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सोमवार, 9 जून 2014

पास रहो (Paas raho by Faiz Ahmad Faiz)

तुम मेरे पास रहो 
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो 
जिस घड़ी रात चले 
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले 
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास लिये 
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले 
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले 
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल 
आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगे 
आस लिये 
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलक़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाये न: मने 
जब कोई बात बनाये न: बने 
जब न कोई बात चले 
जिस घड़ी रात चले 
जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
 
              मर्हम-ए-मुश्क = सुगंध का मरहम  
              नश्तर-ए-अल्मास = हीरे का नश्तर 
              निहाँ = छिपे हुए 
              क़ुलक़ुल-ए-मय = शराब ढलने का स्वर 
              बहर-ए-नासूदगी = निराशा के कारण 
  
शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1984

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