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सोमवार, 9 दिसंबर 2013

वसंत (Vasant by Dwijdev)

औरें भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,
औरें भाँति सबद पपिहाँ के बै गए l 
औरें भाँति पल्लव लिए हैं बृंद-बृंद तरु,
औरें छबि-पुंज कुंज-कुंजन उनै गए ll 
औरें भाँति सीतल, सुगंध, मंद डोलै पौंन,
'द्विजदेव' देखत न ऐसैं पल द्वै गए l 
औरें रति, औरें रंग, औरें साज, औरें संग,
औरें बन, औरें छन, औरें मन, ह्वै गए ll 

मनहरन घनाक्षरी में वसंत की अनिर्वचनीय शोभा बताई गयी है। द्विजदेव केवल इतना ही कह सकते हैं कि और ही प्रकार के कोकिल, चकोर स्थल-स्थल पर बोलने लगे तथा और ही प्रकार के पपीहों के शब्द हो गए। तरु समूह कुछ और हीतरह पल्लवों को धारण किए हुए हैं, छवि पुंज कुछ और ही तरह प्रतिकुंज में उनए पड़ते हैं तथा और ही प्रकार की शीतल, मंद, सुगंध समीर का संचार हो रहा है। दो पल भी न बीतने पाए कि अभी रति (प्रीति), रंग, साज, संग, समय और मन सबकुछ और ही हो गए l 


कवि - द्विजदेव 
संकलन -  द्विजदेव ग्रंथावली 
संपादक - विद्यानिवास मिश्र 
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 2000


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