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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

वचन का बकुल (Vachan ka bakul by Naresh Mehta)


केतकी में आ गए 
फिर फूल पत्ते 
सब नए -
वचन के इस बकुल को 
पर क्या हुआ 
जो हमें तुम दे गए ?


कवि - नरेश मेहता 
संकलन - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश  बुक्स,  दिल्ली, 2006 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

भुला दें (Bhula dein by 'Akhtar' Sheerani)

वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें 
मुहब्ब्त करें, ख़ुश रहें, मुस्कुरा दें 


ग़ुरूर और हमारा ग़ुरूरे-मुहब्ब्त 
महो-मेह्र को उनको दर पर झुका दें 


जवानी हो गर जाविदानी तो या रब 
तिरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें 


शबे-वस्ल की बेख़ुदी छा रही है 
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें 


इबादत है इक बेख़ुदी से इबारत 
हरम को मए-मुश्कबू से बसा दें 


बनाता है मुँह तल्ख़ि-ए-मै से ज़ाहिद 
तुझे बाग़े-रिज्वाँ से कौसर मँगा दें !

तुम अफ़सान-ए-क़ैस क्या पूछते हो !
इधर आओ, हम तुमको लैला बना दें

ये बेदर्दियाँ कब तक ऐ दर्दे-ग़ुरबत !
बुतों को फिर अर्ज़े-हरम में बसा दें 

उन्हें अपनी सूरत पे यूँ नाज़ कब था !
मिरे इश्क़े-रुसवा को 'अख़्तर' दुआ दें

महो-मेह्र = चाँद-सूरज 
जाविदानी = अनश्वर 
शबे-वस्ल = मिलन की रात
हरम = मस्जिद या काबा 
मए-मुश्कबू = सुगन्धित मदिरा 
तल्ख़ि-ए-मै = शराब की कड़वाहट 
बाग़े-रिज्वाँ = स्वर्ग का बाग़ 
कौसर = स्वर्ग की शराब की एक नदी
अफ़सान-ए-क़ैस = मजनूँ की कहानी
दर्दे-ग़ुरबत = परदेस का दर्द 
अर्ज़े-हरम= काबे की धरती पर
इश्क़े-रुसवा = बदनाम प्रेम

शायर - 'अख़्तर' शीरानी संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

कैसी तबाही आई (Kaisi tabaahi aai by Majaz)

 
कैसी तबाही आई !
 
जी बैठ गया, मन हारा
अब सूना है जग सारा 
हर पग पर दुख के काँटे 
हर राह में घोर अँधियारा 
          हर सिम्त उदासी छाई
          कैसी तबाही आई !
 
इक जोत जगाकर पल में 
वो चाँद छिपा बादल में 
अब कोई नहीं है अपना 
इस जीवन के जंगल में 
           हर साँस है एक दुहाई 
           कैसी तबाही आई ! 
 
सपनों के महल सब ढाए 
आशा के दीप बुझाए 
बिपता की आँधी उट्ठी 
दुख-दर्द के बादल छाए 
          आफ़त की घटा मँडलाई 
          कैसी तबाही आई !
 
दुनिया को न मुँह दिखलाऊँ 
जाऊँ तो किधर जाऊँ 
ये दुख मैं किसको बतलाऊँ 
ये दर्द किसे समझाऊँ 
             अब मैं हूँ, मिरी तनहाई 
             कैसी तबाही आई !  
 
सिम्त = तरफ़
 
शायर - 'मजाज़' लखनवी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी   
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

दहशत के साये में (Dahshat ke saaye mein by Habeeb 'Jalib)


ज़िन्दा हैं एक उम्र से दहशत के साये में 
दम घुट रहा है अह्ले-इबादत के साये में 

हमको कहाँ तसव्वरे-जानाँ हुआ नसीब 
बैठे हैं हम कहाँ कभी फुरसत के साये में 

छोड़ा न हमने नक़्श कोई राहे-इश्क़ में 
गुज़री तमाम उम्र नदामत के साये में 

बिछड़े हुए दयारे-दिलो-जाँ के दोस्तो 
पूछो न दुख सहे हैं जो ग़ुरबत के साये में 

ऐ रहरवाने-राहे-सेहर, हमको दाद हो 
लेते हैं साँस ज़ुल्म की ज़ुल्मत के साये में 

हम आएँगे तो आएगा वो अह्दे-ख़ुशगवार 
गुज़रेगी जब हयात मुहब्ब्त के साये में 


अह्ले-इबादत = धार्मिक लोग  
तसव्वरे-जानाँ = प्रियजन की कल्पना 
नक़्श = चिह्न 
नदामत = शर्मिन्दगी 
दयारे-दिलो-जाँ = हृदय और प्राण की बस्ती 
ग़ुरबत = परदेस 
रहरवाने-राहे-सेहर = सुब्ह की राह के राहगीर 
ज़ुल्मत = अन्धकार 
अह्दे-ख़ुशगवार = सुन्दर युग 
हयात = जीवन 


शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

अलस (Alas by Ajneya)


भोर
अगर थोड़ा और अलसाया रहे,
मन पर
छाया रहे
थोड़ी देर और
यह तन्द्रालस चिकना कोहरा ;
कली
थोड़ी देर और
डाल पर अटकी रहे,
ओस की बूँद
दूब पर टटकी रहे ;
और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे
इस सपने में जो मैंने गढ़ा है
और फिर अधखुली आँखों से
तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है
तो -
तो किसी का क्या जाये ?
कुछ नहीं l
चलो, इस बात पर
अब उठा जाये l


कवि - अज्ञेय
संकलन - सागर-मुद्रा (1967-1969 की कविताएँ)
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1970

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

प्यार में (Pyar mein by Madan Kashyap)


पानी पर 
चलना ना सीखा 
बादल-सा 
उड़ना ना सीखा 
फिर क्या सीखा 
           प्यार में। 

धरती-सा 
बिछ्ना ना सीखा 
अम्बर-सा 
उठना ना सीखा 
फिर क्या सीखा 
           प्यार में। 

काँटों से 
लड़ना ना सीखा 
फूलों से 
डरना ना सीखा  
फिर क्या सीखा 
           प्यार में। 


कवि - मदन कश्यप 
संकलन - नीम रोशनी में 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2000

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

लिट्टी इंटरनेशनल (Littee international by Nagarjun)


लालू ने 
लिट्टी को 
इंटरनेशनल बना दिया !
आप्रवासी भारतीय जुटे थे 
इंटरनेशनल हो गया था
समूचा पटना !
बड़ी गहमागहमी रही 
दो-तीन रोज़ तो 
लालू बोले :
हम चौबीस रोज 
अमेरिका रहे 
उहाँ हमें उधार का ही 
खाना लेना पडा, मजबूरी थी 
अपनी लिट्टी कहीं नहीं,
ब्रेड ही ब्रेड आगे आता था 
जाम-जेली-सौस … जी हाँ 
बहू नहीं सामने आई कहीं !

विदेशी भारतीय विदा हुए तो 
लालू ने एक-एक किलो सत्तू दिया 
और … हाँ, और 
लिट्टी बनाने का तरीका 
खुद-ब-खुद सिखलाया - 
"जी हाँ,  दिक्कत है 
गैस की आँच में नहीं -
कंडे की आँच में सिकने पर 
इसका अरिजिनल सवाद मिलेगा !
आप चाहेंगे तो आप उहाँ से 
अपना कुक (रसोइया) भेजिए,
इहाँ महीने-भर रहेगा 
सीख जाएगाSS
मगर हाँ,
एक ठो दिक्कत फिर भी रह जाएगी 
कच्चे आम की चटनी,
करोंदे का अचार 
कच्चे आँवले की चटनी …  
ई सब कइसे होगा ?
लेकिन हाँ, जाना-आना लगा रहेगा तो 
आपके तरफ का खाना-पीना 
हमारे इहाँ के लोग भी जान जाएंगे 
और हाँ, गुझिया, मालपुआ 
मिस्सी रोटी … ई सब सीखने में 
आपके कुक को कई महीने लग जाएंगे। … 
हडबडाइए नहीं 
रसे-रसे सब कुछ आपके कुक 
सीखिए लेगा नS !!"
            - 15 जनवरी, 1996



कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 2
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003


शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

गंगा (Ganga by Maithilisharan Gupt)


यह 'घट' इतना कहाँ हाय ! जो इसमें रहती गंगा 
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा I

देखे हैं कितने 'युग' तूने क्या कहती है गंगा
तुझसे बुझती रहे चिता वह, जो दहती है गंगा

आज हमारे पाप-ताप ही तू सहती है गंगा
'फूल' भेंट के साथ बाँह यह तू गहती है गंगा

बहती रह इस महा मही पर मेरी महती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा I


कवि - मैथिलीशरण गुप्त 
संकलन - स्वस्ति और संकेत 
प्रकाशक - साकेत प्रकाशन, चिरगाँव, झाँसी, 1983

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

बापू (Bapu by Nagarjun)

बापू दूर इस संसार से 
देव ! देव तुम उस पार से 
झाँकते हो हमें कारागार से 

हो रहा हमसे नहीं कुछ दूर भी 
देव, तव पद-पंक्तियों का अनुसरण 
मृत्युविजयी पितामह तुमसे न हम 
सीख पाए अभी जीवन या मरण

पशु-सदृश हम चर रहे 
नहीं कुछ भी कर रहे 
तुच्छ स्वार्थों के लिए ही मर रहे 
किंतु फिर भी प्यार से
देव, तुम उस पार से 
झाँकते हो हमें कारागार से l 
                                - जनवरी, 1944 



कवि - नागार्जुन 

किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1

संपादन-संयोजन - शोभाकांत 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003