Translate

रविवार, 14 दिसंबर 2014

बच्चा और उसका सोने का कमरा (Bachcha aur uska sone ka kamra by Eliseo Diego)


तुम आज रात डरे हुए हो :
चोर बाहर हैं 
पत्तियों में छिपे 
खिड़की में झाँकते। 
           शीशे से सोना फैलता है 
परछाईं में। 
           और चोर 
पत्तियों में हैं,
एक भीड़, एक अनंतता,
दूसरी ओर के 
नम निभृत स्थान में। 

क्यूबाई कवि - एलिसेओ दिएगो ( 2.7.1920 – 1.3.1994)
अनुवाद - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - धूप की लपेट 
संकलन-संपादन - वीरेंद्र जैन 
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000 


दिसंबर आ गया है।  खुर्शीद से अंतिम बातचीत इन्हीं दिनों में हुई थी, यह बात बार-बार कौंध रही है। अभी जो भी कविता पढ़ रही हूँ उसके अर्थ में खुर्शीद झाँक रहे हैं। लगता है कि जीवन पर एक छाया सी पड़ गई है। 

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

छाया-राज (Chhaya-raaj by Hans Magnus Enzensberger)


यहाँ अभी भी मुझे दीखती है एक जगह,
एक आज़ाद जगह,
यहाँ इस छाया तले। 

यह छाया
बिकाऊ नहीं है। 

समुद्र की भी 
पड़ती है छाया शायद,
और इसी तरह काल की भी। 

छायाओं की लड़ाइयाँ 
खेल हैं :
कोई छाया
दूसरे के प्रकाश में थिर नहीं रहती। 

जो इस छाया में रहते हैं 
उन्हें मारना कठिन होता है। 

एक क्षण को 
मैं अपनी छाया से बाहर आता हूँ,
एक क्षण को। 

जो प्रकाश देखना चाहते हैं 
जैसा कि वह है 
उन्हें चले जाना चाहिए 
छाया में। 

छाया
सूर्य से अधिक दीप्तमान 
आज़ादी की शीतल छाया। 

पूरी तरह से इस छाया में 
मेरी छाया विलीन हो जाती है। 

इस छाया में 
अभी भी जगह है। 


जर्मन कवि - हैंस मैगनस ऐंसेंसबर्गर  (11.11.1929)
अनुवाद - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - धूप की लपेट 
संकलन-संपादन - वीरेंद्र जैन 
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000 

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

लगना (Lagana by Purwa Bharadwaj)

मुझे भूख बहुत लगती है। अपने डायबटीज़ के मत्थे इसे डालकर मैं खाने का जुगाड़ करने में भिड़ जाती हूँ। कभी-कभी लगता है कि सचमुच भूख नहीं है, केवल लगना है यह। कमाल की चीज़ है लगना ! कुछ हो न हो बस लगती है। जैसे रात के अँधेरे में आँगन में फैली उजली चादर उड़कर जब पास के पेड़ पर आड़ी-तिरछी टँगी हो तो किसी को भुतहा लगती है। हम सब बुद्धिमानी से दूसरों को समझाते हैं कि देखो वह है नहीं, सिर्फ तुम्हें लगता है। माने कि यह वास्तविकता से थोड़ी दूर की चीज़ है ?

ज़रूरी नहीं। जो चीज़ होती है वह भी लगती है। इसके लिए अवास्तविक होना ज़रूरी नहीं। एक तरह से कहा जा सकता है कि लगना अवास्तविकता और वास्तविकता के बीच का पुल है। जब शाहपुर जाट की गली के मोड़ पर कोई गाड़ी हॉर्न बजाती थी तो मुझे लगता था कि अपनी गाड़ी है। उस लगने में संशय रहता था, मगर मेरी बेटी को लगता नहीं था, बल्कि उसे पता होता था कि अपनी गाड़ी है या नहीं है।

बाबरी मस्जिद ढाह दिए जाने के बाद मुसलमानों को जो लगता है वह क्या है ? औरतों को घर हो या बाहर जो लगता है कि वे सुरक्षित नहीं हैं वह क्या है ? मिज़ो भाषा बोलनेवालों को दिल्ली आने पर जो अजनबी सा लगता है वह क्या है ? क्या सब लगना झूठ है ? या सब लगना अतिरेक है ?

जो भी हो लगना महसूस करना है। अहसास है, आहट है। इसलिए सात समंदर पार ही नहीं, सात लोक पार के व्यक्ति के लिए भी लगता है। दोस्त ही नहीं, दुश्मन के लिए भी लगता है। इस लगने पर कोई बंधन नहीं है, इसकी कोई सीमा नहीं है। हमें कुछ भी किसी भी समय किसी के भी बारे में लग सकता है।

यह संवेदना है। यदि किसी को कुछ नहीं लगता है तो अचरज की बात होती है। उसे दूसरे ग्रह का प्राणी माना जाता है। नहीं तो उसे असंवेदनशील कहा जाता है। शारीरिक या मानसिक बीमारी का शक होता है। बेहिस्स कहकर उसे अपमानित किया जाता है। मानिए तो इंसान होने की पहचान है लगना।

माँ से और पापा से लग कर सोने का सुख याद करती हूँ। दोई (बिल्ली) जब बेटी से लगकर उससे सहलवाती थी तब दोनों का सुख याद करती हूँ। तब तो लगना सटना है, चिपकना है। याद आया कि संस्कृत में धातु है लग्, भ्वादि गण की परस्मैपद की धातु। इसके मूल अर्थों  में से एक है स्पर्श। मृच्छकटिकम् का "यथा यथा लगति शीतवातः" का उदाहरण भी याद है।  "लग जा गले" से लेकर अनगिनत गाने दिमाग में घूम गए।  

लगना लाड़-प्यार और करीबी होने को जताने का तरीका है। मुँहलगा इसी से बना है और दिल्लगी की जड़ में भी यही है। ताज्जुब नहीं कि लगने पर आपत्ति उठाई जाने लगती है। किशोरी का अपने सहपाठी लड़कों से लगकर बैठने पर भौं टेढ़ी होने लगती है। किसी दिन खाप पंचायत इसे मुद्दा बना लेगी, नहीं तो कहीं से फ़तवा आ जाएगा।

लगना में कुछ भी इकहरा नहीं है। आनंद और तकलीफ दोनों है। प्यार और चिढ़ दोनों है। अच्छा और बुरा दोनों है। आराम और चिड़चिड़ाहट दोनों है। नया जूता ज़बरदस्त लगता है। दाँत में ठंडा पानी लगता है। अम्मी (सास) को कोटे की साड़ी लगती है। दूध का बर्तन खखोरो तो उसकी आवाज़ बेटी को कान में लगती है। मुझे प्याज़ काटते समय आँखों से बहुत पानी आता है तो लोग समझाते हुए कहते हैं कि भूरी आँखोंवाले को प्याज़ अधिक लगता ही है। और नज़र लगने का क्या कहना ! सारे टोने-टोटके आजमा लीजिए, लगने को उतरवा लीजिए !

परेशानी तब अधिक होती है जब लगना ज़रूरत से ज़्यादा होने लगता है ! जिसे बाते सिरे कुछ न कुछ लग जाता है उस व्यक्ति से लोगों को डर महसूस होता है। उस अर्थ में यह बिसूरना, अखरना, चुभना, दुख देना सब है, बल्कि ये सारे शब्द कम हैं।  एक बार बात लग गई तो लग गई ! इसलिए सावधानी बरतिए। यह लगना पेचीदा मामला हो जाता है। यदि आपकी बात-व्यवहार से अनजानते कोई बात लगी है तब भी कोई सफ़ाई काम नहीं आती है। और यदि आपकी बात जाति में बड़े, ओहदे में बड़े, धर्म में बड़े, रिश्ते में बड़े या किसी भी चीज़ में आपसे बड़े को लगी है तब तो खैर नहीं ! जान गँवाने से लेकर थूका हुआ चटवाने की सज़ा मिल सकती है। तात्पर्य यह कि जो जितना बड़ा, उसका लगना उतना बड़ा और भयानक ! यदि आप पायदान पर नीचे हैं तो फिर आपका लगना व्यर्थ है। वह आपका सुकसुकाना है। आपको अपनी पीठ गहरी करनी पड़ेगी। 

उसमें सबसे खतरनाक होता है मंशा ढूँढ़ लेना। मंशा साबित हो जाए, छिपाने पर भी प्रकट हो जाए तब क्या होगा कालिया ? यदि किसी ने जान बूझकर कुछ कहा या किया ताकि आपको लग जाए तब तो माफी नहीं है। लगाने के लिए कुछ कहना-करना तो दुष्टता है जो अक्सर लोग करते हैं। "आज मैंने उसे लगा दिया" कहकर कोई बदले की आग ठंडी करता है, कोई झगड़े की शुरुआत करता है, कोई किसी को उसकी औकात बताता है और कोई अपने अस्तित्व का झंडा गाड़ता है। इस तरह उसमें हिंसा छुपी होती है।

वास्तव में पड़ताल का विषय बनता जा रहा है लगना। NCERT की किताब का कार्टून भी लगता है, हुसैन की पेंटिंग लगती है और लड़कियों का पब जाना भी। उस पर हंगामे को हम क्या कहेंगे ? मेरा सीधा जवाब है कि किसको लग रहा है और उस लगने के नाम पर किसको उकसाया जा रहा है या किसकी गोलबंदी की जा रही है, इसे समझिए। बुनियादपरस्त, सांप्रदायिक और वर्चस्वशाली समूह की हिंसक हरकतों को हमें राजनीतिक अर्थ में समझना होगा। लगना किसके एजेंडे पर है, यह जानना होगा। 

पापा को जब तीता (तीखा) लगता है तो तुरत हिचकी आने लगती है। यहाँ लगना स्वाद से जुड़ जाता है और वह भी राजनीतिक अखाड़े में आ गया है। खाने-पीने की चीज़ों के अच्छा लगने का अंत नहीं है। इसलिए अब उसपर नियंत्रण की ज़रूरत महसूस होने लगी है। सुना है कि भले आपको मांस-मछली खाना अच्छा लगता हो, मगर अब आपको दिल्ली के कई प्रतिष्ठित संस्थानों में शाकाहारी भोजन ही मिलेगा। मेरी बेटी भी टिफिन में शाकाहारी चीज़ें ले जाने के लिए बाध्य की जा रही है। आपको क्या अच्छा लगता है, इसकी परवाह नहीं है। परवाह इसकी है कि सत्ता में जो है उसे क्या अच्छा लगता है ! यानी लगने लगने में भेद है, विविधता है। ताकतवर के लगने और आपके लगने में अंतर है।

"लगे रहो मुन्ना भाई" के लोकप्रिय होते ही लगना व्यक्ति से लेकर देश के विकास का रास्ता बन गया है। यह जुट जाना है, सम्मिलित होना है, समर्पण करना है। शादी के अर्थ में लगन के मूल में यही है -जुड़ना। इस सबके लिए धीरज चाहिए। धीरज नहीं, भरोसा नहीं तो इसका अर्थ होगा कि आप ठीक से लगे नहीं। आपकी पात्रता की जाँच इस आधार पर हो जाएगी। और तब आपसे लगने की अपील की जाएगी - बाँध निर्माण व पोलियो अभियान से लेकर मंदिर-मस्जिद सहित देश निर्माण तक में। इसलिए अटकिए नहीं, भटकिए नहीं, लगिए और बस लगे रहिए।

ध्यान लगना और मन लगना कितना भारी काम है ! पढ़ाई की छोड़िए, घूमने-फिरने, बातचीत करने में भी कई बार मन नहीं लगता है। तब लगने की जगह लगाने में सब जुट जाते हैं। लेकिन लगना-लगाना सिर्फ भारी भरकम नहीं होता है। सोचिए राह चलते जूते-चप्पल में कुछ लग जाए तब कैसा लगता है ? धूल-मिट्टी से बहुत फर्क नहीं पड़ता है। गोबर या टट्टी लग जाए तो घिन लगती है और उससे भी ज़्यादा शर्म आती है। पैर धुलवाए बिना काम नहीं चलता था। वह संभव नहीं हुआ तो  कम से कम चलते-चलते घास-मिट्टी में उसे पोंछ लेने के बाद ही इत्मीनान लगता था !  अरे फिर आ गया यह लगना ? हिंदी की मुख्य क्रिया है या सहायक क्रिया या क्या ?


गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

हवाई चप्पल (Hawai chappal by Purwa Bharadwaj)

हवाई चप्पल गंदी हो गई है। किए जानेवाले कामों की सूची में उसे साफ़ करना भी है। मैं खुद को कई बार टोक चुकी हूँ, फिर भी यह काम बस टलता जा रहा है। पहले तो हवाई चप्पल साफ़ करने के लिए माँ को टोकना नहीं पड़ता था। हमलोग नहाते समय खुद पुराने ब्रश से रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ कर लेते थे। जब हवाई चप्पल की सफ़ेदी फिर से उभरने लगती थी तो बड़ा उत्साह होता था। शायद उतना ही जितना दाँतों के चमचमाने से।

हाँ, आयोजन होता था उसका फीता लगाना। मुझे याद है कि हमलोग साबुन लगाकर फीता घुसाने की कोशिश करते थे। कलम या दतवन या कभी-कभी कैंची की मदद भी लेनी पड़ती थी। हवाई चप्पल की बनावट याद कीजिए। बिना एड़ी के सादी सी चप्पल। बीच में एक खूँटी और उसके अगल बगल दो फीते और तीनों के लिए चप्पल में तीन छेद। फीता अक्सर टूट जाता था (हालाँकि आज की तरह महीने भर में ही नहीं टूटता था)। टूटने पर फुटपाथ की दुकान से चप्पल के नंबर के हिसाब से मैचिंग फीता खरीदकर आता था। बीच के छेद  में फीता लगाना आसान होता था और ताकत व हुनर की परीक्षा होती थी चप्पल के किनारेवाले छेदों में डालने में। भैया भी जब हार जाता था तब माँ का अनुभव काम आता था ! सोचिए औरत के इस अनुभव की कहीं कोई गिनती है भला :)

इन दिनों हवाई चप्पल ही क्या, कोई भी चप्पल-जूता न टाँके लगवाकर पहनता है और न फीता बदलवाकर। अब सीधे नई चप्पल आ जाती है (यह प्रवृत्ति फोन, बैग, कपड़े से लेकर रिश्ते तक में झलकती है, मगर मैं इसे सीधे नकारात्मक अर्थ में नहीं देख रही हूँ)। मैंने अपनी हवाई चप्पल की मरम्मत की बात की तो बेटी से लेकर घर में मददगार लोगों ने तरस भरी निगाह से मुझे देखा और सलाह दी कि इसे कूड़े में डालो। मैं हैरान होती हूँ कि इतनी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ से अक्सर लोगों को मोह क्यों नहीं होता है !  

यदि जूते-चप्पलों के हज़ारों सालों के पूरे इतिहास को पलटकर देखा जाए तो ये धूल-काँटे, सर्दी-गर्मी, कीड़े-मकोड़े और न जाने किस किस बाधा और बीमारी से हमारी सुरक्षा करने का काम करते हैं। उस इतिहास के पड़ाव में काफी आगे जाकर हवाई चप्पल आती है। हवाई चप्पल की सबसे बड़ी ख़ासियत उसका आरामदेह और खुला-खुला होना है। चलते-फिरते जब जहाँ और जितनी बार चाहो खोलो-उतारो। झंझट नहीं है। आराम ही आराम है। फीता बाँधने का, बकलस लगाने का चक्कर नहीं है। रबर से बनाया ही इसलिए गया है ताकि पानी से विकार न आए। धोने में और धोकर सुखाने में भी आसानी। इससे नमी वाली जलवायुवालों को आसानी और दस-बार चप्पल खोलने की ज़रूरत की संस्कृतिवालों को आसानी :) 

भूगोल और संस्कृति का ख़याल रखनेवाली हवाई चप्पल सबसे अधिक आर्थिक स्थिति का ख़याल रखती है।मगर सस्तापन भी अजीब गुण है। यह लोकप्रियता का आधार है, ज़रूरत में ढलने का आधार है, मुनाफे का आधार है तो बिकने का कारण है, पसंद किए जाने का कारण है और फेंक दिए जाने का भी कारण है। इसीलिए हवाई चप्पल से बहुत कुछ जुड़ा है। हम सबके असबाब में यह मौजूद रहता है। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और कामगार वर्ग सब इसका इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कहीं कहीं यह मुफ़लिसी का द्योतक भी बन जाता है। औकात बताने के लिए यह बयान कर दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति हवाई चप्पल में था। फटीचर इंसान का खाका खींचिए तो हवाई चप्पल उसकी पहचान होगी। 

हवाई चप्पल में जो हवाई शब्द है वह हवाई द्वीप के लिए नहीं है। संभवतः यह उसके हवा के समान हल्के होने के कारण जुड़ा है। पहले जब छाल, खाल, लकड़ी और भारी चमड़े की चप्पलें होती थीं तो उनके मुकाबले हलके रबर से बनी यह चप्पल (वैसे फीता प्लास्टिक का भी होता है) वाकई हवा हवाई ही मालूम होगी। हवाई चप्पल पैर में डालो और हवा की तरह दौड़ लगा लो। किसी तैयारी या औपचारिकता की ज़रूरत नहीं। 

औपचारिकता के दायरे से निकालकर हवाई चप्पल आपको अनौपचारिकता के दायरे में ले जाती है। अनौपचारिक मौके से लेकर अनौपचारिक जगह तक। यह भी कहा जा सकता है कि यह सार्वजनिक और निजी का विभाजन  करती है। घर में, सोने के कमरे में, गुसलखाने में यह स्वीकार्य है। स्वीकार्य नहीं, अनिवार्य है। वहाँ हवाई चप्पल ही बेहतर है और आगे से बेटी के दहेज़ में इसे जोड़ देना चाहिए ! 

सार्वजनिक मौकों और जगहों पर हवाई चप्पल पहनना उचित नहीं है। फर्ज कीजिए आपके अधिकारी किसी उद्घाटन समारोह में हवाई चप्पल में चले आ रहे हों, तो उनके रुतबे को कोई नहीं देखेगा। चर्चा हवाई चप्पल की ही होगी। मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ आ जाएगा। इसी तरह लकदक बनारसी साड़ी के साथ कोई भद्र महिला हवाई चप्पलों में हो तो हर किसी की निगाह उसके पैरों पर ही जाएगी। किसी ने भी यह किया तो सामान्य तौर पर वह सभ्यता के खिलाफ ही माना जाएगा। सोचिए एक छोटी सी चप्पल पर भारी भरकम सभ्यता का बोझ भी आन पड़ा !

बनावट, रंग-रूप में हवाई चप्पल असभ्य भले न लगे, लेकिन उसकी चटर-चटर आवाज़ बहुतों के कानों को खटकती है। इसे फटफटिया चप्पल कहने में हिकारत का थोड़ा पुट साफ़ नज़र आता है। तब हम आवाज़ के स्रोत को नहीं देखते हैं, बल्कि आवाज़ को अच्छे-बुरे, कर्णप्रिय-अकर्णप्रिय में बाँट देते हैं।  कोई आवाज़ किसे कब कहाँ और क्यों बुरी लगती है, इसकी समाजशास्त्रीय विवेचना करने की फुरसत किस भलेमानस को है !  इतना कोई क्यों दिमाग खपाए कि हवाई चप्पल की इस आवाज़ को पैदा करने में हल्के होने के साथ इसको बनानेवाली सामग्री और धरातल के प्रकार का योगदान रहता है। इसके समानार्थी अंग्रेज़ी का Flip-Flop ही देखें जिसका नामकरण उसके तले के ज़मीन से टकराने पर जो आवाज़ होती है उसके आधार पर रखा गया है। 

आरामदेह होने के बावजूद माना जाता है कि हवाई चप्पल से एक तरह की बेतरतीबी झलकती है। अस्त-व्यस्तता और लापरवाही भी। मुझे याद है जब एक बार अपूर्व एक सम्मेलन (शायद PWA के या AISF के सम्मेलन) में हवाई चप्पल पहने हुए चले आए थे तो उनके बड़े भाई ने उनकी खबर ली थी। वे बोले कुछ नहीं थे, मगर पटना मेडिकल कॉलेज से चलकर पटना कॉलेज के मैदान में आकर उनका भाई की चप्पलों पर नज़र डालना भर काफी था। इतना भी क्या कि आंदोलन में लगे हुए हैं तो हवाई चप्पल चटकारते हुए घूमने का लाइसेंस मिल गया ! उसका तत्काल असर यह हुआ कि तुरत जूता खरीदवाया गया।  

मगर यह लाइसेंस कुछ लोग ले लेते हैं। लापरवाही आखिर बेफिक्री ही तो है ! कार्यकर्ताओं, धरना-जुलूस करनेवालों, नाटक-वाटक करनेवालों को भला इसका होश कहाँ रहता है कि उनके बाल कहाँ जा रहे हैं, कपड़ों की क्या दशा है या उनके पैरों में क्या है। उनकी प्राथमिकताएँ अलग हैं तो चप्पल जैसी तुच्छ चीज़ पर ध्यान कैसे जाएगा ? इसीलिए कवि-कथाकार भी आपको इस वेशभूषा में मिल जाएँगे। मुझे नागार्जुन नानाजी भी याद हैं। उनको याद करूँ तो समझ में आता है कि हवाई चप्पल हिप्पीपन, बोहेमियन रहन-सहन की पहचान के साथ मस्ती और फक्क्ड़पन की भी पहचान है। 

सादगी का प्रतीक भी है हवाई चप्पल, लेकिन उसके लिए जिसके पास संसाधन हैं। जो विकल्प रहते हुए भी इसे चुने। मतलब इसमें भी चुनाव मायने रखता है।  यदि कुछ है ही नहीं औरआप इसे चुनें तब तो यह साधनहीनता का प्रतीक होगा न  ?  लेकिन बात फिर इसकी होगी कि कौन कहाँ से देख रहा है। यह किसी के लिए संपत्ति का हिस्सा भी है। आपने सफर में ऐसी कई गठरियाँ देखी होंगी जिनमें से सँभाल कर रखी गई हवाई चप्पल झाँक रही होगी। 

मुझे सफ़ेद ज़मीन और नीले रंग के फीतेवाली हवाई चप्पल ही पसंद थी और पसंद है। आजकल जो फ़ैशन के नाम पर नीली-काली या लाल-गुलाबी चप्पल चलने लगी है वह मुझे नहीं चाहिए, लेकिन दुकानों से वह धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। बाज़ार की चमक-दमक के आगे उसके सादेपन का टिकना मुश्किल ही है। इसका अफ़सोस मनाते हुए मैं पिछले हफ्ते कही गई बाटा की दुकान के कर्मचारी की बात सोचने लगी। सफ़ेद और नीली हवाई चप्पल माँगने पर उसने सीधे कहा कि अब वह नहीं आ रही है और पब्लिक की पसंद बदल गई है। मैं सोचने पर मजबूर हुई कि क्या मैं पब्लिक नहीं हूँ !

हवाई चप्पल का ध्यान आते ही जो अगला शब्द ज़ेहन में आता है वह है बाटा।  दोनों एक दूसरे के पर्याय की तरह हैं। इस बाटा को मैं हिंदुस्तानी नाम समझती थी क्योंकि इतना अपना सा, परिचित सा है। छोटा और आसान है जिसमें जीभ ऐंठती नहीं है और हम सही सही उच्चारण कर पाते हैं। (वरना दक्षिण भारतीय या उत्तर पूर्व के नाम का उच्चारण करने में कितनी अटक आती है। स्थान विशेष ही नहीं, धर्म विशेष से जुड़े नाम भी हम बोल नहीं पाते हैं।) यह बाटा विदेशी मूल का है, जिसको ख़ारिज करने की माँग अभी तक नहीं उठी है। 1894 में चेकोस्लोवाकिया में जब तीन भाई-बहन - अन्ना बाटा, थॉमस बाटा और एंटनिन बाटा ने अपना कारोबार शुरू किया था तो उनको इसका गुमान नहीं रहा होगा कि दुनिया के किसी दूसरे छोर पर बसे गाँव-शहर में उनका नाम रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएगा। उनका पूरा नाम नहीं, उपनाम बाटा ! यह अलग बात है कि अब घर-घर का नाम बन चुके इस बाटा में अन्ना बाटा का नाम भी शामिल है,  यह अधिकांश को मालूम नहीं है।  

यों बाटा तरह-तरह के जूते-चप्पल  बनाने की कंपनी है और अब तो बैग और बेल्ट से लेकर न जाने क्या-क्या बनाने लगी है, लेकिन शायद इसको मशहूर बनाने का श्रेय हवाई चप्पल को होगा। कम से कम उत्तर भारत के संदर्भ में मैं कह सकती हूँ ! आम लोगों की ज़रूरत, सहूलियत और जेब का ख़याल शुरू से बाटा ने किया। मुमकिन है कि एक सदी पहले उन्होंने बड़े पैमाने पर कामगार वर्ग के लोगों के लिए चमड़े और कपड़े का जो जूता Batovky बनाया उसकी लोकप्रियता ने हवाई चप्पल बनाना सुझाया होगा। पहले व दूसरे विश्वयुद्ध के हालात ने भी उनको जूते-चप्पलों की दुनिया में तब्दीली लाने का जो मौका दिया, शायद उस दौरान यह बना होगा। या कौन जाने पुआल या तरह-तरह के रेशों से बने जापानी ज़ोरी से हवाई चप्पल की दास्तान जुड़ी है ? या फिर देश-विदेश में जड़ तलाशने के बजाय अपने यहाँ की खड़ाऊँ (पादुका) का ही विकसित रूप इसे क्यों न मानें ? उससे पवित्रता और प्राचीनता दोनों का खोल भी चढ़ जाएगा ! वैसे यह दिलचस्प शोध का विषय है। 

हवाई चप्पल की बात से उससे होनेवाली पिटाई का याद आना स्वाभाविक है। इसका लचीलापन वहाँ काम आता है। सट से लगने पर अच्छी खासी चोट लगती है ! बच्चों और बीवी की पिटाई के लिए सबसे सहज सुलभ हथियार रहा है यह। कवि सम्मेलनों में बोर करनेवाले कवियों और सभाओं में झूठे वादे करनेवाले नेताओं पर इसको आजमाने की खबर बीच-बीच में आती रहती है। हल्की होती है तो निशाना दूर-दूर तक लगाया जा सकता है। इन दिनों भक्तों की हवाई चप्पल का नया निशाना बन गए हैं बाबा लोग। चोरी-चकारी या छेड़-छाड़ में रँगे हाथ पकड़ानेवाले अपराधी भी इसे झेलते रहते हैं। सड़क छाप मजनुओं और शोहदों के लिए हवाई चप्पल की मार सबक तो नहीं है, मगर उसको लगानेवाली लड़की के विरोध करने की हिम्मत ज़रूर बढ़ती है ! 







सोमवार, 1 दिसंबर 2014

सुनो कारीगर (Suno karigar by Uday Prakash)


यह कच्ची 
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं 
जो अपने आप टूटती है 

रोज़-रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं 
जो आँखें खोल देती हैं अचानक 

सुनो, बहुत चुपचाप पाँवों से 
चला आता है कोई दुःख 
पलकें छूने के लिए 
सीने के भीतर आनेवाले 
कुछ अकेले दिनों तक 
पैठ जाने के लिए 

मैं एक अकेला 
थका-हारा कवि 
कुछ भी नहीं हूँ अकेला 
मेरी छोड़ी गयीं अधूरी लड़ाइयाँ 
मुझे और थका देंगी 

सुनो, वहीं था मैं 
अपनी थकान, निराशा, क्रोध 
आँसुओं, अकेलेपन और 
एकाध छोटी-मोटी 
खुशियों के साथ 

यहीं नींद मेरी टूटी थी 
कोई दुःख था शायद 
जो अब सिर्फ़ मेरा नहीं था 

अब सिर्फ़ मैं नहीं था अकेला 
अपने जागने में 

चलने के पहले 
एक बार और पुकारो मुझे 

मैं तुम्हारे साथ हूँ 

तुम्हारी पुकार की उँगलियाँ थाम कर 
चलता चला आऊँगा
तुम्हारे पीछे-पीछे 

अपने पिछले अँधेरों को पार करता। 

कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012  

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

बर्तन (Bartan by Purwa Bharadwaj)

इन दिनों घर में हूँ तो थोड़ी साज-सँभाल कर पा रही हूँ. आज शाम बारी बर्तनों की थी. मुझे बहुत चिढ़ होती है जब मैं खाना बनाने या परोसने चलूँ तो ठीक वही बर्तन समय पर न मिले जो मुझे चाहिए. अब छोलनी चाहिए तो छोलनी ही चाहिए, झंझरा से नहीं चलेगा और न ही बड़े चम्मच से. इसी तरह लोहे की कड़ाही चाहिए तो हिंडोलियम की कड़ाही से काम चलाना खिझा देता है. फिर यदि बैंगन की सब्ज़ी का स्वाद गड़बड़ाए तो दोष मेरा नहीं, बल्कि बर्तन का है. इसी चक्कर में आज मैंने बर्तन का ताखा उकट डाला. मुझे सुबह टिफिन का ढक्कन न मिलने की चिढ़ की सुरसुरी भी चढ़ गई. यह ठेठ औरतानापन है. हम बर्तनों की दुनिया में रहने के लिए ढाले गए हैं और इसे हमने आत्मसात भी कर लिया है, वरना ऐसी भी क्या हाय तौबा !

मेरी दिक्कत क्या है ? बर्तन खोजो तो जगह पर मिलेंगे नहीं. हमारे जैसों की रसोई तो बहुत करीने से होती नहीं है ! (जाकर महाराष्ट्र में देखना चाहिए ! मुझे वर्धा के लोगों की रसोई याद आई) मेरी डिज़ाइनर रसोई भी नहीं है जो अलग-अलग खानों में सजे बर्तन मिल जाएँ. लिहाज़ा लकड़ी के पटरेवाले ताखे (विश्वविद्यालय की कृपा से उसमें लकड़ी के पल्ले लगे हुए हैं. यह अलग बात है कि उनमें चूहों ने बड़े-बड़े सुराख बना दिए हैं) पर बर्तन होते हैं. सहूलियत के लिए प्लास्टिक की थोड़ी गहरी ट्रेनुमा चीज़ भी है जिसमें ढक्कन जैसे छोटे-छोटे बर्तन डाल देती हूँ. स्टील का बर्तन स्टैंड मध्यवर्गीय रसोईघर का हिस्सा है, सो मेरे यहाँ भी है और मेरे बर्तन स्टैंड पर थाली-तश्तरी (फुल प्लेट-हाफ प्लेट)  के अलावा ग्लास और कुछ कप आ जाते हैं. (वैसे कल ही मैं शामली के कैराना ब्लॉक के विजय सिंह पथिक राजकीय महाविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने गई थी तो खाना खाने के लिए हमें जिस कमरे में जहाँ ले जाया गया मैंने वहाँ स्टील का बर्तन स्टैंड देखा. मुझे लगा कि ज़रूर वहाँ कैंटीन होगी. मालूम हुआ कि वह होम साइंस का लैब है और इसीलिए स्टैंड के नीचे दो सिंक भी लगे थे) चम्मच स्टैंड भी है ही. काँटी ठोंक ठोंक कर कुकर के ढक्कन, बड़ी छन्नी, बैंगन पकानेवाली जाली वगैरह टाँगने का भी मैंने जुगाड़ बैठा लिया है. मगर कई चम्मच या दिल्लीवालों की ज़बान में पलटा कहलानेवाला (डोसे का अलग, जालीदार अलग, दही बड़े के लिए अलग) इधर-उधर मारा फिरता है क्योंकि वह न चम्मच स्टैंड में जाएगा और न उसके पीछे छेद है जो मैं कहीं लटका दूँ. काश बर्तन पर नाम लिखवाने की तरह बर्तन को अपनी सुविधानुसार रखने के लिए हम बर्तन में मनचाही जगह पर छेद करवा पाते ! लेकिन बर्तन के साथ हम जो चाहें कर सकते हैं क्या ?

बर्तन पर नाम लिखवाने से याद आया जब यह खूब चलन में था. मेरे ग्लास पर पूर्वा लिखा है और भैया की कटोरी पर चिंतन तो हमें बड़ा मज़ा आता था. अधिकतर बर्तनों पर पापा का नाम हुआ करता था. मुझे याद नहीं कि माँ का नाम किन बर्तनों पर था ! शायद कुछ पर उसने शौक से लिखवाया होगा. वैसे लड़की के मायके से आनेवाले कुछ बर्तनों पर नाम लिखवा दिया जाता था. आधुनिकता के नाम पर यह उदारता बरती जाती थी ! बर्तन की आधुनिक दुकानों पर मुफ्त में नाम लिखा जाता था, जैसे श्याम स्टील हाउस या बासन (पटना) में. बाद में फेरी पर बर्तन बेचनेवाले भी मशीन लेकर घूमने लगे. तीन साल पहले फुलवारी शरीफ में जब मैं बक्खो समुदाय के बीच शोध का काम कर रही थी तो वहाँ बर्तन की फेरी लगानेवाली औरतों ने मुझे बताया था कि आजकल बर्तनों पर नाम लिखवाने का फैशन चला गया है. अभी मुझे मन कर रहा है कि इसका पूरा समाजशास्त्रीय विश्लेषण कहीं पढ़ने को मिल जाए कि कब कहाँ और कैसे बर्तन पर नाम लिखवाना शुरू हुआ. यह केवल फैशन था या रसोई से रिश्ता मजबूत बनाए रखने की युक्ति थी ? यह ख़त्म क्यों हुआ ? और बर्तनों को केंद्र में रखकर आजकल कौन सी युक्ति चल रही है ?
समझा जाता है कि बर्तन गृहिणी के जिम्मे होते हैं, मगर उनके इस्तेमाल से लेकर खरीदने-बेचने का हक़ भी औरतों को नहीं हुआ करता है. या नहीं हुआ करता था ? मेरी माँ को मायके से जो बर्तन मिले उनमें से कुछ बिना उससे पूछे मेरी फुआ की शादी में दे दिए गए, इसका किस्सा मैंने सुना है. उसी तरह मामा-बाबा (दादी-दादा) की मृत्यु के बाद पीतल का परात और पीतल की कठौती किसे मिलेगा, यह विवाद का मुद्दा रहा. असल बात यह है कि बर्तन संसाधन भी हैं और विरासत भी. किसे क्या मिलेगा और कब मिलेगा और किसकी इजाज़त से मिलेगा, इसका फैसला तो पितृसत्तात्मक परिवार ही करता है न !

शादी-ब्याह में प्रदर्शनीय वस्तु की तरह बर्तन कितने महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, यह अभी सोच रही हूँ. खूँटे की तरह. बेटी को शादी में बर्तन देकर (गहना-गुड़िया और कपड़ा-लत्ता जोड़कर) मान लिया जाता है कि उसका हिस्सा दे दिया गया. शुरुआत सोने-चाँदी से करते हैं. जिसकी जितनी हैसियत उतनी महँगी धातु का बर्तन. कुछ नहीं तो कम से कम पाँच चाँदी के बर्तन होने ही चाहिए. चाँदी का गगरा न हो तो लोटा ही सही. उसके बाद फूल और पीतल-काँसा के बर्तन का नंबर आता है. फूल इसलिए कि पवित्र धातु है और जो जितना पवित्र होता है वह उतना महँगा ! स्टील की औकात कम थी, इसलिए पहले स्टील के बर्तन नहीं दिए जाते थे. मगर जब 70 के दशक में इसका प्रचार बढ़ा और स्टील के किचेन सेट और डिनर सेट बाज़ार में छा गए. उनका असर तुरत तिलक-फलदान पर पड़ा और हमें चमचमाते स्टील के बर्तन से घिरे दूल्हे महोदय भले लगने लगे ! बर्तनों को करीने से सजाया जाता था, नातेदारों-मोहल्लेवालों को दिखाया जाता था ताकि लोग लड़कावाले और थोड़ी कम, मगर लड़कीवाले की हैसियत भी देख लें. लड़की की हैसियत का कहीं ज़िक्र नहीं होता. प्रायः लड़की तो बर्तन की तरह हस्तांतरित होने को अभिशप्त है ! इन दिनों एक वर्ग में जब तिलक-फलदान की रस्म की जगह इंगेजमेंट और लेडीज़ संगीत होने लगे हैं, तब बर्तन रस्मों में दिखाए नहीं जाते, बल्कि खुद ब खुद मॉड्यूलर किचेन में सज जाते हैं !

मुझे माँ का बर्तनों को नाम देना अच्छा लगता था. यह नाम कभी नंबर होता था कभी उसका आकार तो कभी उसका दाम. जैसे मेरे यहाँ नौ रुपएवाली कटोरी थी और पहलवाली तश्तरी थी. 8-10 भगोनों में सबसे ज़्यादा 4 नंबर और 2 नंबर वाला भगोना इस्तेमाल होता था. अपनी शादी के बाद मैं जब अलग हुई तो पुराने भगोनों का नंबर नहीं भूली, मगर जब उनकी संख्या 20-25 हो गई तो नए भगोनों का नंबर याद नहीं हो सका. इसने कहीं न कहीं मेरा दुख बढ़ाया होगा, क्या इसे कोई समझ सकता है ? शादी के बाद घर छूटना में बर्तनों से छूटना भी तो है !

नए घर में, चाहे वह ससुराल हो या आपका डेरा हो, बर्तनों से दोस्ती होते-होते होती है. और इससे पहचान होती है कि बहू और पत्नी के रूप में आपने कितना अपने घर को अपनाया है ! एक समय आता है कि आप मायके के बर्तनों का स्पर्श भूल जाते हैं. मैं भी बहुत कुछ भूल गई हूँ. मुझे अब खड़े किनारेवाली तश्तरी छूकर वह नहीं लगता जो पहले माँ उसमें चूड़ा-मटर देती थी तो लगता था. सीवान के बाद अब चंडीगढ़ में कौन सा बर्तन नया है, यह शायद याद रहता है. पिछली यात्रा के बाद चंडीगढ़ की अगली यात्रा में कप का डिज़ाइन बदल जाता है तो वह भी ध्यान खींच लेता है. तो बर्तन अलगाव और समावेश का ज़रिया अनजानते बन जाता है न ?

मेरे घर में कौन बर्तन कैसे और कब आया, यह संदर्भ मुझे अधिक याद रहता है. जैसे कटहल काटने के लिए मैं जैसे ही बड़ा चाकू (यह चौपर जैसा है और खासा बड़ा है) उठाती हूँ मुझे याद आता है कि इसे मेघालय की तरफ से उपहारस्वरूप ननदोई लाए थे या बोरोसिल वाला ग्लास नीरा भाभी ने मेरी शादी की दूसरी वर्षगाँठ के मौके पर मुझे दिया था या तीन साल पहले धनतेरस में मैंने नयावाला कुकर खरीदा था या पुआ बनाने के लिए लोहे की ताई देवघर से आई थी. कुछ यही आदत मेरी बेटी की है. उसे भी फलाना कप या फलानी प्लेट चाहिए. इन संदर्भों की वजह से ही शायद टूटे और घिसे बर्तनों का मोह भी ज़्यादा होता है. मुझे अपना गैस तंदूर नहीं भूलता जिसमें पटना में मैं खूब लिट्टी बनाती थी और एक बार मैंने उसी में बनाकर पिज़्ज़ा पार्टी की थी. बर्तन में यदि संदर्भ पिरोए हुए हैं तो क्या इसका मतलब लोगों और जगहों की याद ही बर्तनों को महत्त्वपूर्ण बना देते हैं ?

प्रतिरोध और गुस्से के इज़हार में बर्तन की भूमिका से हम सब परिचित हैं. इसीलिए घरवालों को सबक सिखाने के लिए अपने बर्तन अलग कर लेने का नुस्खा भी चलता है. माँ जब गुस्से में रहती थी तो ढेर सारा बर्तन मलने बैठ जाती थी. अब श्रम के साथ जेंडर के रिश्ते की समझ ने बर्तनों के साथ औरतों के बर्ताव और उनकी मनःस्थिति को नई निगाह से देखने का अवसर दिया है. घरों में काम करनेवाली का तनाव बर्तनों की झनक-पटक के रूप में निकलता है. यदि किसी पर बस नहीं चले तो गुस्सा भी बर्तनों पर निकलता है. रसोई से ठांय-ठांय की आवाज़ आ रही है तो इसका मतलब है कि असल में हलचल कहीं और मची है. वैसे गुस्सा भी अलग-अलग ढंग से बर्तन पर और बर्तन के ज़रिए निकलता है. हमारे एक मित्र ने गुस्से में ग्लास को इतनी ज़ोर से दबाया कि वह पिचक ही गया. खाना खराब होने पर या कुछ भी नागवार गुज़रने पर घर के पुरुष थाली भंजाकर फेंक दिया करते हैं. सभ्य हुए तो खिसकाकर उठ जाएँगे और अगले को संदेश मिल जाएगा कि कायदे से रहिए !

छूत-छात में बर्तन हथियार का काम करते हैं. बर्तन अलग करना तो धर्मनिकाले या जाति बाहर करने जैसी सज़ा है और इस बहाने आपको अपने दायरे में रहने को कहा जाता है. मुसलमान और तथाकथित नीची जाति क्या, गरीब रिक्शावाले के लिए भी अलग बर्तन रखते हैं लोग. एक दिन मैंने दो घर छोड़कर काम कर रहे मज़दूर को बोतल के साथ ग्लास दे दिया तो रसोई में मेरी मदद करनेवाली मंजु ने ऐतराज किया. बर्तन हर जगह सद्भाव, समानता और अधिकार का प्रतीक बने रहें, यह कामना क्या की जा सकती है ? दूर से अपनी आचमनी से चरणामृत देनेवाले पंडित जी को यह मंजूर होगा क्या ?

बर्तन के साथ पवित्रता का जोड़ उसके उपयोग की जगह और तरीके पर भी निर्भर करता है. पवित्रता के एक छोर पर पूजा के बर्तन हैं तो दूसरे छोर पर पाखाने का बर्तन  इसी तरह जूठे-सँखरी बर्तन और निरैठ बर्तन के बीच की खींचतान काफी किचकिच कराती है. शाकाहार और मांसाहार भी एक बड़ा आधार है बँटवारे का. खासकर मेरे घर में. मेरी माँ मेरे घर में खाती नहीं है क्योंकि मेरा सारा बर्तन भटभेड़ है. माँ बचपन से शाकाहारी है और उसकी रसोई में मांस-मछली का प्रवेश निषिद्ध है. वह पटना से आती है तो अपना ग्लास लेकर. धीरे-धीरे मैंने उसके लिए अलग चूल्हा और ज़रूरी बर्तन ले लिया है. साल-दो साल में जब वह आती है तो बाहर के स्टोर में रखे उन बर्तनों की किस्मत खुलती है. पहले मैं नाराज़ होती थी, लेकिन अब मैंने मान लिया है कि उसको अपने तरीके से रहने का इतना हक़ तो मैं दे सकती हूँ.

पहचान का आधार भी होते हैं बर्तन. तामचीनी के बर्तन से हमें फौजी याद आते थे या मुसलमान. क्रॉकरी भी रईस मुसलमान घरों की पहचान थी. हालाँकि अब मध्यवर्ग में इसे अपनाना सुरुचि का प्रमाण बन गया है. रह गई मिट्टी के बर्तन की बात, तो एक तरफ पूजा और श्राद्ध से लेकर दही जमाने में इसका इस्तेमाल होता है तो दूसरी तरफ फुटपाथ या खलिहान में मिट्टी की हांडी चढ़ती है. वह भी साबुत हो ज़रूरी नहीं. गरीब टूटे-फूटे बर्तन को अपशकुन मानकर नहीं बैठते, बल्कि गनीमत मानकर उसी में चावल भी पका लेते हैं. द्रौपदी के पात्र का मिथक उनके सामने सबसे ज़्यादा साफ रहता है ! इस तरह किसी के लिए लक्ष्मी के प्रतीक हैं बर्तन तो किसी के लिए अभाव और दरिद्रता की पहचान.

खुशी ज़ाहिर करने में बर्तन बजाना कई इलाकों में होता है. बेटे के जन्म पर थाली बजाना होता है और प्रगतिशील लोग बेटी के जन्म पर भी थाली बजाने लगे हैं  अब किस थाली से कितनी आवाज़ निकालनी है यह परिवार तय करता है और परिवार जिस सामाजिक ढाँचे में पैवस्त है उससे ग्रहण करता है. ध्यान खींचने के लिए भी बर्तन बजाया जाता है. बर्तन की साझेदारी प्रेम दर्शाने का तरीका है. नए नवेले जोड़े एक बर्तन में खाकर मुदित होते हैं तो पति के छोड़े हुए बर्तन में खाना पत्नी धर्म है ! बैना अपने बर्तन में भेजकर हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं. यही नहीं, साथ रहकर लड़ने-झगड़ने को स्वाभाविक बनाते हुए भी बर्तन को लेकर कहावत है. कहा जाता है कि जहाँ चार बर्तन होंगे वे ठनकेंगे ही, टकराएँगे ही. फिर भी ठनकने-खनकने-ढनमनाने के स्वभाव वाले बर्तनों के साथ कठोरता से पेश आना अच्छी बात नहीं है. नज़ाकत बरतने की माँग सब करते हैं, केवल काँच के बर्तन नहीं.

भई बर्तन की कथा तो बहुत लंबी है ! अब बर्तन के आकार-प्रकार का अलग खेल है. अलग देश ही नहीं, अलग इलाके, अलग धर्म अलग वर्ग और अलग जाति-जनजाति सबके बर्तनों की बनावट में अंतर मिलता है. मगर बधना को नेती करने के टोंटीवाले लोटे से अलग मानकर मगर उस पर हँसा क्यों जाए ? हाँ, उससे सुरुचि और कुरुचि का रिश्ता माना हुआ है. अपूर्व को खाने में यदि बड़ा चम्मच चला गया तो उनका मज़ा किरकिरा हो जाता है. वे उठकर अपनी पसंद का छोटा चम्मच लेंगे. कटोरी में दाल दी गई है तो उसे भात पर पलट लेंगे क्योंकि उन्हें बर्तन बर्बाद करना पसंद नहीं. वे बर्तन को मेहनत से सीधे जोड़कर देखते हैं. उनका कहना है कि बर्तन कम खर्च करो, कम गंदा करो ताकि पानी भी बचा सको. मैं मेहनतवाली तर्क की तो कायल हूँ क्योंकि कुकर-कड़ाही रगड़ना पड़े तो पता चलता है. हालाँकि आजकल उससे ज़्यादा मेहनत मुझे काँच के बर्तनों की सँभाल और कप की डंडी और मुड़े हुए किनारेवाली छिपली को ब्रश से साफ करने में लगती है. साबुन-पानी की बचत पर मेरा उतना ध्यान नहीं जाता क्योंकि तरह तरह के बर्तन निकाल कर उनमें सजाकर खाना परोसना तो कला है और प्रतिष्ठा का सवाल भी. मैं कामकाजी महिला के साथ कलावंत महिला भी तो बनना चाहती हूँ ? जिसे हर वक्त बर्तनों के साथ रहना पसंद न हो, मगर बर्तनों पर दावा छोड़ना अपना इलाका छोड़ना लगेगा !



मंगलवार, 25 नवंबर 2014

इंतज़ार की रात (Intazar ki raat by Ibne Insha)

उमड़ते आते हैं शाम के साये 
दम-ब-दम बढ़ रही है तारीकी 
एक दुनिया उदास है लेकिन 
कुछ से कुछ सोचकर दिले-वहशी 
मुस्कराने लगा है - जाने क्यों ?
वो चला कारवाँ सितारों का 
झूमता नाचता सूए-मंज़िल 
वो उफ़क़ की जबीं दमक उट्ठी 
वो फ़ज़ा मुस्कराई, लेकिन दिल 
डूबता जा रहा है - जाने क्यों ?


उफ़क़ = क्षितिज     जबीं = मस्तक 

शायर - इब्ने इंशा 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1990 

सोमवार, 24 नवंबर 2014

उदासी (Udasi by Purwa Bharadwaj)

मन उदास है. यों उदासी की वजह कई हो सकती है, लेकिन आज खुर्शीद के जन्मदिन को याद करके मन भारी है.

उदासी शायद याद से अनिवार्यतः जुड़ी होती है. कुछ न कुछ याद करके ही हम उदास हो जाया करते हैं. मुझे 'हिरोशिमा के फूल और वियतनाम को प्यार' किताब उदास कर देती है कभी कोई इंसान याद आता है, कभी किसी की कोई बात, कभी किसी की कोई हरकत, कभी कोई घटना, कभी कोई रिश्ता. इन सबके मूल में कोई न कोई भावना होती है जिसे हम याद करते हैं, जैसे प्यार-मुहब्बत, लाड़-दुलार, मान-अपमान या लड़ाई-झगड़े को. इंसान और इंसानी भावनाओं से जुड़ी कोई जगह या घर या नदी या फिल्म या गीत या सामान ... कुछ भी याद आ जाता है. बाज़ दफ़ा याद की कोई शक्ल भी नहीं होती और उसका अहसास भर आपको उदास कर देता है.

अधिकतर व्यक्ति के संदर्भ से और उसकी पहचान से उदासी का कारण, उसका स्वरूप और उदासी व्यक्त करने का तरीका निर्धारित होता है. बच्चा क्यों और कैसे उदास होता है, गरीब औरत की उदासी कैसी होगी, शारीरिक या मानसिक रूप से विशेष आवश्यकतावाले किशोर की उदासी कब और कैसे व्यक्त होगी, एक शहरी धन्ना सेठ क्योंकर उदास होगा, मेले में खेल दिखानेवाली नट लड़की की उदासी किसको दिखेगी - इनके जवाब खोजने के लिए व्यक्ति विशेष और उसके परिवेश को समझना पड़ता है.
मगर व्यक्ति केंद्रित हो उदासी, यह आवश्यक नहीं है. हिरोशिमा और वियतनाम आपको उदास कर जा सकता है तो बामियान बुद्ध का भंजन और शामली में लगा शिविर भी. अक्सर परिचय के दायरे में आनेवाली बातें उदासी की वजह बनती हैं, परंतु दूर-दराज़ की अपरिचित चीज़ें भी वजह बन सकती हैं. आज मैंने केनिया में हिंसा की खबर पढ़ी तो मन उदास हुआ. याद के अलावा खबर में उदासी के बीज छिपे होते हैं. दुनिया के किसी भी हिस्से की कोई खबर आपको उदास कर जाती है. जो घट चुका है, वही नहीं, बल्कि भविष्य में आनेवाली खबर भी आपको पहले से उदास कर जा सकती है. उसमें यदि आप असहाय हैं, कुछ बदल नहीं सकते हैं तो तीव्रता बढ़ जाती है. यदि आप हालत में थोड़ा भी परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं तो उदासी घट सकती है, छँट सकती है.

मेरे हिसाब से ज़रूरी नहीं कि हमेशा उदासी दुख, निराशा, तकलीफ और दर्द से जुड़ी ही हो. बहुत खुशगवार और खुशनुमा चीज़ें भी उदास कर जा सकती हैं. कुछ खोने, गँवा देने, छूट जाने से ज़रूर उदासी आपको घेर लेती है, मगर उस उदासी का कारण मालूम होने से उस पर काबू पाना आसान होता है. परेशानी तब बढ़ती है जब आपको उदासी का कारण समझ में नहीं आता, जब खुशी में उदासी के कण घुल-मिल जाते हैं. दूसरों को ही नहीं, खुद को भी यह अजीब लगता है, लेकिन इस पर बस तो है नहीं ! संभवतः भावी दुख-तकलीफ की आशंका उसकी जड़ में होती होगी जिस पर हम ऊँगली भी नहीं रखना चाहते हैं.

हर हाल में उदासी से मुझे छुट्टी चाहिए. मुझे ही नहीं, अधिकांश लोगों को इससे घबराहट होती है. हम जल्दी से जल्दी से इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं. घरेलू नुस्खे अपनाते हैं, आस-पड़ोस की राय पर चलते हैं, दोस्त-मुहिम का साथ मुट्ठी में पकड़ कर बैठ जाते हैं और भरसक अपने को व्यस्त रखते हैं. लेकिन कई बार उदासी का हल राजनीतिक होता है जो होता नहीं है. पूरे के पूरे समुदाय, पूरी की पूरी कौम को उदासी में धकेलने की जिम्मेदारी भला कौन लेता है ?

उदासी की अपनी लय होती है. वह कभी ऊबड़-खाबड़ होती है और कभी समगति. लय में आने के पहले ही इसे ख़त्म कर देना चाहिए, वरना यह अच्छी लगने लगती है. उदासी का एक पहलू खूबसूरती है और खूबसूरती का भी एक पहलू उदासी है. इससे मोह हो जाता है और फिर यह कुंडली मारकर बैठने लगती है. लोगों का ध्यान खींचने लगती है और तब हम उसका रस लेने लगते हैं. उदास होना काव्यमय हो जाता है. उदास औरत, उदास व्यक्तित्व, उदास रात, उदास शाम, उदास कविता, उदास फूल, उदास चाँद और न जाने क्या-क्या ! गनीमत है कि मैं कविता नहीं लिखती हूँ वरना कब का उदासी पर लिख मारती.
अक्सर उदासी निष्क्रियता की तरफ ले जाती है. बहुत शोर-शराबे, भीड़-भाड़ और नाच-गाने के बीच भी यदि आप उदास महसूस कर रहे हैं तो आपको कुछ करने का मन नहीं करता है. हाथ-पैर क्या, ज़बान हिलाने का मन भी नहीं करता है. चुप्पी से उदासी का रिश्ता तो जाना-पहचाना है. मेरे साथ अक्सर यह होता है और मैं उसका कारण खोजने में उलझ कर रह जाती हूँ. मुझे लगता है कि अकेलापन महसूस करना उदासी को जन्म देता है और आप फिर सबसे अपने को काटने लगते हैं और फिर उदासी गहराती जाती है. हालाँकि मैंने मनोविज्ञान नहीं पढ़ा है (इंटरमीडिएट को छोड़कर), लेकिन लगता है कि यह पूरा चक्र है क्योंकि अकेलापन उदासी का परिणाम भी है. आप बहुत बार दोस्तों-हितैषियों को परे धकेलकर जबरन अकेलापन ओढ़ भी लेते हैं.
जब उदासी आपको आक्रामक बना दे तब चिंता होने लगती है. उसके पहले जब तक आप अकेले उससे जूझ रहे हों मामला हाथ में रहता है, भले वह आपको अंदर ही अंदर खोखला कर दे. तबतक दुनिया बाखबर होकर भी बेखबर बनी रहती है. नींद टूटती है तब जब उदासी का लावा फूटता है. यह आस-पास को भी प्रभावित करता है. अपने आपको तो नष्ट कर ही देता है.
यदि उदासी क्षणिक है तब तो उससे निपटा जा सकता है, लेकिन वह लंबे समय तक तारी रहे तो मारक होता है. जैसे भँवर होता है वैसे ही है उदासी. आप उसमें गहरे फँसे तो फँसते ही चले जाते हैं. इसलिए उदासी को अवसाद की दिशा में बढ़ने नहीं देना चाहिए जो कि भँवर के भीतर का भँवर है. इससे खींचकर निकालने के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए - बिना इसकी परवाह किए कि व्यक्ति कौन है. आज मैं यह नहीं सोच रही हूँ कि मेरे लिए किसी ने हाथ बढ़ाया या नहीं, बल्कि यह सोच रही हूँ कि मैं हाथ बढ़ाने में कब कब चूक गई हूँ !

बड़े दिनों बाद आज फिर हेमंत कुमार का यह गाना सुना था - "बस एक चुप सी लगी है. नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है..."