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बुधवार, 18 जून 2014

या तो ये शख़्स (Ya to ye shakhsh by Ibne Insha)


सुब्ह की पहली किरन ओस में भीगी सिमटी 
हमसे कहती है, अरे जाग ज़माना जाएगा 
आज क्या उसकी नज़र में थी लगावट कोई 
ये जो सपना है इन आँखों में सुहाना जागा 
या किसी दूर के सहरा का बुलावा पाकर 
जी में है और भटकने का बहाना जागा 
महमिलों वालो कोई देर रुको तो देखो 
किससे ख़ुशबूए-वफ़ा पाके दिवाना जागा 
हर तरफ़ चीर गया वक़्त के सन्नाटे को
सरसरे-इश्क़ का वह शोर पुराना जागा 

ख़ैर अब ख़ारे-मोगीलाँ ही को मुज़्दा - यानी 
क़िस्मते-क़ैस है फिर दश्ते-तमन्ना लोगो 
ये उसी गीत की बख़्शिश है कि शब हमने सुना 
दर्दे-बेनाम कि थामे नहीं थमता लोगो 
रिश्ता-ए-जज्ब में जंजीर तो करना चाहें 
पर ये मोती कि रहे दूर ढलकता लोगो 
या तो ये शख़्स सराबों का-सा धोका होगा 
या कोई ताल समंदर से भी गहरा लोगो 


महमिलों = ऊँट पर बँधी हुई डोली (जिसमें लैला बैठी है)
ख़ारे-मोगीलाँ = बबूल का काँटा 
मुज़्दा = शुभ संवाद
सराबों = मरीचिका 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

खुर्शीद के साथ बहुत बातें याद आती हैं। उर्दू कविता और इब्ने इंशा भी !

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