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मंगलवार, 7 मई 2013

इस शाम (Is shaam by Ibne Insha)


इस शाम वो रुखसत का समाँ याद रहेगा 
वो शहर, वो कूचा, वो मकाँ  याद रहेगा 

वो टीस  कि उभरी थी इधर  याद  रहेगा 
वो  दर्द  कि   उट्ठा था  यहाँ  याद  रहेगा 

हम शौक़ के शोले की लपक भूल भी जाएँ 
वो  शम्मा - फ़सुर्दा  का  धुआँ   याद रहेगा 

हाँ बज़्मे-शबाना में हमाशौक़ जो उस दिन 
हम  थे  तेरी  जानिब  निगराँ  याद  रहेगा 

कुछ 'मीर' के अबियात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे 
इक  दर्द  का  था  जिनमें  बयाँ,  याद रहेगा 

आँखों  में  सुलगती हुई वहशत  के  जलू में 
वो   हैरतो - हसरत  का  जहाँ  याद रहेगा 

जाँबख़्श - सी उस बर्गे - गुलेतर की तरावत 
वो  लम्से - अज़ीज़े -  दो  जहाँ   याद  रहेगा 

हम   भूल   सके   हैं   न   तुझे   भूल   सकेंगे 
तू    याद   रहेगा    हमें    हाँ    याद  रहेगा  



शम्मा - फ़सुर्दा = बुझता हुआ दिया        बज़्मे-शबाना =  रात की महफ़िल 
हमाशौक़ = शौक़ के साथ                      निगराँ = देखनेवाले 
अबियात = शे'र                                   मिसरे = कविता की पंक्तियाँ 
जलू = जलावतनी                                बर्गे - गुलेतर = टटके फूल की पंखुड़ी 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990


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