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मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

एनार्की (Anarchy by Dinkar)


"अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !
रेलवे का स्लीपर उठाए कहाँ जाता है ?"

"बड़ा बेवकूफ़ है, अजब तेरा हाल है ;
तुझे क्या पड़ी है ? ' तो सरकारी माल है ?"

"नेता या प्रणेता! तेरा ठीक तो ईमान है ?
पर, दिया जाता अब देश  में न कान है l
बने जाते कल-कारखाने आलीशान भी,
साथ-साथ तेरे कुछ अपने मकान भी l”

“भाई, बकने दो उन्हें, तुम तो सुजान हो,
कविता बनाते हो, हमारे अभिमान हो l
मान लो, कभी जो चूर-धुन थोड़ा पाते हैं,
भारत से बाहर तो फेंक नहीं आते हैं l
जो भी बनवाये, अपना ही व’ भवन है,
देश में ही रहता है, देश का जो धन है l”

“और, अरे यार ! तू तो बड़ा शेर-दिल है,
बीच राह में ही लगा रखी महफ़िल है !
देख, लग जाएँ नहीं मोटर के झटके,
नाचना जो हो तो नाच सड़क से हटके l”

“सड़क से हट तू ही क्यों न चला जाता है ?
मोटर में बैठ बड़ी शान दिखलाता है !
झाड़ देंगे, तुझमें जो तड़क-भड़क है,
टोकने चला है, तेरे बाप की सड़क है ?

सर तोड़ देंगे, नहीं राह से टलेंगे हम,
हाँ, हाँ, जैसे चाहें, वैसे नाच के चलेंगे हम l
बीस साल पहले की शेखी तुझे याद है l
भूल ही गया है, अब भारत आज़ाद है l”




कवि - रामधारी सिंह दिनकर (1908 -1974)

किताब - दिनकर रचनावली, खंड-1
संपादक - नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

कोशिश (Koshish by Kumar Ambuj)


कही जा सकती हैं बातें हज़ारों 
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा 
झाड़ झंखाड़ बहुत 
एक आदमी से न बुहारा जायेगा
इतना कूड़ा

क्या बुहारूँ 
क्या कहूँ, क्या न कहूँ ?
अच्छा है जितना झाड़ सकूँ, झाडूँ
जितना कह सकूँ, कहूँ

कम से कम चुप तो न रह सकूँ l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

सरकार ने कहा (Sarkar ne kaha by Prabhat Tripathi)

कुल्हड़ से चाय पीती आत्मा ने 
अनमनाकर देखी अपनी शक्ल
कोई धमाका नहीं हुआ,

नृशंस हत्याओं के समाचारोँ के बाद 
सीने तक आती खट्टी डकार के साथ 
उसने जाना पेट भरे होने का दुख 

उस वक्त एक आदमी दीवाल के किनारे 
पेशाब कर रहा था 
यह पेशाब करने का समय नहीं है 
सरकार ने कहा 
दूरदर्शन ने भूल-सुधार के लिए 
इलेक्ट्रॉनिक हरूफों में लिखा 
समय को जगह पढ़ें 
और आपस में खूब लड़ें l 

आखिर प्रकृति की सीख यही है 
और कविता की भी 
कि एक शब्द को दूसरे से लड़ाएँ 
और अपने-अपने प्रभु के गुन गाएँ 
गुनगाहक सिवा प्रभु के 
और कौन बचा है दुनिया में ?
कहने वाले ने 
अपने झोले को गौर से देखा 
और ताजा तुरई के स्वाद में डूबकर बोला 
इस देश का खुदा ही मालिक है l 

देश नहीं ; दुनिया कहिए हुजूर 
जाकिर हुसैन दूरदर्शन के परदे पर 
थपथपाए 

तबले के साथ बजती सारंगी का आविष्कार 
मुसलमान ने किया था या हिंदू ने 
इसका फैसला कोई अदालत नहीँ कर सकती 
हम करेंगे 
आधा दंगे के पहले 
और आधा 

जी नहीं, बहुत ज्यादा हो गई 
फिर मिलेंगे 
गर खुदा लाया




कवि - प्रभात त्रिपाठी 
संकलन - सड़क पर चुपचाप
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

आभास (Aabhas by Shrikant Verma)


दूर उस अंधेरे में कुछ है, जो बजता है 
शायद वह पीपल है l 

वहां नदी-घाटों पर थक कोई सोता है 
शायद वह यात्रा है l 

दीप बाल कोई, रतजगा यहां करता है 
शायद वह निष्ठा है l 



कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

रविवार, 20 अप्रैल 2014

मेरी रेल (Meri rail by Sudheer)


छूटी मेरी रेल l 
रे बाबू, छूटी मेरी रेल l 
हट जाओ, हट जाओ भैया !
मैं न जानूं फिर कुछ भैया !
टकरा जाये रेल l 

धक्-धक् धक्-धक्, धू-धू, धू-धू !
भक्-भक्, भक्-भक्, भू-भू, भू-भू !
छक्-छक् छक्-छक्, छू-छू, छू-छू !
करती आई रेल l 

एंजिन इसका भारी-भरकम l 
बढ़ता जाता गमगम गमगम l 
धमधम धमधम, धमधम धमधम l 
करता ठेलम ठेल l 

सुनो गार्ड ने दे दी सीटी l 
टिकट देखता फिरता टीटी l                          
सटी हुई वीटी से वीटी l 
करती पेलम पेल l 

छूटी मेरी रेल l 



कवि - सुधीर
संकलन - महके सारी गली गली (बाल कविताएँ)
संपादक - निरंकार देव सेवक, कृष्ण कुमार
प्रकाशक - नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 1996

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

एक अदद कविता (Ek adad kavita by Kunwar Narayan)


जैसे एक जंगली फूल की आकस्मिकता 
मुझमें कौंधकर मुझसे अलग हो गयी हो कविता 

और मैं छूट गया हूँ कहीं 
जहन्नुम के खिलाफ़ 
एक अदद जुलूस 
एक अदद हड़ताल 
एक अदद नारा 
एक अदद वोट 
और अपने को अपने ही 
देश की फटी जेब में सँभाले 
एक अवमूल्यित नोट 
सोचता हुआ कि प्रभो 
अब कौन किसे किसके-किसके नरक से निकाले ?



कवि - कुँवर नारायण
संग्रह - अपने सामने 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1979

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

यह अनंत अंत का दौर (Yah anant ant ka daur by Vinod Kumar Shukla)

यह अनंत अंत का दौर
आत्मसात के गाँव में 
आत्मसात का ठौर !

आत्मसात का बारबार 
अबकी बार, अगली बार 
इसबार 
हरबार का दौर 
हरबार के इस गाँव में 
हरबार का ठौर l 

मिलने और बिछड़ने के पहले 
बस इतना जीवन 
इस जीवन का और 
एक साथ के इस गाँव में 
एक साथ का ठौर l 


कवि -  विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - अतिरिक्त नहीं
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

ख़्वाहिशें (Khwahishein by Makhdoom Mohiuddin)


ख़्वाहिशें 
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर 
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं 
जाग उठी दिल की इन्दर सभा 
दिल की नीलम परी, जाग उठी 
दिल की पुखराज 
लेती है अंगड़ाइयाँ जाम में 
जाम में तेरे माथे का साया गिरा 
घुल गया 
चाँदनी घुल गई 
तेरे होठों की लाली 
तेरी नरमियाँ घुल गईं 
रात की, अनकही, अनसुनी दास्तां 
घुल गई जाम में 
ख़्वाहिशें 
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर 
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं l 

 
शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

बेड़ियाँ (Bediyan by Ho Chi Minh)

एक विकराल राक्षस की तरह 
अपना भूखा मुँह खोले 
हर रात बेड़ियाँ लोगों के पैर निगल लेती हैं 
उनके जबड़े हर कैदी का दाहिना पैर दबोच लेते हैं 
केवल बायाँ पैर 
मुड़ने और फैलने के लिए मुक्त रह जाता है l 
 
फिर भी एक अजीब बात इस दुनिया में है 
लोग बेड़ियों में अपने पैर डालने के लिए दौड़ते हैं l 
 
एक बार बेड़ी पड़ जाने पर 
वे शांति से सो पाते हैं 
अन्यथा सिर छुपाने की जगह भी 
उन्हें नहीं मिलती   
 
 
कवि – हो ची मिह्न (19. 5. 1890 - 2. 9. 1969)
अनुवाद - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  
किताब - धूप की लपेट 
संकलन-संपादन - वीरेन्द्र जैन 
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

रविवार, 13 अप्रैल 2014

सच रेडीमेड नहीं मिलता (Sach readymade nahin milta by Anamika)


सच रेडीमेड नहीं मिलता,
सबको बुनना पड़ता है 
अपने-अपने नाप का !
कभी किसी पिछले जनम में 
सच एक ऊनी दुशाला था 
कबीर के ताने-बाने से बुना हुआ !
एक साथ सब उसमें 
गुड़ी-मुड़ी हो बैठ जाते 
और तापते सिगरी किस्सों की !
बाबा बाहर जाते तो तहाते उसको 
ऐसे कौशल से कंधे पर कि 
चिप्पियाँ दिखाई नहीं देतीं,
अम्मा ताकीद लगातार किया करतीं 
कि पाँव उतने पसारिए 
जितनी लंबी सौर हो !
सपनों के पाँव मगर हरदम ही 
सच की चदरी के बाहर झाँक जाते !
स्कूल के रास्ते में बाजार पड़ता !
रोज हमें दीखते 
लाल-हरे-नीले लेसों से सजे 
झीने-झीने झूठ झमकदार 
कचकाड़े की औरतों पर सजे !
कचकाड़े की औरतें 
शीशे के शो-केसों में बंद 
हरदम मुस्कातीं,
वे 'विचित्र किंतु सत्य' शृंखला का सच थीं !
थोड़ा-सा वे हमें डरातीं !
ठंड में ठिठुरते हुए हम आगे बढ़ते,
पूरी नहीं पड़ती हमको चमड़ी हमारी !
एक दिन हमने पड़ोसिन से सीखा 
एक बमपिलार ऊन के गोले से 
बुनना कैसे चाहिए 
ब्लाउज भर सच 
अपने नाप का !
और मुझे उसने सिखाया बड़े मन से 
कैसे उलटे फँदों में डालते हैं सीधा फँदा 
कैसे घटता और कटता है सच का गला,
कैसे घटती हैं और कटती है 
दो बाजुएँ सच की -
आपकी फिटिंग का हो जाने तक !
तब से लगातार बुन रही हूँ मैं 
सपनों में स्मृतियाँ !
गिरे जा रहे हैं 'घर'
'काँटों में फँसे हुए !'
घर गिर रहे हैं धीरे-धीरे 
और एक घाटी-सी उभर रही है 
मेरे स्वेटर पर !
अच्छा है, सच रेडीमेड नहीं मिलता 
सबको बुनना पड़ता है अपने-अपने नाप का !


कवयित्री - अनामिका  किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

चुप-चाप (Chup-chap by Ajneya)

         चुप-चाप   चुप-चाप 
झरने का स्वर 
         हम में भर जाय,
चुप-चाप    चुप-चाप 
शरद की चाँदनी 
        झील की लहरों पर तिर आय,
चुप-चाप   चुप-चाप 
जीवन का रहस्य 
जो कहा न जाय, हमारी 
        ठहरी आँखों में गहराय,
चुप-चाप   चुप-चाप 
हम पुलकित विराट में डूबें 
         पर विराट हम में मिल जाय _

चुप-चाप     चुप-चाS S प …  


कवि -  अज्ञेय     
संकलन - चुनी हुई कविताएं     
प्रकाशक - राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 1987

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

अन्तर (Antar by Dhoomil)

कोई पहाड़ 
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है। 
और कोई आँख 
छोटी नहीं है समुद्र से 
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अन्तर है -
जो कभी 
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है l


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

ख़ुशी भी है (Khushi bhi hai by 'Akhtar' Sheerani)

ख़यालिस्ताने-हस्ती में अगर ग़म है, ख़ुशी भी है
कभी आँखों में आँसू हैं, कभी लब पर हँसी भी है 
इन्हीं ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा 
अँधेरी  रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है
यूँ ही तकमील होगी हश्र तक तस्वीरे-हस्ती की 
हरेक तकमील आख़िर में पयामे-नेस्ती भी है 
ये वो सागर है, सहबा-ए-ख़ुदी से पुर नहीं होता 
हमारे जामे-हस्ती में सरश्के-बेख़ुदी भी है 


तकमील = पूर्ण
हश्र = क़यामत 
तस्वीरे-हस्ती = जीवन के चित्र की
पयामे-नेस्ती = मृत्यु का संदेश 
सहबा-ए-ख़ुदी = अहं की शराब
पुर नहीं होता = नहीं भरता
जामे-हस्ती = जीवन के प्याले में  
सरश्के-बेख़ुदी = आत्मविस्मृति का आँसू



शायर - 'अख़्तर' शीरानी  
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी

संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

सुनसान शहर (Sunsan shahar by Vijaydevnarayan Sahi)




मैं बरसों इस नगर की सड़कों पर आवारा फिरा हूँ 
वहाँ भी जहाँ 
शीशे की तरह 
सन्नाटा चटकता है 
और आसमान से मरी हुई बत्तखें गिरती हैं 






कवि - विजय देव नारायण साही
संकलन - मछलीघर
प्रथम संस्करण के प्रकाशक - भारती भण्डार, इलाहाबाद, 1966
दूसरे संस्करण के प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1995

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !! (Bapp re bapp ! baapp re baapp by Nagarjun)




पूरा ट्रक ! इतने चन्दन 
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!
पूरा हॉल ! इतने चन्द्रानन ?
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!
पूरा आँगन ! इतने बेंग !
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!
पूरा बाग ! इतने ढेंग !
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!
बड़ा सा मुँह, छोटी सी जीभ !
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!
हाथी वाला कान, कौड़िया आँख इस्स !
बप्प रे बप्प ! बाप्प रे बाप्प !!


कवि - नागार्जुन 
किताब - पका है यह कटहल 
मैथिली से हिंदी अनुवाद - सोमदेव, शोभाकांत
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली,1995 



 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

बसन्त -राग (Basant-raag by Sarveshvar Dayal Saxena)



पेड़ों के साथ-साथ 
हिलता है सिर 
यह मौसम अब नहीं 
आयेगा फिर l 



कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
संकलन - कविताएँ-2 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

जिगर और दिल को बचाना भी है (Jigar aur dil ko bachana bhi hai by Majaz)

जिगर और दिल को बचाना भी है 
नज़र आप ही से मिलाना भी है 

मुहब्बत का हर भेद पाना भी है 
मगर अपना दामन बचाना भी है 

जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है 
क़तीले-जफ़ा-ए-ज़माना भी है 

ये बिजली चमकती है क्यों दम-ब-दम 
चमन में कोई आशियाना भी है 

ख़िरद की अताअत ज़रूरी सही 
यही तो जुनूँ का जमाना भी है 

न दुनिया न उक़बा, कहाँ जाइए 
कहीं अह्ले-दिल का ठिकाना भी है 

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो 
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है 

ज़माने से आगे तो बढ़िए 'मजाज़'
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है 

क़तीले-जफ़ा-ए-ज़माना = ज़माने के सितम का मारा हुआ 
दम-ब-दम = पल-पल 
ख़िरद = बुद्धि 
अताअत = अनुसरण
उक़बा = परलोक 
साहिल = किनारा


शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001