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गुरुवार, 23 मई 2013

प्राणपिक (Pranpik by Mahadevi Verma)


प्राणपिक प्रिय-नाम रे कह ! 

मैं मिटी निस्सीम प्रिय में, 
वह गया बँध लघु ह्रदय में 
         अब विरह की रात को तू 
                  चिर मिलन की प्रात रे कह !

दुख-अतिथि का धो चरणतल, 
विश्व रसमय कर रहा जल ; 
          यह नहीं क्रन्दन हठीले ! 
                  सजल पावसमास रे कह ! 

ले गया जिसको लुभा दिन, 
लौटती वह स्वप्न बन बन, 
          है न मेरी नींद, जागृति 
                 का इसे उत्पात रे कह ! 

एक प्रिय-दृग-श्यामला सा, 
दूसरा स्मित की विभा-सा, 
         यह नहीं निशिदिन इन्हें  
                प्रिय का मधुर उपहार रे कह ! 

श्वास से स्पन्दन रहे झर, 
लोचनों से रिस रहा उर ;
         दान क्या प्रिय ने दिया 
               निर्वाण का वरदान रे कह ! 

चल क्षणों का खनिक-संचय, 
बालुका से बिन्दु-परिचय, 
         कह न जीवन तू इसे 
               प्रिय का निठुर उपहार रे कह !


कवयित्री - महादेवी 
संकलन - सन्धिनी
प्रकाशक - लोकभारती, इलाहाबाद, 2005





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