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सोमवार, 26 मई 2014

तलाशे-हयात (Talashe-hayat by Firaq Gorakhpuri)


यमन-यमन अदन-अदन
कली-कली चमन-चमन 
बसोज़े-इश्क़े-शोला-ज़न 
बसाज़े-हुस्न गुल-बदन 
ब मश्क़े -आहू-ए-ख़तन 
ब गेसू-ए-शिकन-शिकन 
ब शीरीं-ओ-ब कोहकन 
ब दास्ताने-नल-दमन 
ब नरगिसे-पियाला-ज़न 
ब रू-ए-सायक़ा-फ़िगन 
ब हर नफ़सो-हर सुखन 
ब हाए-ओ-हू-ए-मा दमन 
ज़मीं-ज़मीं ज़मन-ज़मन 
सफ़र-सफ़र वतन-वतन 
ब दैर-साज़ो-बुत-शिकन 
ब ज़ौक़े-शेखो-बिरहमन 
ब हक़ ब क़ुफ़्रे-शोला-ज़न 
ब हर ख़ुदा-ओ-अहरमन 
हयात ढूँढ़ते चलो, हयात ढूँढ़ते चलो 

शायर - फ़िराक़ गोरखपुरी 
संकलन - मन आनम 
('नुक़ूश' के संपादक मुहम्मद तुफ़ैल के पत्र)
लिप्यंतरण - प्रदीप 'साहिल'
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001



शुक्रवार, 23 मई 2014

पुलकित-कुलकित (Pulkit-kulkit by Nagarjun)

पुलकित-कुलकित 
उलसित, हुलसित 
कुहकित, कुंचित 
पंत सुमित्रानंदन 
नरम नरम-सी तुनक तरल-सी 
समयोचित पद्यावलियों से 
गाते हैं गुणगाथा 
हिला-डुलाकर, कुंचित कंपित माथा !



कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1 
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

गुरुवार, 22 मई 2014

डर (Dar by Manmohan)

कभी अपने आप से 
हम डर जाते हैं 
जब अपनी ही ताकत 
देख लेते हैं 

तब लगता है 
हमें सज़ा मिलेगी 

हम रटी हुई बोली में 
जल्दी-जल्दी दुहराते हैं 
कोई पाठ 

और सर्वव्यापी पिता की शीतल छाया में 
आकर खड़े हो जाते हैं


कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

मंगलवार, 20 मई 2014

डगर-डगर डम (Dagar-dagar dam by Bhagavat Sharan Jha 'Animesh')

डगर-डगर डम्म-डम्म
डगर-डगर डम 
जीत गए नेताजी
नाचो छम-छम

जिनकी नैया डूबी
उनको है गम
हमरे प्रभु जीत गए
धन्य हुए हम

ऐसे वे त्यागी हैं
जन के अनुरागी हैं
होता क्या इससे यदि
थोड़ा-सा दागी हैं
ए. के. सैंतालिस के
साथ रखें बम

दिल्ली वे जाएँगे
जुगत भी भिड़ाएँगे
जो देगा मन्त्री-पद
उसमें मिल जाएँगे
खाएँगे खूब
संविधान की कसम

इस दल को तोड़ेंगे
उस दल को जोड़ेंगे
कुरसी पाने खातिर
कसर नहीं छोड़ेंगे
खाएँगे छूटकर
डकारेंगे कम

हम सब तो धन्य हुए
उन्हीं के अनन्य हुए
तिकड़म के महारथी
परम अग्रगण्य हुए
बहुरे फिर दिन उनके
बहुरा फिर तम

डगर-डगर डम्म-डम्म 
डगर-डगर डम


कवि - भागवत शरण झा 'अनिमेष'
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006
सालों पहले लिखी यह कविता आज कितनी प्रासंगिक है !

सोमवार, 19 मई 2014

सारी शाम (Poem by Boris Smolensky)

सिगरेट के दम घोंटते धुएँ में 
सारी शाम 
मैं अपने कमरे में 
अकेला बैठा रहूँगा 
उनकी बातें 
मथती रहेंगी मुझे 
जो शायद रात के वक्त 
या फिर शायद सुबह में 
बहुत कम उम्र में ही मारे गए
अपनी नोटबुकों में 
कुछ लाइनें यों ही खींच कर छोड़े हुए 

और 
      उनके प्यार अधूरे 
      उनके शब्द अधूरे 
      उनके काम अधूरे 


रूसी कवि - बोरिस स्मोल्नेस्की (1921-1941)
अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद
पत्रिका - उत्तरशती, बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का मुखपत्र, अप्रैल-जून, 1985

शनिवार, 17 मई 2014

जंगलके राजा ! ( Jungle ke raja by Bhawaniprasad Mishra)

जंगलके राजा, सावधान !
ओ मेरे राजा, सावधान !
                     कुछ अशुभ शकुन हो रहे आज l 
           जो दूर शब्द सुन पड़ता है,
           वह मेरे जीमें गड़ता है,
                     रे इस हलचलपर पड़े गाज l 
           ये यात्री या कि किसान नहीं,
           उनकी-सी इनकी बान नहीं,
                      चुपके चुपके यह बोल रहे। 
           यात्री होते तो गाते तो,
           आगी थोड़ी सुलगाते तो,
                       ये तो कुछ विष-सा बोल रहे। 
           वे एक एक कर बढ़ते हैं,
           लो सब झाड़ोंपर चढ़ते हैं,
                        राजा ! झाड़ों पर है मचान। 
           जंगलके राजा, सावधान !
                        ओ मेरे राजा, सावधान !
           राजा गुस्सेमें मत आना,
           तुम उन लोगोंतक मत जाना ;
                         वे सब-के-सब हत्यारे हैं। 
          वे दूर बैठकर मारेंगे,
          तुमसे कैसे वे हारेंगे,
                         माना, नख तेज़ तुम्हारे हैं। 
           "ये मुझको खाते नहीं कभी,
            फिर क्यों मारेंगे मुझे अभी ?"
                         तुम सोच नहीं सकते राजा। 
            तुम बहुत वीर हो, भोले हो,
            तुम इसीलिये यह बोले हो,
                           तुम कहीं सोच सकते राजा। 
            ये भूखे नहीं पियासे हैं,
            वैसे ये अच्छे खासे हैं,
                            है 'वाह वाह' की प्यास इन्हें। 
            ये शूर कहे जायँगे तब,
            और कुछके मन भायेंगे तब,
                             है चमड़ेकी अभिलाष इन्हें,
             ये जगके, सर्व-श्रेष्ठ प्राणी,
             इनके दिमाग़, इनके वाणी,
                              फिर अनाचार यह मनमाना !
             राजा, गुस्सेमें मत आना,
                               तुम उन लोगोंतक मत जाना।
       

कवि - भवानीप्रसाद मिश्र 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

शुक्रवार, 16 मई 2014

बहस के बाद (Bahas ke baad by Vijay Dev Narayan Sahi)

असली सवाल है कि मुख्यमन्त्री कौन होगा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि ज़िले से इस बार कितने मन्त्री होंगे ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि ग़फ़ूर का पत्ता कैसे कटा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि जीप में पीछे कौन बैठा था ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि तराजू वाला कितना वोट काटेगा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मन्त्री को राजदूत बनाना अपमान है या नहीं ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मेरी साइकिल कौन ले गया ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि खूसट बुड्ढों को कब तक बरदाश्त किया जाएगा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि गैस कब तक मिलेगी ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि अमरीका की सिट्टी पिट्टी क्यों गुम है ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मेरी आँखों से दिखाई क्यों नहीं पड़ता ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मुरलीधर बनता है 
या सचमुच उसकी पहुँच ऊपर तक है ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि पण्डित जी का अब क्या होगा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि सूखे का क्या हाल है ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि फ़ौज क्या करेगी ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि क्या दाम नीचे आयेंगे ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मैं किस को पुकारूँ ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि क्या यादवों में फूट पड़ेगी ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि शहर के ग्यारह अफसर 
भूमिहार क्यों हो गये ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि बलात्कार के पीछे किसका हाथ था ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि इस बार शराब का ठीका किसे मिलेगा ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि दुश्मन नम्बर एक कौन है ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि भुखमरी हुई या यह केवल प्रचार है ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि सभा में कितने आदमी थे ?
नहीं नहीं, असली सवाल है 
कि मेरे बच्चे चुप क्यों हो गये ?
नहीं नहीं, असली सवाल …

        सुनो भाई साधो 
        असली सवाल है 
        कि असली सवाल क्या है ?



कवि - विजय देव नारायण साही 
संग्रह - साखी
प्रकाशन - सातवाहन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1983

गुरुवार, 15 मई 2014

खूब फँसे हैं नंदा जी (Khoob fanse hain Nandaji by Nagarjun)

डाल दिया है जाने किसने फंदा  जी !

कैसे हज़म करेगा लीडर लाख-लाख का चंदा जी ?
कैसे चमकेगा सेठों का दया-धरम का धंधा जी ?
कैसे तुक जोड़ेगा फिर तो मेरे जैसा बंदा जी ?
रेट बढ़ गया घोटाले का, सदाचार है मंदा जी !
कौन नहीं है भ्रष्टाचारी, कौन नहीं है गंदा जी ?
बुरे फँसे हैं नंदा जी !
डाल दिया है जाने किसने फंदा  जी !




कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 1
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

सोमवार, 12 मई 2014

दुःख (Dukh by Nandkishore Nawal)

जिसे किसी ने नहीं 
तोड़ा था -
उसे भी इस दुःख ने तोड़ 
दिया है,
जिसने किसी को नहीं 
छोड़ा था,
उसने खुद को 
छोड़ दिया है।                   -7. 2. 2007



कवि - नंदकिशोर नवल
संकलन - नील जल कुछ और भी धुल गया
संपादक - श्याम कश्यप
प्रकाशक - शिल्पायन, दिल्ली, 2012


रविवार, 11 मई 2014

जब सब दुनिया सो जाती है (Jab sab duniya so jati hai by Meeraji)


जब सब दुनिया सो जाती है, मैं अपने घर से निकलता हूँ
बस्ती से दूर पहुँचता हूँ, सूने रस्तों पर चलता हूँ। 

और दिल में सोचता जाता हूँ क्या काम मिरा इस जंगल में !
क्या बात मुझे ले आई है इस ख़ामोशी के मंडल मैं !

ये जंगल, ये मंडल जिसमें चुपचाप का राजा रहता है 
ये रस्ता भूले मुसाफ़िर के कानों में कुछ कहता है :

सुन सदियाँ बीतीं, इस जंगल में एक मुसाफ़िर आया था 
और अपने साथ इक मनमोहन, सुन्दर प्रीतम को लाया था 

और अन्धी जवानी का जो नशा उन दोनों के दिल पर छाया था 
दोनों ही नादाँ थे, मूरख, दोनोँ ने धोका खाया था। 

वो जंगल, वो मंडल जिसमें चुपचाप का राजा रहता है
जब अपनी गूँगी बोली में ऐसी ही बातें कहता है 

मेरा दिल घबरा जाता है, मैं अपने घर लौट आता हूँ 
सब दुनिया नींद में होती है, और फिर मैं भी सो जाता हूँ।


शायर - मीराजी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

शुक्रवार, 9 मई 2014

मेरे बदले कोई दूसरा सो सकता (Mere badale koi doosara so sakata by Chandrakant Devtale)


तकिये पर किस बाजू 
और कैसे सिर और गरदन को रखूं
कि बंद पलकों की थपकी से 
खुले नींद का दरवाज़ा 

इतनी चुप्पी और अंधेरे में भी 
खुला है समुद्र का मुंह 
हाथों से समझना चाहता हूं छूकर 
अपनी देह की रहस्यमय इच्छा 
किंतु चुभते हैं हथेली में समुद्र की दहाड़ के
नुकीले दांत 

मेरी एक आंख जो एकदम आकाश में है 
तकिये से दूर 
उस पर हमला कर रहा नक्षत्रलोक का आश्चर्य 
एक नंगी चमकती तलवार आग के कपाल पर 
असहायता के अंधेरे में एक कटा हाथ 
सपनों को ख़ारिज करता हुआ 

यह कैसी दुश्मनी
क्या अपने जन्म से पहले
मैंने नींद की आंखों में चुभाया था कांटा

मेरे बदले सो सकता यदि कोई दूसरा
तो मैं उसे निहारता मुग्ध 
जब टूटता कोई तारा 
उसकी बंद पलकों पर रख देता फूल 
भींच देता जबड़े समुद्र के 
लपक लेता आग में दहकती तलवार 

सचमुच मेरे बदले 
कोई दूसरा जी सकता 
सो सकता कोई दूसरा
जिसके लिए खुलता दरवाज़ा नींद का
चुपचाप.


कवि - चंद्रकांत देवताले 
संकलन - जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा 
प्रकाशक - संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2008

शुक्रवार, 2 मई 2014

रोटी और संसद (Roti aur Sansad by Dhoomil)


एक आदमी 
रोटी बेलता है 
एक आदमी रोटी खाता है 
एक तीसरा आदमी भी है 
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है 
वह सिर्फ रोटी से खेलता है 
मैं पूछता हूँ - 
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है l


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003