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रविवार, 5 जनवरी 2014

क्या कहिए (Kya kahiye by Majaz)

हुस्न फिर फ़ित्नागर है, क्या कहिए 
दिल की जानिब नज़र है, क्या कहिए 

फिर वही रहगुज़र है, क्या कहिए 
ज़िन्दगी राह पर है, क्या कहिए 

हुस्न ख़ुद पर्दा-दर है, क्या कहिए 
ये हमारी नज़र है, क्या कहिए 

आह तो बेअसर थी बरसों से 
नग़मा भी बेअसर है, क्या कहिए 

हुस्न है अब न हुस्न के जल्वे 
अब नज़र ही नज़र है, क्या कहिए 

आज भी है 'मजाज़' ख़ाकनशीं 
और नज़र अर्श पर है, क्या कहिए 

जानिब = तरफ़                  पर्दा-दर = पर्दे को चीरनेवाला 
ख़ाकनशीं = धूल में पड़ा      अर्श = आकाश

शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

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