Translate

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

हत्यारे (Hatyare by Manmohan)

हत्यारे अक्सर आते हैं 

वे दाएँ बाएँ रहते हैं 
जाने पहचाने लगते हैं 

वे सुबह-शाम "कुछ काम धाम तो नहीं"
पूछने आते हैं 
बिना बात हो मेहरबान वे बिगड़े काम बनाते हैं 
 
जब-जब हम चौंक के जगते हैं  
या जी धक् से रह जाता है 
कुछ आगे का दिख जाता है 
 
जब भी यूँ व्याकुल होते हैं 
झटपट चौकस हो जाते हैं 
और खड़े कान सरपट दौड़े 
वे सीधे हम तक आते हैं 
 
वे बहुत दिलासा देते हैं 
और बहुत उपाय सुझाते हैं 
 
कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

बुधवार, 29 जनवरी 2014

कल (Kal by Dhoomil)

देह के बसन्त में वापस लौटते हुए, कल तुम पाओगे 
अपनी नफ़रत के लिए कोई कविता ज़रूरी नहीं है 
अपने जालों के साथ लौट जाएँगे 
वे जो शरीरों की बिक्री में माहिर हैं l 

कल तुम ज़मीन पर पड़ी होगी और बसन्त पेड़ पर होगा 
नीमतल्ला, बेलियाघाट, जोड़ाबगान 
फूलों की मृत्यु से उदास फूलदान 
और उगलदान में कोई फ़र्क नहीं होगा l

कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

केन किनारे (Ken kinare by Kedarnath Agrawal)

केन किनारे
पल्थी मारे
पत्थर बैठा गुमसुम !
सूरज पत्थर 
सेंक रहा है गुमसुम !
साँप हवा में 
झूम रहा है गुमसुम !
पानी पत्थर 
चाट रहा है गुमसुम !
सहमा राही 
ताक रहा है गुमसुम !


कवि - केदारनाथ अग्रवाल 
संकलन - कविता नदी 
संपादक - प्रयाग शुक्ल 
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए 
                किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2002

रविवार, 19 जनवरी 2014

कोई और है (Koi aur hai by Nasir Kazmi)

कोई और है, नहीं तू नहीं, मेरे रूबरू कोई और है 
बड़ी देर में तुझे देखकर ये लगा कि तू कोई और है 
 
ये गुनाहगारों की सरज़मीं है बहिश्त से भी सिवा हसीं 
मगर इस दयार की ख़ाक में सबबे-नमू कोई और है 
 
जिसे ढूँढ़ता हूँ गली-गली वो है मेरे जैसा ही आदमी 
मगर आदमी के लिबास में वो फ़रिश्ता-खू कोई और है 

कोई और शै है वो बेख़बर जो शराब से भी है तेज़तर 
मिरा मैकदा कहीं और है और मिरा हमसुबू कोई और है 
 
सिवा = बढ़कर 
सबबे-नमू = सामने आने का कारण 
फ़रिश्ता-खू = फ़रिश्तों जैसा स्वभाववाला
हमसुबू = साथ पीनेवाला
 
शायर - नासिर काज़मी
संग्रह - ध्यान यात्रा 
संपादक - शरद दत्त, बलराज मेनरा 
प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1994
 
उर्दू कविता हो और ख़ुर्शीद याद न आएँ, भला यह कैसे होगा ! फिर भी समय है कि बीत ही जाता है. आज से एक महीने पहले उनको हम सब निगमबोध छोड़ आए थे.

सोमवार, 13 जनवरी 2014

लाखों का दर्द (Lakhon ka dard by Raghuvir Sahai)

लखूखा आदमी दुनिया में  रहता है 
मेरे उस दर्द से अनजान जो कि हर वक़्त 
मुझे रहता है हिन्दी में दर्द की सैंकड़ों 
कविताओं के बावजूद 
 
और लाखों आदमियों का जो दर्द मैं जानता हूँ 
उससे अनजान 
लखूखा आदमी दुनिया में रहे जाता है l 
  
कवि - रघुवीर सहाय
किताब - रघुवीर सहाय रचनावली, खंड - 1 में 'आत्महत्या के विरुद्ध' से 
संपादक - सुरेश शर्मा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

रविवार, 12 जनवरी 2014

मुस्तक़बिल (Mustaqbil by Makhdoom Mohiuddin)

चला आ रहा है चला आ रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
 
         धड़कते दिलों की सदा आ रही है
         अन्धेरे में आवाज़े पा आ रही है 
         बुलाता है कोई निदा आ रही है l  
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l 

          न सुल्तानी-ए तीरगी है ज़ारी 
          न तख्ते सुलेमां न सरमायादारी 
          गरीबों की चीख़ें न शाही सवारी l
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l 

           उड़ाता हुआ परचमे ज़िन्दगानी 
           सुनाता हुआ एहदे नौ की कहानी 
           जिलू में ज़फ़रमन्दिया शादमानी
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
           
           सफीना मसावत का खे रहा है
           जवानों से कुर्बानियाँ ले रहा है 
           गुलामों को आज़ादियाँ दे रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l 
चला आ रहा है चला आ रहा है l
 
 
मुस्तक़बिल = भविष्य 
आवाज़े पा = पैर की आवाज़ 
निदा = आह्वान 
एहदे नौ = नवयुग 
जिलू = सामने
ज़फ़रमन्दिया = सफलताएँ 
शादमानी = खुशी से भरी हुई 
सफीना = नाव 
मसावात = समानता
 
शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

धनकटनी (Dhankatani by Ram Iqabal singh 'Rakesh')

दुपहरिया अगहन की 
शीतल मन्द तपन की l 
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी l 

ऊबड़-खाबड़ 
खेतों की छाती पर 
विपुल शालि-दल 
स्वप्नों से भर अंचल 
कंगालों के सम्बल 
राशि-राशि फल 
झुक-झुक पड़ते बोझल 
संजीरा, गज केशर 
मन सरिया, दुध काँड़र 
बाँस बरेली, कान्हर 
तुलसी फूल मनोहर 
सबुजे, गेहुँए, साँवर 
रूप धौर, चित कावर 
वर्ण, गन्ध मधु अक्षर 
पलकों में मृदु भर-भर 
रंग-रंग के सुन्दर 
जिन पर जीवन निर्भर 
जिनसे तृप्ति निरन्तर 
नवोल्लसित भूतल पर 
ऊर्वर 
लहराते रह-रहकर l 

दुपहरिया अगहन की 
शीतल हरिचन्दन की l 
आते झोंके थम-थम,
धनखेतों से गम-गम l 

मूढ़, असभ्य, उपेक्षित 
पीड़ित, शोषित, लुण्ठित 
बहरे, गूँगे, लँगड़े 
बच्चे, बुड्ढे, तगड़े 
ओढ़े जर्जर चिथड़े 
तूल जलद-से उमड़े 
मरभूखे दल-के-दल 
पके शस्य-फल 
शाद्वल-शाद्वल 
काट रहे लो, चर-चर 
हँसिया से छप, छप, छप !

देखो, अन्ध विवर को 
चूहे के उस घर को 
मुसहर के दो बच्चे 
कोमल वय के कच्चे 
कद के छोटे-छोटे 
मांसल, मोटे-मोटे 
नटखट, भोले-भाले 
मैले, काले-काले 
भगवे पहने ढीले 
काजर-से कजरी ले 
कोड़-कोड़ खुरपी से 
पूँछ पकड़ फुर्ती से 
पटक-पटक ढेले पर 
मृत चूहे से लेकर 
बाँध लिए पछुवे में 
भगवे के ढकुवे में 

खुरच-खुरच अन्दर से 
चुनते तंग विवर से 
विस्फारित अधकुतरे 
मटमैले, धनकतरे 

चूहे का रमसालन 
नमकीला, मन भावन 
और, मजे की निखरी 
पके धान की खिचरी 
मालिक की धनकटनी
खूब उड़ेगी चटनी 

कूड़े करकट संकुल 
बिल के कुतरे तंडुल 
गन्दे, उञ्छ, अपावन 
उदर-पूर्ति के साधन 

अखिल धान के अम्बर 
प्रियतर, शुचितर, सुखकर 
हहर-हहरकर 
कटते छप-छप 
हँसिया से चर-चर-चर !

दुपहरिया अगहन की 
शीतल मन्द तपन की l 
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी !
                 - जनवरी, 1912
 
कवि - रामइकबाल सिंह 'राकेश' किताब - राकेश समग्र संपादन - नंदकिशोर नवल प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा 
और वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

धूप (Dhoop by Ashok Vajpeyi)

धूप  में इतनी खिलखिलाती हरियाली 
चिड़ियों की ऐसी चहचहाहट
क्या धूप ऐसे ही गाती है 
जब थोड़ा-सा अलसाकर 
वापस आती है !
(नान्त, 2 जून, 2012)


कवि - अशोक वाजपेयी   
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

निशा-निमन्त्रण (Nisha-nimantran by Bachchan)

              साथी, सो न, कर कुछ बात !

              बोलते उडुगण परस्पर,
              तरु दलों में मन्द 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल-स्नात !
             साथी, सो न, कर कुछ बात !

             बात करते सो गया तू,
             स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
             साथी, सो न, कर कुछ बात !

             पूर्ण कर दे वह कहानी,
             जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर-अज्ञात !
             साथी, सो न, कर कुछ बात !

कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986


मन है कि स्थिर ही नहीं हो रहा ! बच्चन की ये पंक्तियाँ  - "साथी, सो न, कर कुछ बात !" बार-बार याद आ रही हैं.

रविवार, 5 जनवरी 2014

क्या कहिए (Kya kahiye by Majaz)

हुस्न फिर फ़ित्नागर है, क्या कहिए 
दिल की जानिब नज़र है, क्या कहिए 

फिर वही रहगुज़र है, क्या कहिए 
ज़िन्दगी राह पर है, क्या कहिए 

हुस्न ख़ुद पर्दा-दर है, क्या कहिए 
ये हमारी नज़र है, क्या कहिए 

आह तो बेअसर थी बरसों से 
नग़मा भी बेअसर है, क्या कहिए 

हुस्न है अब न हुस्न के जल्वे 
अब नज़र ही नज़र है, क्या कहिए 

आज भी है 'मजाज़' ख़ाकनशीं 
और नज़र अर्श पर है, क्या कहिए 

जानिब = तरफ़                  पर्दा-दर = पर्दे को चीरनेवाला 
ख़ाकनशीं = धूल में पड़ा      अर्श = आकाश

शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

दोस्त (Dost by Amrita Pritam)


दोस्त ! तुमने ख़त तो लिखा था 
पर दुनिया की मार्फ़त डाला 
और दोस्त ! मोहब्बत का ख़त 
जो धरती के नाप का होता है 
जो अम्बर के नाप का होता है 
वह दुनियावालों ने पकड़कर 
एक क़ौम जितना कतर कर 
क़ौम के नाप का कर डाला … 

और फिर शहरों में चर्चा हुई 
वह तेरा ख़त जो मेरे नाम था 
लोग कहते हैं 
कि मज़हब के बदन पर 
वह बहुत ढीला लगता 
सो ख़त की इबारत को उन्होंने 
कई जगह से फाड़ लिया था … 

और आगे तू जानता 
कि वे कैसे माथे 
जिनकी समझ के नाप 
हर अक्षर ही खुला आता 
सो उन्होंने अपने माथे 
अक्षरों पर पटके 
और हर अक्षर उधेड़ डाला था … 

और मुझे जो ख़त नहीं मिला 
पर जिसकी मार्फ़त आया 
वह दुनिया दुखी है - कि मैं 
उस ख़त के जवाब जैसी हूँ … 

यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983