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बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

अलस (Alas by Ajneya)


भोर
अगर थोड़ा और अलसाया रहे,
मन पर
छाया रहे
थोड़ी देर और
यह तन्द्रालस चिकना कोहरा ;
कली
थोड़ी देर और
डाल पर अटकी रहे,
ओस की बूँद
दूब पर टटकी रहे ;
और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे
इस सपने में जो मैंने गढ़ा है
और फिर अधखुली आँखों से
तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है
तो -
तो किसी का क्या जाये ?
कुछ नहीं l
चलो, इस बात पर
अब उठा जाये l


कवि - अज्ञेय
संकलन - सागर-मुद्रा (1967-1969 की कविताएँ)
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1970

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