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शुक्रवार, 28 जून 2013

राग डींग कल्याण (Raag deeng kalyan by Sarveshvar Dayal Saxena)

तेरी भैंस को डंडा कब मारा 
मैंने भैंस को डंडा कब मारा ! 

       तेरी भैंस है प्रज्ञा पारमिता 
       उसने मेरी खेती खाई थी l 
       तेरी भैंस है जनता की प्रतिनिधि 
       उसने मेरी छान गिरायी थी l 
       तेरी भैंस ने खाया कामसूत्र 
       तेरी भैंसी ने खा डाली गीता 
       तेरी भैंस से अब क्या शेष रहा 
       तेरी भैंस से ही यह युग बीता l 

तेरी भैंस के संग सब भैंस हुए 
तेरी भैंस को होवे पौबारा l
तेरी भैंस को डंडा कब मारा 
मैंने भैंस को डंडा कब मारा ! 

       तेरी भैंस का होगा अभिनंदन 
       तेरी भैंस का मैं करता वंदन 
       तेरी भैंस शांति की सूत्रधार 
       तेरी भैंस आत्मा की क्रंदन 
       तेरी भैंस के पागुर में भविष्य 
       तेरी भैंस के पागुर में अतीत 
       तेरी भैंस के आगे शीश झुका 
       तेरी भैंस  सभी से रही जीत !

तेरी भैंस ही है मेरा जीवन 
तेरी भैंस  ही है मेरा नारा !
तेरी भैंस को डंडा कब मारा ?
मैंने भैंस को डंडा कब मारा ?

       तेरी भैंस के आगे बीन बजी 
       तेरी भैंस के आगे शहनाई
       तेरी भैंस घुस गयी संसद में 
       सब संविधान चट कर आयी
       तेरी भैंस की भैंस में भैंस रहे 
       तेरी भैंस की भैंस में भैंस बहे 
       तेरी भैंस करे जो जी चाहे 
       तेरी भैंस से अब क्या कौन कहे ?

तेरी भैंस मेरे सर-माथे पर 
तेरी भैंस पे यह तन-मन वारा !
तेरी भैंस को डंडा कब मारा ?
मैंने भैंस को डंडा कब मारा ?


कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
संकलन - कविताएँ-2 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978




मंगलवार, 25 जून 2013

जुल्म रहे और अम्न भी हो (Julm rahe aur amn bhi ho by Habeeb 'Jalib')


जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

हँसती गाती रौशन वादी 
तारीकी में डूब गई 
बीते दिन की लाश पे ऐ दिल 
मैं रोता हूँ, तू भी रो l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

हर धड़कन पर खौफ़ के पहरे 
हर आंसू पर पाबन्दी 
ये जीवन भी क्या जीवन है 
आग लगे इस जीवन को l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

अपने  होंठ सिए हैं तुमने 
मेरी ज़बाँ को मत रोको 
तुमको अगर तौफ़ीक़ नहीं तो 
मुझको ही सच कहने दो l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 


तारीकी = अन्धकार        तौफ़ीक़ = सामर्थ्य



शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

सोमवार, 24 जून 2013

अदालतों में धोती (Adalaton mein dhoti by Premchand)


हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि अदालतों में धोती का क्यों बहिष्कार किया जाता है ? गांधी टोपी तो खैर राष्ट्रीयता का चिह्न है, लेकिन धोती तो सभी पहनते हैं, यहां तक कि मुसलमान भी घर पर अक्सर तहमद ही बांधते हैं, लेकिन फिर भी अदालतों में धोतीपहनना अदालतों का अपमान करना है l क्या धोती से देह नीचे का भाग नग्न रहता है ? धोती तो अक्सर एड़ी तक लटकती रहती है l और अगर ऊंची भी रहे, तो क्या वह उस जांघिये से भी ऊंची होती है, जो लड़ाई के बाद से इतना प्रचलित हो गया है कि हुक्काम इजलास पर भी उसे पहनते हैं l उस जांघिये से तो आधी जांघ तक खुली रहती है, धोती को तो अगर कछनी के रूप में भी पहना जाय, तो वह घुटने से थोड़ी ही ऊपर रहती है l फिर धोती पहनना क्यों जुर्म समझा जाता है ? कोई-कोई साहब बहादुर तो धोती देखते ही जामे से बाहर हो जाते हैं l वकील या डाक्टर या व्यापारी अंग्रेजों को तो धोतियों से चिढ़ नहीं है, वहां लोग बेधड़क धोती पहने जाते हैं l धोती की मुमानियत कवक अदालतों के लिए है l बम्बई और मद्रास में तो अक्सर हिन्दू जज भी धोती पहनते हैं l फिर क्या धोती इसी प्रान्त में आकर अपमान की वस्तु हो जाती है ? क्या इससे भी यहां स्वाधीनता की गन्ध आती है ? 

(संपादकीय l 'जागरण', 31 अक्टूबर, 1932 में प्रकाशित l 'विविध प्रसंग' भाग-3 में संकलित)


लेखक - प्रेमचंद 
किताब - प्रेमचंद रचनावली - 8 
संपादक - राम आनंद 
प्रकाशक -  जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली,1996 

शुक्रवार, 21 जून 2013

भागना (Bhagana by Shankho Ghosh)

भागना है ? भागना ही l भागना 
शहर छोड़, दल छोड़ भागना 
मछली उछली उथले पानी भागना 
मोलतोल घनघोर भागना 
आँख जलेगी, उन आँखों मत ताकना 
लक्ष्मी फेंक गयी हाथों का कँगना 
भाग ना, दौड़कर भागना 
विद्या छोड़, सिद्धि छोड़ भागना l 



कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987
 

गुरुवार, 20 जून 2013

ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन (E sooraj ki dosheeza kiran by Ibne Insha)


ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन
तुमने तो कहा था आओगी
ये काली अंधी रातों का
सब चीर अँधेरा आओगी
हाँ ले के सवेरा आओगी

हम शब-भर जागे, बैठे रहे
जब ओस ने चादर फैलाई
जब चाँद ने झलकी दिखलाई
जब अंबर पर तारे चमके
जब जंगल में जुगनू दमके
और बादल-बादल घिर आई
इक ज़ालिम-ज़ालिम तन्हाई
फिर हमने इक सपना देखा
फिर हमने इक धोका खाया
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन

तुम कौन-से दर्द का दरमाँ थीं
तुम आतीं तो क्या बुझ जातीं
ये प्यास हमारे होंठों की
ये प्यास हमारे सीने की
ये प्यास बदन की चाहत की

तुम आ जातीं तो क्या होता ?
दिल फिर भी यूँ ही तन्हा होता
ये जैसा है वैसा होता

या मुमकिन है इतना होता
ये तुमसे लिपट रोया होता
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन  


दोशीज़ा = क्वाँरी

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

            


बुधवार, 19 जून 2013

नेग (Neg by Parveen Shakir)


सुब्ह विसाल की फूटती है
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली ठंडक फैल रही है
शगुन का पहला परिन्द
मुंडेर पर आकर
अभी अभी बैठा है
सब्ज़ किवाड़ों के पीछे इक सुर्ख़ कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फ़ज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साड़ी में
गीले बाल छुपाये गोरी
घर का सारा बाजरा
आंगन में ले आयी 


शायरा - परवीन शाकिर 

संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ

प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,1994
 

मंगलवार, 18 जून 2013

पीढ़ा (Peedha by Shakti Chattopadhyay)



वहाँ आँगन के कोने में
प्यार ने सजाकर
रखा था एक पीढ़ा

छाया थी
माया थी
छाजन तले उगी थी हरी-हरी घास
और धरती पर खुंदे थे
वर्षा की बूँदों के गिरने के निशान
और ठीक वहीं
आँगन के उस कोने में
प्यार ने सजाकर रखा था एक पीढ़ा
पर आया नहीं वह
जिसे आना था बैठने
आया नहीं जल्दी
आया नहीं धीरे-धीरे
आया नहीं वह
जिसे आना था
बैठने
रात धीरे-धीरे
होती गयी गहरी
रात धीरे-धीरे
होती गयी शेष
वहाँ
आँगन के उस कोने में
उसी तरह पड़ा रहा
खाली पीढ़ा
पर आया नहीं वह
जिसे आना था
बैठने l


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

सोमवार, 17 जून 2013

मुक्ति ही प्रमाण है (Mukti hi praman hai by Bharatbhushan Agrawal)



मैंने फूल को सराहा :
‘देखो, कितना सुन्दर है, हँसता है !’
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस लिया l

मैंने बौर को सराहा :
‘देखो, कैसी भीनी गन्ध है !’
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली l

मैंने कोयल को सराहा :
‘देखो, कैसा मीठा गाती है !’
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल दिया l

एक युग पहले की बातें ये
आज याद आतीं नहीं क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे मन, हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए, पीस दिए, कैद किए ?

मुक्त करो !
मुक्त करो ! –
जन्म-भर की यह यातना भी
इस ज्ञान के समक्ष तुच्छ है :
हँसी फूल में नहीं,
गन्ध बौर में नहीं,
गीत कंठ में नहीं,
हँसी, गन्ध, गीत – सब मुक्ति में हैं
मुक्ति ही सौन्दर्य का अन्तिम प्रमाण है !
                     - 24.6.1958 


कवि – भारतभूषण अग्रवाल

संकलन – भारतभूषण अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ

संपादक – अशोक वाजपेयी

प्रकाशक – राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004