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रविवार, 19 मई 2013

सहाफ़ी से (Sahafi se by Habeeb 'Jalib')


क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल 
फ़िक्रे-तामीरे-मुल्क दिल से निकाल 
तेरा परचम है तेरा दस्ते-सवाल 
बेज़मीरी का और क्या हो मआल !
             अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

सहाफ़ी = पत्रकार              फ़िक्रे-तामीरे-मुल्क = राष्ट्र-निर्माण की चिन्ता 
दस्ते-सवाल = याचना का हाथ        मआल = परिणाम 

तंग कर दे ग़रीब पर ये ज़मीं 
ख़म ही रख आस्ताने-ज़र पे जबीं 
ऐब का दौर है, हुनर का नहीं 
आज हुस्ने-कमाल को है ज़वाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

ख़म = नत                                    आस्ताने-ज़र = धनदौलत के आस्ताने पर 
हुस्ने-कमाल = कौशल का सौन्दर्य      ज़वाल = पतन                          

क्यों यहाँ सुब्हे-नौ की बात चले 
क्यों सितम की सियाह रात ढले 
सब बराबर हैं आसमाँ के तले 
सबको रजअतपसन्द कहकर टाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

सुब्हे-नौ = नई सुब्ह           रजअतपसन्द = प्रतिक्रियावादी 

नाम से पेशतर लगा के अमीर 
हर मुसलमान को बनाके फ़क़ीर 
क़स्रो-ऐवाँ में हो क़यामपज़ीर 
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल 
              अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

पेशतर = पहले        क़स्रो-ऐवाँ में हो क़यामपज़ीर = महलों में निवासकर 
ख़ुत्बों = प्रवचन     उमर = इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा जिनकी सादगी मशहूर है 

आमरीयत की हमनवाई में 
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में 
बादशाहों की रहनुमाई में 
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल 
               अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल !

आमरीयत = निरंकुशता           हमनवाई = समर्थन 
हमसर = बराबरी का               ख़ुदाई = सृष्टि 

लाख होठों पे दम हमारा हो 
और दिल सुब्ह का सितारा हो 
सामने मौत का नज़ारा हो 
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल 
                अब क़लम से इज़ारबन्द ही डाल ! 





शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

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