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रविवार, 31 अगस्त 2014

कहो राम, कबीर (Kaho Ram, Kabeer by Ajneya)


न कहीं से 
न कहीं को
         पुल  
न किसी का 
न किसी पे 
         दिल 
न कहीं गेह 
न कहीं द्वार 
         सके जो खुल 
न कहीं नेह 
न नया नीर 
         पड़े जो ढुल … 
यहाँ गर्द-गुबार 
न कहीं गाँव 
न रूख 
न तनिक छाँव 
न ठौर 
यहाँ धुन्ध 
यहाँ गैर सभी 
          गुमनाम 
यहाँ गुमराह 
          सभी पैर 
यहाँ अन्ध 
यहाँ - न कहीं - यहाँ दूर … 
कहो राम,
            कबीर !


कवि - अज्ञेय 
संकलन - नदी की बाँक पर छाया 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1981  

रविवार, 24 अगस्त 2014

तिफ़्ली का ख़्वाब (Tifli ka khwab by Majaz Lakhnawi)

तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों  
इक रोज़ सोज़ो-साज़ की महफ़िल में हम भी हों  
तिफ़्ली = बचपन 

दिल हो असीर गेसू-ए-अंबरसरिश्त में 
उलझे उन्हीं हसीन सलासिल में हम भी हों 
असीर = क़ैदी          सलासिल = ज़ंजीरों  
गेसू-ए-अंबरसरिश्त = ख़ुशबू भरी ज़ुल्फ़ों 


छेड़ा है साज़ हज़रते-सादी ने जिस जगह 
उस बोस्ताँ के शोख़ अनादिल में हम भी हों  
बोस्ताँ = उपवन   अनादिल = बुलबुलों 

गाएँ तराने दोशे-सुरैया पे रख के सर 
तारों से छेड़ हो, महे-कामिल में हम भी हों  
दोशे-सुरैया = तारासमूहों के कंधों  
महे-कामिल = पूर्णिमा का चाँद 

आज़ाद होक कश्मकशे-इल्म से कभी 
आशुफ़्तगाने-इश्क़ की मंज़िल में हम भी हों  
आशुफ़्तगाने-इश्क़ = इश्क़ के दीवानों 

दीवानावार हम भी फिरें कोहो-दश्त में 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल में हम भी हों  
कोहो-दश्त = पहाड़ व रेगिस्तान 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल = ऊँट की पीठ पर औरतों के लिए 
किए जानेवाले पर्दे (महमिल) की सुंदरियों (शोलों) के दीवानों  

दिल को हो शाहज़ादि-ए-मक़सद की धुन लगी 
हैराँ सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल में हम भी हों  
सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल = मंज़िल की राह का सुराग़ पाने 

सेहरा हो, ख़ारज़ार हो, वादी हो, आग हो 
इक दिन उन्हीं महीब मनाज़िल में हम भी हों  
सेहरा = रेगिस्तान    ख़ारज़ार = काँटों भरी धरती 
महीब = भयानक      मनाज़िल = मंज़िलों 

दरिया-ए-हश्रख़ेज़ की मौजों को चीरकर 
किश्ती समेत दामने-साहिल में हम भी हों  
दरिया-ए-हश्रख़ेज़ = क़यामत ढानेवाला दरिया 
दामने-साहिल = किनारे का दामन 

इक लश्करे-अज़ीम हो मसरूफ़े-कारज़ार 
लश्कर के पेश-पेश मुक़ाबिल में हम भी हों 
लश्करे-अज़ीम = भारी फ़ौज    मसरूफ़े-कारज़ार = युद्धरत 
पेश-पेश = आगे-आगे  

चमके हमारे हाथ में भी तेग़े-आबदार 
हंगामे-जंग नर्ग-ए-बातिल में हम भी हों 
नर्ग-ए-बातिल = पापियों के घेरे  

क़दमों पे जिनके ताज हैं अक़्लीमे-दहर के 
उन चंद कुश्तगाने-ग़मे-दिल में हम भी हों  
अक़्लीमे-दहर = दुनिया के देशों 
कुश्तगाने-ग़मे-दिल = दिल के ग़मों के मारे हुओं 


शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

अपने को सलाह (Apne ko salah by Ho Chi Minh)

बिना शरद की ठिठुरन और सन्नाटे के 
वसंत की ऊष्मा और भव्यता 
नहीं मिल सकती,
मुसीबतों ने मुझे पनिया कर 
सख्त कर दिया है 
और मेरे मन को इस्पात बना दिया है। 

बिना आज़ादी के जीना दरअस्ल 
घिनौनी स्थिति है 


कवि - हो ची मिह्न (19.5.1890 - 2.9.1969) 
संकलन - धूप की लपेट 
अनुवाद - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन-संपादन - वीरेन्द्र जैन 
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000 

रविवार, 17 अगस्त 2014

शांति दो मुझे (Shanti do mujhe by Andrei Voznesensky)

शांति दो मुझे, मुझे शांति दो …
लगता है मैं थककर चूर हो चुका हूँ,
मुझे शांति दो …

                                     गुजरने दो धीरे-धीरे
सिर से पैर तक, छेड़ती, सहलाती 
पीठ को, यह लम्बी छाया इस चीड़ की। 
शांति दो हमें … 

भाषा नहीं रही। 
क्यों करना चाहती हो तुम भौंहों का इंद्रधनुष 
शब्दों में व्यक्त। डोलती रहो केवल मौन में। 
शांति दो। 

धीमी है रोशनी से ध्वनि की रफ्तार :
आओ हम अपनी वाणी को विश्रांति दें 
तय है कि जो भी जरूरी है, वह बेनाम है,
क्यों न हम सहारा लें अनुभव और रंग का। 

प्रिये, ये त्वचा की भी अपनी अनुभूतियाँ हैं,
उसमें भी है जान,
अंगुली का स्पर्श त्वचा का संगीत है 
जैसे कानों के लिए बुलबुल का गान। 

कब तक करोगे घर बैठे बकवास ?
कब तक चिल्लाओगे बेमतलब खून ?
कब तक उठाओगे सर पर आसमान ?
छोड़ दो अकेला हमें … 

… हम अपने में तल्लीन हैं 
लीन हैं प्रकृति की रहस्यमय दुनिया में,
धुएँ की कड़ुवाती गंध से भाँपते हैं हम 
गड़रिये पहाड़ से वापस आ गये हैं। 

सांझ का झुटपुटा ब्यालू की तैयारी, धूम्रपान,
छायालिपियाँ हैं वे,
लाइटर की लौ की तरह 
पालतू कुत्ते की जीभ लपलपाती है। 


कवि - आन्द्रे वोज्नेसेंस्की 
संग्रह - फैसले का दिन 
अनुवाद - श्रीकांत वर्मा 
प्रकाशक - संभावना प्रकाशन, हापुड़, द्वितीय संस्करण, 1982 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

उड़ गया है रंग (Uda gaya hai rang by Muktibodh)

उड़ गया है रंग 
प्राण दुकूल का, पर चढ़ रहा है ओज 
व्यक्ति-बबूल पर 
औ' तिक्त कड़ुए गोंद-सा 
कुछ व्यर्थ का साफल्य 
सूना सारहीन महत्त्व 
बहकर सूखकर एकत्र है 
औ' खुरदुरे काले तने की डालियाँ 
इस गोंद की 
कटु-कठिन गाँठों से 
सुशोभित हो 
प्रदर्शित कर रही हैं आत्म-वैभव 
आत्म-गरिमा 
रात-दिन 


[संभावित रचनाकाल 1945-1946. बनारस. हंस, जून 1946 में प्रकाशित]

कवि - मुक्तिबोध 
संकलन - मुक्तिबोध रचनावली, खंड 1 
संपादक - नेमिचंद्र जैन 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, तीसरी आवृत्ति, 2011 

आज के भाषण के संदर्भ में इस कविता को पढ़ें तो एक और कोण खुलता है !

शनिवार, 2 अगस्त 2014

निर्वासन (Nirvasan by Girijakumar Mathur)


महताबियाँ जल-जल उठती हैं 
आस-पास चारों ओर :
अनहोनी चकाचौंध 
यहाँ, यहाँ, यहाँ -
औचक फुलझड़ियाँ। 
चकरी-सा नाच रहा मन,
या वातावरण ?
ओ निर्वासन, कहाँ हूँ मैं, कहाँ हूँ ?



कवि - गिरिजाकुमार माथुर 
संकलन - तार सप्तक 
संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पहला पेपरबैक संस्करण, 1995