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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

फिर (Phir by Parveen Shakir)


सुकूं भी ख़्वाब हुआ नींद भी है कम कम फिर 
क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर

बना रही है तेरी याद मुझको सलके-गुहर 
पिरो गयी मेरी पलकों में आज शबनम फिर 

वो नर्म लहजे में कुछ कह रहा है फिर मुझसे 
छिड़ा है प्यार के कोमल सुरों में मद्धम फिर 

तुझे मनाऊं कि अपनी अना की बात सुनूं 
उलझ रहा है मेरे फ़ैसलों का रेशम फिर 
 
न उसकी बात मैं समझूं न वो मेरी नज़रें 
मुआमलाते-ज़ुबां हो चले हैं मुबहम फिर 

ये आने वाला नया दुख भी उसके सर ही गया 
चटख़ गया मेरी अंगुश्तरी का नीलम फिर 
 
वो एक लम्हा कि जब सारे रंग एक हुए 
किसी बहार ने देखा न ऐसा संगम फिर 

बहुत अज़ीज़ हैं आंखें मेरी उसे लेकिन 
वो जाते जाते उन्हें कर गया है पुरनम फिर 
 
सलके-गुहर = मोतियों की लड़ी       
अना = स्वत्व 
मुआमलाते-ज़ुबां = बातचीत के मामले 
मुबहम = अस्पष्ट      अंगुश्तरी = अंगूठी 

शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,1994
 

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