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सोमवार, 10 मार्च 2014

प्रेम-वाटिका (Prem-vatika by Raskhan)

प्रेम-प्रेम सोउ कहत, प्रेम न जानत कोय l 
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय ll2ll 

प्रेम-बारुनी छानिकै, बरुन भए जलधीस l
प्रेमहिं तें बिष पान करि, पूजे जात गिरीस ll4ll 

प्रेमफाँस में फँसि मरै, सोई जिए सदाहि l 
प्रेममरम जाने बिना, मरि कोउ जीवत नाहीं ll26ll

कोउ याहि फाँसी कहत, कोउ कहत तरवार l 
नेजा, भाला, तीर, कोउ कहत अनोखी ढार ll29ll

अकथ-कहानी प्रेम की, जानत लैली खूब l 
दो तनहूँ जहँ एक भे, मन मिलाइ महबूब ll33ll 



कवि - रसखान (1548-1628)
संकलन - रसखान रचनावली 
संपादक - विद्यानिवास मिश्र, सत्यदेव मिश्र 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005

ये दोहे रसखान की प्रेम-वाटिका से उद्धृत हैं। ब्रजभाषा में प्रेम-बारुनी  का अर्थ है प्रेम-मदिरा।

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