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रविवार, 30 मार्च 2014

क्रिसमस का उपहार (Xmas gift by Allen Ginsberg)

मैं आइंस्टाइन से सपने में मिला
प्रिंस्टन के मैदान की घास पर वसंत
मैं घुटने पर झुका और मैंने उनके युवा अँगूठे को चूमा
अरुणाभ पोप की तरह
उनका चेहरा तरोताज़ा चौड़ा गुलाबी गालोंवाला
"मैंने एक अलग ब्रह्मांड की खोज की
कुछ-कुछ क्वाँरी स्त्री-सा"
"हाँ, वह जीव खुद को जन्म देता है"
मैंने मस्केलिन को उद्धृत किया
हम खुली हवा सर्वव्याप्त गर्मी में बैठे
दोपहर का खाना खाने को, प्रोफेसरों की बीवियाँ
टेनिस कोर्ट क्लब में,
हमारी मुलाकात शाश्वत, प्रत्याशित
उनकी मुट्ठी को चूमने की मेरी मुद्रा
अप्रत्याशित रूप से संतमुद्रा
अगर ध्यान दें उस एटम बम पर जिसका ज़िक्र मैंने नहीं किया
                                                  - न्यूयार्क, 24 दिसंबर, 1972



अमेरिकी कवि - एलेन गिंसबर्ग (3.6.1926 - 5. 4. 1997)
संकलन - एलेन गिंसबर्ग : कलेक्टेड पोएम्स 1947-1980
प्रकाशक - हार्पर एंड रो, पब्लिशर्स, न्यूयार्क
अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था (Hatasha se ek vyakti baith gaya tha by Vinod Kumar Shukla)



हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था 
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 
हताशा को जानता था 
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया 
मैंने हाथ बढ़ाया 
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ 
मुझे वह नहीं जानता था 
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था 
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे 
साथ चलने को जानते थे l




कवि -  विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - अतिरिक्त नहीं
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

गुरुवार, 27 मार्च 2014

आँसू का वज़न (Aansoo ka vazan by Kedarnath Singh)


कितनी लाख चीख़ों 
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद 
किसी आँख से टपकी 
एक बूँद को नाम मिला - 
आँसू 

कौन बताएगा 
बूँद से आँसू 
कितना भारी है 


कवि - केदारनाथ सिंह   
संकलन - सृष्टि पर पहरा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014

मंगलवार, 25 मार्च 2014

अपना यह देश है महान (Apna yah desh hai mahan by Nagarjun )


अपना यह देश है महाSSन !
जभी तो यहाँ चल रहा भेड़िया धसाSSन !
शब्दों के तीर हैं जीभ है कमाSSन !
सीधे हैं मजदूर और बुद्धू हैं किसाSSन !
लीडरों की नीयत कौन पाएगा जाSSन !
अपना यह देश है महाSSन !
                                      -  6.11. 1979




कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 2
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

रविवार, 23 मार्च 2014

हज़ल (Hazal by Meeraji)

जितनी बर्फ़ नज़र आती है हमको कंचनगंगा में 
उतना ही दंगा होता होगा शायद दरभंगा में 

आप मरे तो जग परलै, हर डूबनेवाला कहता था 
अपने लिए तो फ़र्क़ नहीं, चाहे जमना में चाहे गंगा में 

कुछ तो एक ख़लीज है और कंघा सरदार की ज़ीनत है 
कुछ में लेकिन बात नहीं जो बात है उनके कंघा में 

अंगे का तो क़ाफ़िया मेरे बस में नहीं क्यों ? ये भी सुनो 
अंगे का गर क़ाफ़िया बाँधा, कहना पड़ेगा अंगा में 

हज़रते-मोहमिल इक दिन नंग-धड़ंग मलंग से कहने लगे 
ये तो कहो कुछ लुत्फ़ भी आता है इस नंग-धड़ंगा में 


परलै = प्रलय 
ख़लीज = खाड़ी 
ज़ीनत = शोभा
हज़रते-मोहमिल = निरर्थक महोदय

शायर - मीराजी (25.9.1912 - 3.11.1949)
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी  संपादक - नरेश 'नदीम' प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

उर्दू शायरी में हज़ल के तीन अर्थ प्रचलित हैं : उलटबानी जैसी शायरी, बेतुकी शायरी या अश्लील शायरी। 

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

सोन-मछली (Son-machhalee by Ajneya)



           हम निहारते रूप,
काँच के पीछे 
हाँप रही है मछली l 
रूप-तृषा भी 
(और काँच के पीछे)
है जिजीविषा l 

कवि -  अज्ञेय   
संकलन - चुनी हुई कविताएं   
प्रकाशक - राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 1987

बुधवार, 19 मार्च 2014

सावधानी (Savdhani by Dinkar)


जो बहुत बोलता हो,
उसके साथ कम बोलो l 
जो हमेशा चुप रहे,
उसके सामने हृदय मत खोलो l 
 


कवि - रामधारी सिंह दिनकर (1908 -1974)
किताब - दिनकर रचनावली, खंड-2
संपादक - नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011

शनिवार, 15 मार्च 2014

सफ़ेद पंख (Safed pankh by Savita Singh)

जाओ उन्हीं आलिंगनों में 
जो तुम्हारे थे 
उड़ेल दिया था जिनमें तुमने 
सारा प्रेम अपना 

जाओ अब तक वहीं पड़ा है वह चुंबन
जिसे छोड़ गयी थी लाल आँखों वाली चिड़िया 

उठा लाओ वह सफ़ेद पंख 
जिसे गिरा गयी थी वह किसी और के लिए 


कवयित्री - सविता सिंह 
संकलन - स्वप्न समय 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2013

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

नदियाँ (Nadiyan by Alok Dhanva)

इछामती और मेघना 
महानंदा 
रावी और झेलम 
गंगा, गोदावरी 
नर्मदा और घाघरा 
नाम लेते हुए भी तकलीफ होती है 

उनसे उतनी ही मुलाकात होती है 
जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं 

और उस समय भी दिमाग 
कितना कम पास जा पाता है 
दिमाग तो भरा रहता है 
लुटेरों के बाजार के शोर से l
                              - 1996


कवि - आलोक धन्वा 
संकलन - कविता नदी   
संपादक - प्रयाग शुक्ल 
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि.वि. के लिए 
                किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2002

बुधवार, 12 मार्च 2014

टोकनी (Tokanee by Ashok Vajpeyi)


यकायक पता चला कि टोकनी नहीं है l 
पहले होती थी 
जिसमें कई दुख और हरी-भरी सब्ज़ियाँ रखा करते थे,
अब नहीं है -
दुख रखने की जगहें धीरे-धीरे कम हो रही हैं l 
                                      - 28 जुलाई, 2010



कवि - अशोक वाजपेयी 
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

मंगलवार, 11 मार्च 2014

मक्कार के नाम इनाम ( The naive rewarding of one who lies by Constanta Buzea)


वही पुरानी यात्राएँ और वही पुराने गंतव्य 
और मसूर के कटोरे पर वही पुराने कबूतर 
किसी मक्कार के नाम इनाम l 

भटक रहा हूँ मैं आराम और पवित्र वस्तुओं की तलाश में,
भरपूर और तिक्ततर आँसुओं के लिए,
विनम्रता और प्रार्थनाओं के लिए,
माताओं की समाधियों के विषाद के लिए l 

चूँकि लाद दिए गए हैं मुझ पर कुछ शब्द
औ जो लटके हुए हैं मेरी गर्दन से 
जबकि मेरा दिमाग चाह रहा है 
देना ईँट का जवाब पत्थर से 
और निकाल लेना एक दाँत के बदले पूरी की पूरी बत्तीसी l 



रोमानियाई कवयित्री - कोन्स्तान्ता बूज़ेआ  
(जन्म 29 मार्च, 1941, बुख़ारेस्त)  
संकलन - सच लेता है आकार, समकालीन रोमानियाई कविता  चयन/सम्पादन - आन्द्रीआ देलेतान्त, ब्रेण्डा वाकर   
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रणजीत साहा   
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 2002

अनुवादक के मुताबिक कवयित्री का नाम कोन्स्तांत्सा बूज़ेआ है। 

सोमवार, 10 मार्च 2014

प्रेम-वाटिका (Prem-vatika by Raskhan)

प्रेम-प्रेम सोउ कहत, प्रेम न जानत कोय l 
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय ll2ll 

प्रेम-बारुनी छानिकै, बरुन भए जलधीस l
प्रेमहिं तें बिष पान करि, पूजे जात गिरीस ll4ll 

प्रेमफाँस में फँसि मरै, सोई जिए सदाहि l 
प्रेममरम जाने बिना, मरि कोउ जीवत नाहीं ll26ll

कोउ याहि फाँसी कहत, कोउ कहत तरवार l 
नेजा, भाला, तीर, कोउ कहत अनोखी ढार ll29ll

अकथ-कहानी प्रेम की, जानत लैली खूब l 
दो तनहूँ जहँ एक भे, मन मिलाइ महबूब ll33ll 



कवि - रसखान (1548-1628)
संकलन - रसखान रचनावली 
संपादक - विद्यानिवास मिश्र, सत्यदेव मिश्र 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005

ये दोहे रसखान की प्रेम-वाटिका से उद्धृत हैं। ब्रजभाषा में प्रेम-बारुनी  का अर्थ है प्रेम-मदिरा।

रविवार, 9 मार्च 2014

अधरात घास-गन्ध (Adhraat ghaas-gandh by Gyanendrapati)

अचानक आधी रात 
खुल जाती है नींद 
हवा में भीनी-भीनी-सी गन्ध 
मन में उमंग 
कि दबे पाँव छत पर जा 
देखा जाए, कहाँ हैं सप्तर्षि 
नथुनों को फुला 
खींचता हूँ एक लम्बी साँस 
अरे ! यह तो घास काटने की ताज़ा गन्ध
क्या यह मेरे बचपन का भिनसार 
ओढ़ना हटा, नींद में चलता 
देखूँगा क्या गोहाल के पास 
काट रहे घास की कुट्टी बाबा 
सधे हाथों खट् खट् खट्
बैठूँगा सामने ही उन-सा उकडूँ 
नींद से मुँदी आँखें 
बस खुले नथुने घास की गन्ध से नहाते 
फेफड़े 
हरी गन्ध से पुलकित रँगे जाते 
अचानक आधी रात
खुल जाती है नींद 
हवा में भीनी-भीनी-सी गन्ध 
मन में उमंग 
पैर उतरना चाहते बिस्तर से 
हाथ खोलना चाहते खिड़की 
कि तभी खयाल अचानक 
कि भूचाल 
अरे ! कहीं यह फास्जीन गैस तो नहीं 
जो महकती ताज़ा कटी घास की तरह 
या मिथाइल आइसोसाइनेट या साइनाइड या क्लोरिन 
या इन-सा ही कोई नाम 
औद्योगिक सभ्यता का जटिल बार्बडवायर शब्द कोई 
खींचता खरोंच 
जन-मन पर 

यह खयाल 
कि दम घुटता है 
आँखें सुलगती-गलती हैं 
ग्रसती है चिन्ता, कहाँ दूसरे 
अपने घर में या घर से बाहर 
दुबले हड़ियल बच्चे-बूढ़े 
चिन्ताकुल ममता-मूर्तियाँ 
उमगते युवक 
जिन्हें साथ होना था 
जिनके साथ होना था 
इस पल 
अपनी नींद में ही जो निरापद 
भोले-भाले 
निश्शंक निढाल 
लेते निश्वास 
कि तभी 
लहक-लपक पड़ने को उद्यत मन को 
फुसलाता है 
तन के साथ सोया रहना चाहनेवाला मन-खण्ड 
पाखण्ड 
अरे ! अरे ! 
व्यर्थ घबराहट ! निरर्थक चिन्ता !
यहाँ कहाँ यूनियन कार्बाइड का कारखाना 
कोई कीटनाशक संयन्त्र
भोपाल नहीं यह, पटना है पटना 
गंगा तीरे 
दूर बहुत कैंची छोला से 
क्या सचमुच ?
इस झाँसा-पट्टी से 
बच सकती है नींद ?
भोपाल से पटना को 
या कि वियतनाम से भारत को 
अलग कर सोया जा सकता है ?
जब वियतनाम की वनस्पति पर 
एजेण्ट आरेन्ज का कहर टूटता 
सघन जंगल जब 
झाड़-झंखाड़ होते हैं 
निष्कवच होते हैं जन-योद्धा 
क्या केवल वियतनामी गुरिल्ला ही नहीं 
हम भी होते हैं 
हम सब जो दुनिया के तीन चौथाई देशों में अलग-अलग 
अपने देश की माटी को गूँथ
बनाना चाहते देश की प्रतिमा नई
देश की माटी खनिजोर्वर
लगी जिसमें साम्राज्यवाद की सेन्ध 
जिसके वक्ष के अमृतकुण्ड में 
गहरे धँसा शोषण का अदृश्य साइफन 
अमरीकी अर्थपिशाच की आक्टोपसी सूँड

हाँ, हम सब 
गरीब मुल्कों के वासी 
पिछड़े अनपढ़ 
हमारे दलिद्दर पर घड़ियालों के आँसू बहते 
करुणा उमड़ती 
बढ़ते कर 
बघनखे छुपाए 
सन्धियों समझौतों सहयोगों में 
हाँ, हम सब 
गरीब मुल्कों के वासी 
आदमी से नीचे 
रासायनिक युद्धों के पूर्वाभ्यास के लिए 
गिनीपिग 

अरे नहीं ! नहीं !
तोबा ! तोबा !
मुण्ड हिलाता जीभ काटता है दुनिया का सबसे पुराना लोकतन्त्र

मुण्ड झुकाता जीभ चलाता है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र 
चच्चा सैम को कनखियों से ताकता भतीजा सैमसन :
दुर्घटना है यह 
दुखद दुर्घटना 
विकास के रस्ते में 
तेज़ रफ़्तार गाड़ी बस ज़रा फिसल गई 
लेकिन क्या निदान !
जाना तो है गन्तव्य तक 
आओ ! ब्रेक-टायर दुरुस्त करें हम 
होश न खोयें, नए जोश से 
बढ़ें, चाल न अपनी सुस्त करें हम 

विकास !
हाँ, ठीक सुना हमने 
विनाश नहीं विकास 
टूटते हैं अब भी 
प्रकृति के प्रकोप हम पर 
सूखा बाढ़ शीतलहर 
पारा-पारी 
अब यह टूटता है 
औद्योगिक प्रकोप 
प्रकोप क्या, प्रलय का पूर्वाभ्यास 
क्या हम सब 
अपने-अपने घर में बन्द
दरवाजों की सेंधों गोखों बच्चों की चीत्कारों में 
जहाँ-जहाँ चमकता आकाश 
धड़कती छाती बहती आँखों कँपती उँगलियों से 
ठूँसते रहेंगे चिथड़े
चिथड़े-चिथड़े कर 
फटेहाल ज़िन्दगी अपनी 
कब तक 
या तो मरेंगे 
या बस बचे रहेंगे 
हाँफते खाँसते
गर्भवती माताओं के सिरहाने 
जो भविष्य को रचने से पहले 
उघड़ा हुआ पाने लगी हैं 

क्या हम सब 
अपने-अपने घर में बन्द
अधरात अचानक 
हवा में घास की गन्ध आने से 
सिहरते रहेंगे चुपचाप 
स्तब्ध 
कि अब सुनाई देगा कोई साइरन 
बजेगी कोई ख़तरे की घण्टी 
कि हम कहेंगे 
बहुत बज चुकी ख़तरे की घण्टी 
अपने-अपने घर से बाहर आ 
यह एक मुट्ठी की तरह कसने का वक़्त है 
विषबेलमुण्ड से चिकने चमकीले 
इस लोकतन्त्र नहीं लोभतन्त्र को फोड़ने का वक़्त है 
सृजन और शान्ति के लिए 
कसना ही होगा मानव-समुदायों को 
एक संकल्पित मुट्ठी में 
युद्ध और विनाश की तिजारत के विरुद्ध 
मौत के आढ़तियों की दुकानों के शटर
गिराने ही होंगे 
देश-देश में 
जनमत के बल से 

कहना ही होगा हमें 
हम प्रलय होने न देंगे 
इस सौरमण्डल में 
जीवन-ज्योतित पृथ्वी का गोलक 
घूमता रहेगा अनन्तकाल 
मानव की जययात्रा 
शवयात्रा में बदलेगी नहीं


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

शल्यक्रिया (Shalyakriya by Mamta Kalia)


मोह की यह फाँस 
अक्सर बहुत जाती आँस 
एक झटके में निकाली फेंक 
हो गयी मैं अब 
पुनः आजाद 


कवयित्री - ममता कालिया   
किताब - ममता कालिया : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012

शनिवार, 1 मार्च 2014

पगला मल्लाह (Pagla mallah by Bachchan)

(उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित)

                    डोंगा डोले,
          नित गंग-जमुन के तीर,
                    डोंगा डोले l 

                    आया डोला,
                   उड़न खटोला,
एक परी परदे से निकली पहने पंचरंग चीर l 
                    डोंगा डोले,
           नित गंग-जमुन के तीर,
                    डोंगा डोले l 

                    आँखें टक-टक,
                    छाती धक-धक,
कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर l 
                      डोंगा डोले,
            नित गंग-जमुन के तीर,
                      डोंगा डोले l 

                      नाव बिराजी,
                       केवट राजी,
डाँड़ छुई भर, बस आ पहुँची संगम पर की भीड़ l
                      डोंगा डोले,
             नित गंग-जमुन के तीर,
                      डोंगा डोले l 

                      मन मुसकाई,
                       उतर नहाई,
'आगे पाँव न देना, रानी, पानी अगम-गभीर'l 
                      डोंगा डोले,
           नित गंग-जमुन के तीर,
                     डोंगा डोले l 

                     बात न मानी,
                      होनी जानी,
बहुत थहाई, हाथ न आई जादू की तस्वीर l 
                      डोंगा डोले,
             नित गंग-जमुन के तीर,
                      डोंगा डोले l 

                     इस तट, उस तट,
                      पनघट, मरघट,
                        बानी अटपट ;
हाय, किसी ने कभी न जानी माँझी-मन की पीर l 
                          डोंगा डोले,
                नित गंग-जमुन के तीर,
         डोंगा डोले l डोंगा डोले l डोंगा डोले l …


कवि - हरिवंशराय बच्चन 
संकलन - कविता नदी 
संपादक - प्रयाग शुक्ल 
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि.वि. के लिए 
                किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2002