआ आगे बढ़ l अरे ओ अभागा, यदि तेरी मशाल न जले और आँधी-तूफ़ान और बादलों से भरी रात में (तुझे देखकर) सब लोग दरवाजा बन्द कर लें तो फिर अपने को जलाकर तू अकेला ही ह्रदय-पंजर जला l यदि तेरी पुकार सुनकर कोई तेरे पास न आये तो फिर अकेला ही चलता चल, अकेला ही चलता चल l"

कवि - रवीन्द्रनाथ ठाकुर 
किताब - हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, खण्ड 8 में संकलित 'मृत्युंजय रवीन्द्र' से 
सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1981

शुक्रवार, 10 मई 2013

लू (Loo by Trilochan)


पीपल के  पत्ते  ने ज्यों मुँह खोला खोला
त्यों चटाक से लगा तमाचा आ कर लू का,
झेल गया वह भी आखिर बच्चा था भू का l 
लेकिन जिस ने देखा उस का धीरज डोला,
बैठ कलेजा गया l तड़प कर कोकिल बोला 
कू  ऊ  कू  ऊ  मिले  भले  ही  आधा  टूका  
लेकिन ऐसा न हो l राह  चलते  जो  चूका 
उस को दुख ने अदल बदल कर फिर फिर तोला l 

सब को नहीं, नौनिहालों को अगर बचा दे 
तो लू  का डर  नहीं, जहाँ  चाहे  आ  जाए,
लू  लपटों  में  मिट्टी  पक्की  हो  जाती  है 
चाहे  जिस  तरंग से  जग  के खेल रचा दे 
क़सम जवानी  की  यदि  मैं ने पाँव हटाए 
छाती  हारों  के  प्रहार  सहती  जाती  है l 



कवि - त्रिलोचन 

संकलन - फूल नाम है एक 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1985

बुधवार, 8 मई 2013

इत्र-मिलन (Itra-milan by Nagarjun)


इत्र-मिलन 
मित्र-मिलन 
चित्र-मिलन 
पवित्र-मिलन 
हुँ, हुँ, अ-पवित्र-मिलन 
चरित्र-मिलन ?

जी हाँ, सब-कुछ ...
दुश्चरित्र-मिलन 
थोड़ा-बहुत 
सच्चरित्र-मिलन 
कुल मिलाकर 
इत्र - मिलन l 



कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

मंगलवार, 7 मई 2013

इस शाम (Is shaam by Ibne Insha)


इस शाम वो रुखसत का समाँ याद रहेगा 
वो शहर, वो कूचा, वो मकाँ  याद रहेगा 

वो टीस  कि उभरी थी इधर  याद  रहेगा 
वो  दर्द  कि   उट्ठा था  यहाँ  याद  रहेगा 

हम शौक़ के शोले की लपक भूल भी जाएँ 
वो  शम्मा - फ़सुर्दा  का  धुआँ   याद रहेगा 

हाँ बज़्मे-शबाना में हमाशौक़ जो उस दिन 
हम  थे  तेरी  जानिब  निगराँ  याद  रहेगा 

कुछ 'मीर' के अबियात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे 
इक  दर्द  का  था  जिनमें  बयाँ,  याद रहेगा 

आँखों  में  सुलगती हुई वहशत  के  जलू में 
वो   हैरतो - हसरत  का  जहाँ  याद रहेगा 

जाँबख़्श - सी उस बर्गे - गुलेतर की तरावत 
वो  लम्से - अज़ीज़े -  दो  जहाँ   याद  रहेगा 

हम   भूल   सके   हैं   न   तुझे   भूल   सकेंगे 
तू    याद   रहेगा    हमें    हाँ    याद  रहेगा  



शम्मा - फ़सुर्दा = बुझता हुआ दिया        बज़्मे-शबाना =  रात की महफ़िल 
हमाशौक़ = शौक़ के साथ                      निगराँ = देखनेवाले 
अबियात = शे'र                                   मिसरे = कविता की पंक्तियाँ 
जलू = जलावतनी                                बर्गे - गुलेतर = टटके फूल की पंखुड़ी 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990


रविवार, 5 मई 2013

मच्छर (Machchhar by Dinkar)


मच्छर खफीफ जानवर है l 
मगर, वह खूब जानता है 
कि वह शिकारी है l 

वह दूसरों का लहू पीता है l 
एक जीव दूसरे के रक्त पर जीता है l 

मगर, इंसाफ की बात कहनी हो 
तो यह कहना चाहिए 
कि जितने से पेट भरे,
उतना ही खून वह चखता है l 
और आदमियों के बदन से लहू चूसकर 
वह बैंक में नहीं रखता है l 



कवि - रामधारी सिंह दिनकर 
संकलन - आत्मा की आँखें 
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, दूसरा संस्करण - 1996

शुक्रवार, 3 मई 2013

तिल्लीसिं (Tillisin by Ramnaresh Tripathi)


पहने धोती कुरता झिल्ली,
       गमछे से लटकाये किल्ली ll 
कसकर अपनी घोड़ी लिल्ली,
      तिल्लीसिं जा पहुंचे दिल्ली ll 
पहले मिले शेखजी चिल्ली,
      उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली ll 
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली,
      तिल्लीसिं ने पाली पिल्ली ll 
पिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली,
       उसने धर दबोच दी बिल्ली ll 
मरी देखकर अपनी बिल्ली,
       गुस्से से झुंझलाया चिल्ली ll 
लेकर लाठी एक गठिल्ली,
       उसे मारने दौड़ा चिल्ली ll 
लाठी देख डर गया तिल्ली,
        तुरंत हो गई धोती ढिल्ली ll 
कसकर झटपट घोड़ी लिल्ली,
        तिल्लीसिं ने छोड़ी दिल्ली ll 
हल्ला हुआ गली दर गल्ली,
        तिल्लीसिं ने जीती दिल्ली ll 





कवि - रामनरेश त्रिपाठी 
संकलन - महके सारी गली गली (बाल-कविताएं)
संपादक - निरंकार देव सेवक, कृष्ण कुमार 
प्रकाशक - नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, पहला संस्करण, 1996

गुरुवार, 2 मई 2013

एक तिनका (Ek tinka by Ayodhya Singh Upadhyaay 'Hariaudh')


मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा l 
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा l 

            मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
            लाल होकर आँख भी दुखने लगी l 
            मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
            ऐंठ बेचारी दबे पाँव भगी l 

                             जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
                             तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए l 
                             ऐंठता तू किसलिए  रहा,
                             एक तिनका है बहुत तेरे लिए l 




कवि - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बुधवार, 1 मई 2013

शुद्ध-बुद्ध (Shuddh-buddh by Sarveshvar Dayal Saxena)


शुद्ध हवा औ' पानी शुद्ध
खा-पी बन गये गौतम बुद्ध l 
बोले - 'सभी प्रेम से रहो 
नहीं चाहिये हमको युद्ध !'
किन्तु मिलावट का घी खा 
हम सबने यह ही सीखा 
बात-बात पर होना क्रुद्ध 
बात-बात पर करना युद्ध l 
शुद्ध हवा दो पानी शुद्ध 
हम भी बन जाएं गौतम बुद्ध l 




कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - महके सारी गली गली (बाल-कविताएं)
संपादक - निरंकार देव सेवक, कृष्ण कुमार 
प्रकाशक - नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, पहला संस्करण, 1996