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बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

वसन्त का स्वागत (Vasant ka swagat by Hynne)

परियों के मंजीर लगे फिर बोलने,
किरण लगी जल में फिर केसर घोलने l 

मधुऋतु आयी, स्यात, गन्ध छाने लगी,
फूलों का सन्देश वायु लाने लगी l 

पत्ती-पत्ती लगी मस्त हो झूमने l 
जाओ मेरे गीत ! जंगल में घूमने l 

हरियाली हो जहाँ वहाँ वन्दन करो,
मधुऋतु की सुषमा का अभिनन्दन करो l 

सभी समागत फूलों को सत्कार दो l 
मिले कहीं पाटल तो उसको प्यार दो l


जर्मन कवि - हेनरिक हाइने (1799-1856)
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रामधारी सिंह दिनकर
संकलन - सीपी और शंख 
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, दूसरा संस्करण - 1997

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

नागसभा का नाच (Nagsabha ka nach by Meeraji)

नागराज से, नागराज से मिलने जाऊँ आज 
नागराज सागर में बैठे सर पर पहने ताज 
नागराज की सभा जमी है, ख़ुशबुएँ लहराएँ 
बहती, रुकती, उलझती जाती, मन को मस्त बनाएँ 
चन्दरमाँ की किरनें आएँ, बल खाएँ, बल खाएँ 
नन्हे-नन्हे, हलके-हलके, मीठे गीत सुनाएँ 
गाते-गाते थकती जाएँ, सोएँ सुख की नींद 
(नागसभा में) हल्की-हल्की, मीठी-मीठी नींद
कुछ घड़ियाँ यूँ बीतें, और फिर संख बजाएँ नाग 
वहशी और बेबाक, अनोखे नश्शे लाएँ नाग 
सूनी किरनें जाग उठें, और नाचें सुन्दर नाच 
देवदासी याद आ जाए, हाँ, और मन्दिर, नाच 
नागसभा के नाच अनोखे, सारा सागर-नाच 
मेरा मन भी बनता जाए देख-देखकर-नाच  

शायर - मीराजी  संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी  संपादक - नरेश 'नदीम' प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

देवदासी के ज़िक्र को छोड़ दें तो पूरी नज़म अभी की राजनीतिक उठा-पटक को ध्यान में रखकर लिखी गई  मालूम पड़ रही है।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

फिर (Phir by Parveen Shakir)


सुकूं भी ख़्वाब हुआ नींद भी है कम कम फिर 
क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर

बना रही है तेरी याद मुझको सलके-गुहर 
पिरो गयी मेरी पलकों में आज शबनम फिर 

वो नर्म लहजे में कुछ कह रहा है फिर मुझसे 
छिड़ा है प्यार के कोमल सुरों में मद्धम फिर 

तुझे मनाऊं कि अपनी अना की बात सुनूं 
उलझ रहा है मेरे फ़ैसलों का रेशम फिर 
 
न उसकी बात मैं समझूं न वो मेरी नज़रें 
मुआमलाते-ज़ुबां हो चले हैं मुबहम फिर 

ये आने वाला नया दुख भी उसके सर ही गया 
चटख़ गया मेरी अंगुश्तरी का नीलम फिर 
 
वो एक लम्हा कि जब सारे रंग एक हुए 
किसी बहार ने देखा न ऐसा संगम फिर 

बहुत अज़ीज़ हैं आंखें मेरी उसे लेकिन 
वो जाते जाते उन्हें कर गया है पुरनम फिर 
 
सलके-गुहर = मोतियों की लड़ी       
अना = स्वत्व 
मुआमलाते-ज़ुबां = बातचीत के मामले 
मुबहम = अस्पष्ट      अंगुश्तरी = अंगूठी 

शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,1994
 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

नहीं होती (Naheen hoti by Ibne Insha)

शामे-ग़म की सहर नहीं होती 
या हमीं को ख़बर नहीं होती ?

हमने सब दुख जहाँ के देखे हैं 
बेकली इस क़दर नहीं होती 

नाला यूँ नारसा नहीं रहता
आह यूँ बेअसर नहीं होती 

चाँद है, कहकशाँ है, तारे हैं 
कोई शै नामांबर नहीं होती 

एक जाँ सोज़ो-नामुराद ख़लिश 
इस तरफ़ है उधर नहीं होती 

रात आकर गुज़र भी जाती है 
इक हमारी सहर नहीं होती 

बेक़रारी सही नहीं जाती 
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती 

एक दिन देखने को आ जाते 
ये हवस उम्र-भर नहीं होती 

हुस्न सबको ख़ुदा नहीं देता 
हर किसी की नज़र नहीं होती 

दिल पियाला नहीं गदाई का 
आशिक़ी दर-ब-दर नहीं होती 


नाला = क्रंदन 
नारसा = न पहुँचनेवाला 
कहकशाँ = आकाशगंगा 
शै = चीज़ 
नामांबर = पत्र ले जानेवाला 
सोज़ो-नामुराद = असफल
मुख़्तसर = संक्षिप्त 
गदाई = भिक्षा 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

एक दृष्टिकोण (Ek drishtikon by Amrita Pritam)


सूरज को सारे खून माफ़ हैं l 
दुनिया के हर इन्सान का 
वह रोज़ 'एक दिन' का क़तल करता है 
और हर एक उम्र का एक टुकड़ा 
रोज़ ज़िबह होता है 
इन्सान के इख्तियार में सिर्फ़ इतना है -
कि जिबह हुए टुकड़े को 
वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये 
और साँसों की शराब पीता 
वह अगले टुकड़े का इंतज़ार करे ... 


यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

देवनागरी (Devnagri by Kedarnath Singh

यह जो सीधी-सी सरल-सी 
अपनी लिपि है देवनागरी
इतनी सरल है 
कि भूल गयी है अपना सारा अतीत 
पर मेरा खयाल है 
'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले 
नहीं आया था दुनिया में 
'च' पैदा हुआ होगा 
किसी शिशु के गाल पर 
माँ के चुम्बन से 

'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं 
कि फूट पड़े होंगे 
किसी पत्थर को फोड़कर 

'न' एक स्थायी प्रतिरोध है 
हर अन्याय का 

'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़ 
जो किसी कंठ से छनकर 
बन गयी होगी 'माँ'

'स' के संगीत में 
संभव है एक हल्की-सी सिसकी 
सुनाई पड़े तुम्हें 
हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे 
किसी लिखते हुए हाथ की 
तकलीफ़ दबी हो 

कभी देखना ध्यान से 
किसी अक्षर में झाँककर 
वहाँ रोशनाई के तल में 
एक ज़रा-सी रोशनी 
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी 

यह मेरे लोगों का उल्लास है 
जो ढल गया है मात्राओं में 
अनुस्वार में उतर आया है 
कोई कंठावरोध 

पर कौन कह सकता है 
इसके अंतिम वर्ण 'ह' में 
कितनी हँसी है 
कितना हाहाकार !


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - सृष्टि पर पहरा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014