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रविवार, 28 जुलाई 2013

ग़ज़ल (Ghazal by 'Akhtar' Sheerani)

वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए !
रात-दिन सूरत को देखा कीजिए 
चाँदनी रातों में इक-इक फूल को 
बेख़ुदी कहती है : सज्दा कीजिए 
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर 
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिए ! 
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर 
चाँदनी रातों में रोया कीजिए 
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो 
बेख़ुदी, तू ही बता क्या कीजिए ! 
हम ही उसके इश्क़ के क़ाबिल न थे 
क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए ! 
आप ही ने दर्दे-दिल बख़्शा हमें 
आप ही इसका मुदावा कीजिए 
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुनकर मेरे शे'र 
इस तरह हमको न रुसवा कीजिए ! 
 
बर न आए = पूरी न हो           मुदावा = इलाज 
 
शायर - 'अख़्तर' शीरानी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी

संपादक - नरेश 'नदीम'

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

शनिवार, 27 जुलाई 2013

शब्द (Words by Mahmoud Darwish)


मेरे शब्द जब गेहूँ थे
मैं था धरती.
मेरे शब्द जब रोष थे
मैं था तूफ़ान.
मेरे शब्द जब चट्टान थे
मैं था नदी.
जब मेरे शब्द बन गए शहद
मक्खियों ने मेरे होंठ ढँक लिए.
          
 
फिलिस्तीनी कवि - महमूद दरवेश
संग्रह - जॉन बर्जर की किताब 'होल्ड एवरीथिंग डियर' में उद्धृत 
प्रकाशक - वर्सो, लंडन-न्यू यॉर्क2007

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद

शनिवार, 20 जुलाई 2013

तेरी गली के लोग (Teri gali ke log by Habeeb 'Jalib')



तू रंग है, ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग
तू फूल है, शरार हैं तेरी गली के लोग
शरार = चिंगारी 

तू रौनके-हयात है, तू हुस्ने कायनात
उजड़ा हुआ दयार हैं तेरी गली के लोग
रौनके-हयात = जीवन की रौनक

हुस्ने कायनात = सृष्टि का सौन्दर्य

तू पैकरे-वफ़ा है, मुजस्सम ख़ुलूस है
बदनामे-रोज़गार हैं तेरी गली के लोग
पैकरे-वफ़ा = वफ़ा की साकार मूर्ति

बदनामे-रोज़गार = दुनिया भर में बदनाम

रौशन तेरे जमाल से हैं मेह्रो-माह भी
लेकिन नज़र पे बार हैं तेरी गली के लोग
मेह्रो-माह = सूरज-चाँद    बार = बोझ

देखो जो गौर से तो ज़मीं से भी पस्त हैं
यूँ आसमाँ-शिकार हैं तेरी गली के लोग

फिर जा रहा हूँ तेरे तबस्सुम को लूट कर
हरचंद होशियार हैं तेरी गली के लोग
तबस्सुम = मुस्कान   हरचंद = हालाँकि    

खो जाएँगे सेहर के उजालों में आख़िरश
शमए-सरे-मज़ार हैं तेरी गली के लोग
सेहर = सुबह    आख़िरश = आख़िरकार

शमए-सारे-मज़ार = क़ब्र पर जल रही शमा

शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

वजन (Vajan by Gyanendrapati)

यह जो
वजन तोलने की मशीन बैठी है
राह किनारे
'वजन जानें' का बड़ा-सा हस्तलिखित शीर्षक
                      गत्ते के एक टुकड़े पर लगाए
ऊँकड़ू बैठे एक बाबा के
पंजों के ऐन सामने
शरीर के वजन से नहीं
सिक्के के वजन से
हिलेगी इसकी सुई
जबकि वह सिक्का
एक बहुत हल्का सिक्का होगा
शरीर से पसीने की एक बूँद की तरह
राह चलते अलग हो जाने वाला

उस नन्हे सिक्के के वजन से
हिलेगी इसकी सुई
और शरीर का वजन बताएगी
शरीर का वजन
आदमी का नहीं
क्योंकि उसमें
शरीर का सुख-भार-भर शामिल होगा, मन का दुख-भार नहीं 


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

झिलमिल तारे (Jhilmil taare by Subhadra Kumari Chauhan)

कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं झिलमिल-झिलमिल तारे ?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम चमक रहे मन मारे ll
अपलक आँखों से कह दो किस ओर निहारा करते ?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी मुक्तावलि वारा करते ?
करते हो अमिट प्रतीक्षा, तुम कभी न विचलित होते l 
नीरव रजनी अंचल में तुम कभी न छिप कर सोते ll 
जब निशा प्रिया से मिलने, दिनकर निवेश में जाते l 
नभ के सूने आँगन में तुम धीरे-धीरे जाते ll 
विधुरा से कह दो मन की, लज्जा की जाली खोलो l 
क्या तुम भी विरह विकल हो, हे तारे कुछ तो बोलो ll 
मैं भी वियोगिनी मुझसे फिर कैसी लज्जा प्यारे ?
कह दो अपनी बीती को हे झिलमिल-झिलमिल तारे !



कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान
संग्रह - मुकुल तथा अन्य कविताएँ
प्रकाशन - हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1980

बुधवार, 17 जुलाई 2013

बरबते-शिकस्ता (Barabate-shikasta by Majaz)

उसने जब कहा मुझसे गीत इक सुना दो ना 
सर्द है फ़िज़ा दिल की, आग तुम लगा दो ना 
क्या हसीन तेवर थे, क्या लतीफ़ लहजा था 
आरज़ू थी, हसरत थी, हुक्म थी, तक़ाज़ा था 
गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैंने 
छेड़ ही दिया आख़िर नग्म-ए-वफ़ा मैंने 
यास का धुआँ उट्ठा, हर नवा-ए-ख़स्ता से 
आह  की सदा निकली बरबते-शिकस्ता से 

लतीफ़ = कोमल        यास = निराशा 
नवा-ए-ख़स्ता = दुख भरा गीत  
बरबते-शिकस्ता = टूटा बरबत (एक वाद्ययंत्र)
शायर - 'मजाज़' लखनवी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी   
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

सोमवार, 15 जुलाई 2013

युअर हाइनेस (Your Highness by 'Akhtar' Sheerani)

मैं जब कमसिन था और तू अपने सीने लगाती थी 
तिरी हँसती हुई नज़रों से मुझको शर्म आती थी 
कमसिन = कम उम्र 

मचलता था मैं तेरी गोद से बाहर निकलने को 
मगर तू इक अदा-ए-मुतमइन से मुस्कुराती थी
अदा-ए-मुतमइन = इत्मीनान की अदा  

तिरे वो गीत अब तक गूँजते हैं मेरे कानों में 
जिन्हें मेरे लिए गाती थी तू और गुनगुनाती थी 

समझता था बहुत कम मतलब उन गीतों का मैं लेकिन 
तिरी उस शोख़ि-ए-गोया से मुझको शर्म आती थी
शोख़ि-ए-गोया = बोलती हुई शोख़ी 

तिरा वो मख़मली बिस्तर अभी तक याद है मुझ को 
मुझे सर्दी के डर से जिसमें तू अकसर सुलाती थी 

वो बिस्तर, यासमीं बिस्तर, सरासर अंबरीं बिस्तर 
महक से जिनकी हूराने-जिनाँ को नींद आती थी 
यासमीं = चमेली जैसी     अंबरीं = ख़ुशबूदार                               हूराने-जिनाँ = स्वर्ग की अप्सराओं   

मैं सो जाता था जब रंगीं दुलाई ओढ़कर तेरी 
तू अपने मरमरीं हाथों से मुझको गुदगुदाती थी 
मरमरीं = संगमरमर     

वो तेरी ख़्वाबगह के नीलगूँ अबरेशमीं पर्दे 
सरे-शाम आके नरगिस जिनको चुपके से गिराती थी
ख़्वाबगह = शयन कक्ष      नीलगूँ = नीले रंग के                                अबरेशमीं = रेशमी  
                                 
दिमाग़ अब तक मुअत्तर है तिरी मस्ताना ख़ुशबू से 
तिरे गजरे की कलियों को भी जो बेखुद बनाती थी 
मुअत्तर = सुगन्धित     

तिरा मुश्कीं तनफ़्फ़ुस बस रहा है अब भी होटों में 
असर से जिसके इक लरज़िश सी दिल में तैर जाती थी
तनफ़्फ़ुस = महकती साँस     लरज़िश = कम्पन  
                               
तिरी रंगीं जवानी नक़्श है अब तक मिरे दिल पर 
जो तेरे फूल से पैकर के अन्दर लहलहाती थी
पैकर = काया     

तिरी वो महफ़िलें आबाद हैं अब तक तसव्वर में 
तू जिनमें अपनी गुड़िया से मिरी शादी रचाती थी
तसव्वर = कल्पना   

तिरी आँखें, वो शोख़ आँखें नहीं भूलीं अभी मुझको 
की जिनमें इक रसीली मुस्कुराहट झिलमिलाती थी 

मगर ऐ शाहज़ादी, आज कुछ तुझको ख़बर भी है 
कि वो कमसिन जिसे तू अपने सीने से लगाती थी 

वो शायर है कि दुनिया में कहानी उसकी रुसवा है 
वो रुसवा, उसका दिल रुसवा, जवानी उसकी रुसवा है !
रुसवा = बदनाम


शायर - 'अख़्तर' शीरानी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी

संपादक - नरेश 'नदीम'

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

शनिवार, 13 जुलाई 2013

साँझ के सारस (Sanjh ke saaras by Ajneya)

घिर रही है साँझ 
हो रहा अब समय 
घर कर ले उदासी l 

तौल अपने पंख, सारस दूर के 
इस देश में तू है प्रवासी l 

रात ! तारे हों न हों 
रवहीनता को सघनतर कर दे अँधेरा 
तू अदीन, लिये हिये में 
चित्र ज्योति प्रकाश का 
करना जहाँ तुझ को सवेरा l 

थिर गयी जो लहर, वह सो जाय 
तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाय 
मेघ, मरू, मारुत, मरुण अब आय जो सो आय !

कर नमन बीते दिवस को, धीर !
दे उसी को सौंप 
यह अवसाद का लघु पल 
निकल चल ! सारस अकेले !


कवि - अज्ञेय संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986


शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

चाँदनी (Chandanee by Ramvilas Sharma)

चाँदी की झीनी चादर-सी 
         फैली है वन पर चाँदनी l 
चाँदी का झूठा पानी है 
         यह माह-पूस की चाँदनी l 
खेतों पर ओस-भरा कुहरा,
         कुहरे पर भीगी चाँदनी ;
आँखों में बादल-से आँसू,
          हँसती है उन पर चाँदनी l 
दुख की दुनिया पर बुनती है 
          माया के सपने चाँदनी l 
मीठी  मुसकान बिछाती है 
          भीगी पलकों पर चाँदनी l 
लोहे की हथकड़ियों-सा दुख,
           सपनों-सी झूठी चाँदनी ;
लोहे से दुख को काटे क्या 
            सपनों-सी मीठी चाँदनी l 
यह चाँद चुरा कर लाया है 
            सूरज से अपनी चाँदनी l 
सूरज निकला, अब चाँद कहाँ ?
             छिप गयी लाज से चाँदनी l 
दुख और कर्म का यह जीवन,
              वह चार दिनों की चाँदनी l 
यह कर्म-सूर्य की ज्योति अमर,
              वह अन्धकार की चाँदनी l 


कवि - रामविलास शर्मा 
संकलन - तार सप्तक
संकलनकर्ता और संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक -  भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पहला संस्करण - 1963

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ (Padhi-likhi murgiyan by Sarveshvar Dayal Saxena)

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता  नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

साहस  है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी 
जोड़ रहे बैठ मियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

संकलन - कविताएँ-2 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978


रविवार, 7 जुलाई 2013

इच्छा (Ichchha by Trilochan)

सर दर्द क्या है 

मुझे इच्छा थी 
तुम्हारे इन हाथों का स्पर्श 
कुछ और मिले 

और 
इन आँखों के 
करुण प्रकाश में 
नहाता रहूँ 

और 
साँसों की अधीरता भी 
                 कानों सुनूँ 

बिलकुल यही इच्छा थी 
सर दर्द क्या है .


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - चैती 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1987 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

चाँद भरोसे की चीज़ नहीं (Chand bharose ki cheez nahin by Rajesh Joshi)


इस चाँद के हँसिये  से सब्जी मत काटो 
बहुत तेज है इसकी धार 
जरा नज़र चूकी तो उँगली कट जाएगी 

उँगली कट जाएगी तो 
तुम्हारे  खून के कतरे 
आसमान पर टपकेंगे 

इस चाँद के चूड़े को जूड़े में मत खोंसो 
बहुत तेज है इसकी मार 
मन में उठेगा ऐसा ज्वार 
लहर बहाकर ले जाएगी कहीं 
और रेत पर तुम्हारे पाँव के निशान 
तुम्हें ढूँढेंगे 
 
चाँद भरोसे की चीज़ नहीं !
                       -24.12.04


कवि - राजेश जोशी 
संकलन - चाँद की वर्तनी 
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

महानता का पक्ष (Mahanata ka paksh by Apoorvanand)


प्रत्येक समाज में  ऐसा समय आता है जब वह महानता से घबराने लगता है। क्षुद्रता की प्रतिष्ठा और महानता की अवज्ञा या अवहेलना की जाने लगती है।  महान या उदात्त उसे अपनी पहुँच के बाहर लगने लगता है और वह उसके विरूद्ध हमलावर हो जाता है।  यह भी कहा जाने लगता है कि महानता का विचार मात्र मिथ्या है। तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि महानता या उदात्तता साधारणता की विरोधी अवस्था या अवधारणा है और वर्चस्वशाली वर्गों के अपने आधिपत्य को बनाए रखने के सांस्कृतिक षड्यंत्र का एक अंग है। सारी प्रतिमाओं को ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए और साधारण को प्रतिष्ठित कर दिया जाना चाहिए। 

महानता के बारे में यह विचार है कि उसकी परीक्षा काल करता है. अपने समय में छाए रहना महानता को सिद्ध नहीं करता। असली इम्तहान, किसी विचार या व्यक्ति का,उसके अपने भौतिक समय के बीत जाने के बाद ही हो पाता है। उसके साथ ही उसकी दूसरी कसौटी यह है कि  वह प्रकटतः जिस समुदाय, धर्म या वर्ग में जन्म लेता है, सिर्फ उसी की सीमा में बंध कर नहीं रह जाता। उसकी अपील न सिर्फ कालातीत होती है बल्कि उसमें एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी होती है. वह स्वयं को जन्म देने वाले सांस्कृतिक सन्दर्भों से स्वतंत्र हो जाता है

महानता या उदात्तता, जिनको यहाँ लगभग समानार्थी माना जा रहा है, रोजमर्रापन की भर्त्सना नहीं करती. लेकिन वह उसी को मनुष्यता को परिभाषित करने का अधिकार देने से इनकार करती है. चाहें तो कह सकते हैं कि वह रोजमर्रापन के साथ एक तनाव की स्थिति में होती है. वह अपनी प्रेरणा उसी से ग्रहण कर सकती है लेकिन उसके परे जाने को उद्यत रहती है

महानता की एक परीक्षा यह  भी है कि उसकी प्रतिष्ठा या रक्षा सत्ता के संसाधनों के सहारे नहीं की जाती। वह किसी विज्ञापन की मुहताज भी नहीं होती। अदृश्य रह कर भी वह समाज के अवचेतन में कहीं सक्रिय बनी रहती है। ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है वह प्रासंगिक नहीं रह गई और फिर कभी नहीं लौटेगी क्योंकि उसे संरक्षण देने वाला कोई नहीं दिखाई पड़ता। फिर भी शताब्दियों  के बाद वह उभर आ सकती है।  

जब हम महानता को इस प्रकार समझने की कोशिश कर रहे हैं तो इसकी सम्भावना है कि बुद्ध भी महान हो और हिटलर भी। ऊपर  की शर्तें  दोनों के ही प्रसंग में पूरी होती हैं।  फिर महानता की एक कसौटी यह भी होगी कि वह मानवता और प्रकृति मात्र के लिए कल्याणकारी है या नहीं। हिटलर या स्टालिन को ताकतवर कहा जा सकता है पर उन्हें महान कहने में हमें  संकोच होगा। 

महान व्यक्ति,विचार या रचना की एक पहचान यह है कि हम सब उसकी अपेक्षा स्वयं को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। यह  सम्बन्ध हमेशा स्वीकार का ही हो , आवश्यक नहीं। अस्वीकार या आलोचना भी उसके साथ संबंध निर्माण का जरिया या तरीका  हो सकता है. महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने  कार्यों , विचार के तरीकों  और जीवन शैली को उसके मुकाबले तौलते रहते हैं। दूसरे शब्दों में वह मानक या मानदंड की भूमिका का निर्वाह करता है और अपनी जांच करते रहने के लिए बाध्य करता है

महानता की एक और पहचान यह है कि वह मात्र एक प्रकार की ही परम्परा को जन्म नहीं देती। उसमें एक खुलापन और लचीलापन होता है और इसीलिए उसके वारिस एक ही तरह के नहीं होते।  संभव है कि उसकी विरासत का दावा करनेवाले एक- दूसरे के  विरोधी हों। तात्पर्य यह कि उसमें  बहुविध व्याख्या की संभावना होती है। अनेक कोणों  से उसे देखा जा सकता है। कोई  भी अंतिम तौर पर दावा नहीं कर सकता कि  उसने उसकी सारी संभावनाएं अपनी व्याख्या के द्वारा शेष कर दी हैं। यह भी उतना ही ठीक है कि इस लचीलेपन के साथ उसमें  प्रकार की दृढ़ता होती है और वह इसकी नहीं देती कि उसकी मनमानी व्याख्या की जा सके. दूसरे शब्दों में, उसका लचीलापन उसके अवसरवादी इस्तेमाल की अनुमति नहीं देता. ऐसा  करने वाले  ही उसके  सामने उघाड़ हो जाते हैं , यानी उसके दर्पण में आप उनका असली चेहरा देख सकते हैं, जिसे छिपाने के लिए उस महानता का मुखौटा पहनने की  वे कोशिश  कर रहे होते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक महानता का अपना एक मौलिक और बुनियादी मूल्य अथवा सन्देश  होता है, जिसे विकृत करना संभव नहीं। 

महानता या उदात्तता में एक गलतफहमी यह है कि  वह जन्मजात या दैवी गुण है. लोञ्जाइनस सावधान करते हुए लिखता है कि यह ठीक है कि यह सायास हासिल  नहीं की जा सकती लेकिन अभ्यास से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है. उदात्त विचारों या गुणों का निरंतर अभ्यास न किया जाए तो उनके लिए  आवश्यक  ग्राह्यता घटने लगती है. लम्बे समय तक क्षुद्र भाषा के अभ्यस्त कानों को  उच्च भावों से युक्त विचार हास्यास्पद भी जान पड़ सकते हैं। इस हिसाब से महानता दुस्साध्य है। उसे उपलब्ध करना जितना कठिन है, उसे पहचानना भी उतना ही मुश्किल है

महान व्यक्तित्व आवेगमय प्रतीत होते हैं और उनके निर्णयों में  स्वयंस्पूर्तता का आभास होता है। लेकिन उनके पीछे दीर्घ विचार रहता है। यह भी लगता है कि उन्हें प्रेरणा होती है या इल्हाम होता है और वे उसी के कारण वे निर्णय कर लेते हैं . इस तरह वे  तर्कातीत  भी  मालूम पड़ते हैं । लेकिन, जैसा कहा गया उस महानता के साथ समय बिताने पर उसके नियमों से भी परिचय होता है

अभ्यास के साथ उचित परामर्श भी जुड़ा हुआ है. ऐसा प्रतीत होता है उन्मुक्तता या नियममुक्तता ही इसका आत्यंतिक गुण है, लेकिन ध्यान देने पर मालूम होगा कि उसमें कहीं बहुत भीतर निश्चितता, सटीकता और अनिवार्यता की एक गहरी पहचान छुपी हुई है. साथ ही  बर्तोल्त ब्रेश्त से शब्द लेकर कह सकते हैं कि उसमें महत्वपूर्ण ( सिग्निफिकैंट) की पहचान होनी चाहिए

महानता कभी भी तात्कालिकता की आगे घुटने नहीं टेकती।  ऐसा नहीं कि वह अपने क्षण की मांग का उत्तर नहीं देती लकिन वह उस मांग से बाधित नहीं महसूस करती। इसलिए वह लोकप्रिय होने की बदहवासी में भी नहीं होती। उसमें प्रतीक्षा करने का धीरज होता है। और जन भावनाओं के विरुद्ध निर्णय लेने का साहस भी। इस रूप में वह किंचित परिवर्तनरोधी  प्रतीत हो सकती है.  इस आरोप का खतरा उठा कर भी वह अपने विचार तब तक नहीं बदलती जब तक वह पूरी तरह से उसके बारे में आश्वस्त न हो जाए। और उसके कारण वह ऐसे फैसले करती है जो वक्ती तौर पर उसकी तस्वीर जनशत्रु की बना दे सकते हैं ।  

महानता की एक अन्य पहचान उसकी अपने आप को लेकर गहरी आश्वस्ति है। वह किसी प्रकार की असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नहीं होती। इसी कारण वह अपने से भिन्न महानता को स्वीकार भी करती है और उसके सानिध्य से घबराती नहीं। यह और बात है कि दूसरी प्रकार की महानता की लोकप्रियता के कारण ही वह उसका अनुकरण नहीं करती। यदि वह उसे मतभिन्नता रखती है तो मात्र इस कारण उसका प्रकाश करने से नहीं डरती कि जनमत उसके विरुद्ध हो जाएगा। टैगोर और गांधी के  एक दूसरे के प्रति सम्मान की कथाएं प्रचलित हैं, उतने प्रकाशित उनकी एक-दूसरे से मत- भिन्नता के किस्से नहीं हैं। इन दोनों के एक-दूसरे के प्रति व्यवहार का अध्ययन करने पर एक और नियम हाथ लगता है और वह यह कि न सिर्फ दो भिन्न प्रकार की महानताएं सह-अस्तित्व में इत्मीनान कानुभव करती हैं, बल्कि वे एक-दूसरे को संभव भी बनाती हैं। महान व्यक्ति स्वयं से विरोधी मत रखने वाले का जीना हराम नहीं करता, बल्कि उसके अस्तित्व को और सहज बनाने के उपाय करता है। 

प्रत्येक महानता की अपनी एक विलक्षण शैली होती है. जितना अपने सन्देश या विचार के कारण वह प्रभावी होती है उतनी ही अपनी शैली के कारण भी। प्रायः महानता सरल होती है, यानी दुरूहता और रहस्य उसके गुण नहीं लेकिन उस सरलता में एक काठिन्य  होता है.यह काठिन्य अपनी विशिष्ट शैली को उपलब्ध करने के क्रम में उस व्यक्तित्व में कुछ इस तरह विन्यस्त हो जाता है कि अपने करीब आने  वालों में शैलीहीनता का भ्रम पैदा करता है .  
महानता की एक पहचान क्षुद्रता के साथ उसके बेमेलपन से मिलती है.
महान व्यक्ति या रचना का एक  गुण अदम्य आशावादिता है. वह यथार्थ की न्यूनताओं से अनजान नहीं  लेकिन  मनुष्यता  की संभावना से  उसका विश्वास  नहीं डिगता.  यह भी मान सकते  हैं कि इस आशावाद के बिना महानता का स्तर प्राप्त करना किसी के लिए भी कठिन है. महानता और सफलता का कोई अन्योन्याश्रय सम्बन्ध नहीं। महानता की असफलताएं भी विराट होती हैं और  उनसे सीखने को काफी कुछ होता है

महानता का  निश्चय समय या काल करता है. व्यक्तिगत रुचि-अरुचि के दायरे से वह प्रायः परे होता है. इसलिए जब किसी महान से, जिसे जन- समुदाय के काल बोध ने वह पदवी दी है, विरक्ति होने लगे तो एक बार ठहर कर अपने बारे में भी सोच लेना चाहिए

लेखक - अपूर्वानंद 
स्रोत - जनसत्ता, 30 जून,  2013