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शनिवार, 13 जुलाई 2013

साँझ के सारस (Sanjh ke saaras by Ajneya)

घिर रही है साँझ 
हो रहा अब समय 
घर कर ले उदासी l 

तौल अपने पंख, सारस दूर के 
इस देश में तू है प्रवासी l 

रात ! तारे हों न हों 
रवहीनता को सघनतर कर दे अँधेरा 
तू अदीन, लिये हिये में 
चित्र ज्योति प्रकाश का 
करना जहाँ तुझ को सवेरा l 

थिर गयी जो लहर, वह सो जाय 
तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाय 
मेघ, मरू, मारुत, मरुण अब आय जो सो आय !

कर नमन बीते दिवस को, धीर !
दे उसी को सौंप 
यह अवसाद का लघु पल 
निकल चल ! सारस अकेले !


कवि - अज्ञेय संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986


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