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गुरुवार, 25 सितंबर 2014

प्रीति (Preeti by Dinkar)

प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि !
              पल-भर चमक बिखर जाते जो 
              मना कनक-गोधूलि-लगन सखि !
              प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि !

प्रीति नील, गंभीर गगन सखि !
              चूम रहा जो विनत धरणि को,
               निज सुख में नित मूक-मगन सखि !
               प्रीति नील, गंभीर गगन सखि !

प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि !
               जो होता नित क्षीण एक दिन,
               विभा-सिक्त करके अग-जग सखि !
               प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि !

दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि !
               शीत, स्निग्ध, नव रश्मि छिड़कती 
               बढ़ती ही जाती पग-पग सखि !
               दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि !

मन की बात न श्रुति से कह सखि !
               बोले प्रेम विकल होता है,
               अनबोले सारा दुख सह सखि !
               मन की बात न श्रुति से कह सखि !

कितना प्यार ? जान मत यह सखि !
               सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे 
               बसती कहीं प्रीति अहरह सखि !
               कितना प्यार ? जान मत यह सखि !

तृणवत् धधक-धधक मत जल सखि !
               ओदी आँच धुनी विरहिनि की,
               नहीं लपट की चहल-पहल सखि !
               तृणवत् धधक-धधक मत जल सखि !

अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि !
               प्रीति-स्वाद कुछ ज्ञात उसे जो 
               सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि ! 
               अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि !


कवि - दिनकर 
संकलन - कविश्री 
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1989 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (26.09.2014) को "नवरात महिमा" (चर्चा अंक-1748)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद। नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें।

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  2. बहुत मधुर रचना ! मजा आ गया !
    नवरात्रि की हार्दीक शुभकामनाएं !
    शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ३

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