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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

बाबा (Baba by Purwa Bharadwaj)

आज का दिन कानूनी मसलों से जूझने में गया. हिंदी में अनुवाद और संपादन के काम ने मुझे अपने बाबा - बाबू राम परोहन सिंह की याद दिला दी. कानून पर काम करनेवाली अपनी युवा साथियों को भी मैंने बाबा का किस्सा सुना दिया. बात शुरू हुई थी भाषा से. अभी का कोई कानून हिंदी में उठाइए तो समझ में ही नहीं आएगा कि कहा क्या जा रहा है. फारसी तो नहीं कहूँगी, लेकिन शायद यह उर्दू के गायब होते जाने का नतीजा है. अदालतों का तो पता नहीं, मगर अभी के ढेर सारे कानूनी दस्तावेज़ों में जो संस्कृतनिष्ठ पदों से भरी भाषा है वह मुझे समझने में बहुत दिक्कत हो रही थी. संस्कृत की एम,ए. और पी.एच.डी. की डिग्री मददगार न थी. मुझे तो लगता है कि उसको शायद कोई वकील भी पूरा नहीं समझता होगा. ऐसे में अपने साथ होनेवाले अन्याय के खिलाफ अदालत का दरवाज़ा खटखटानेवाले कितना असहाय महसूस करते होंगे ! जो चाहे वह पट्टी पढ़ा दी जाए वे उसे कानून मानकर चुप बैठने को बाध्य कर दिए जाते हैं. सोचते हैं कि न किस्मत ने सुनी, न भगवान ने और न अदालत ने. सबकुछ अबूझ हो गया है. बात स्पष्ट करनी हो तो कानून का अंग्रेज़ी में लिखा दस्तावेज़ देखना पड़ता है. उसमें भी जब मेरे जैसे कानून के मामले में अनपढ़ को इतना झोल नज़र आता है तब जानकार लोग क्या अपना सर नहीं धुनते हैं ! फिर मेरे बाबा कैसे कानून समझ लेते थे ? 

पापा बताया करते हैं कि आस पास के गाँव के लोग बाबा को वकील साहब कहा करते थे. उन्होंने औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी. उस समय हमारे गाँव चाँदपुरा (हाजीपुर के करीब) में स्कूल नहीं था. चलन था घर पर मुंशी (कायस्थ) से कैथी पढने का. उसी में सारा हिसाब किताब हुआ करता था. बाबा भी कैथी जानते थे. अपना दस्तखत कर लेते थे. बाकी वक्त लिखने का मौका भी न था. किसान घर और 10 बच्चोंवाला परिवार (मेरे पापा चार भाई हैं और छः बहन. अब बड़का चच्चा नहीं हैं और गिरिजा फुआ, मनोरमा फुआ और नेकलेस फुआ नहीं हैं) ! इसके अलावा बाबा चार भाई थे यानी मेरे बाबा, मेरे बड़का बाबा, मँझले बाबा और छोटका बाबा. सबलोग साथ रहते थे. मेरी याद में बड़का बाबा घर से थोड़ी दूर बथान पर रहने लगे थे. सबलोग अपने इलाके की भाषा बज्जिका बोलते थे. अपने घर और ज़मीन के मुकदमे ने बाबा को कानून की भाषा सिखा दी. उसमें उनको मज़ा भी आने लगा तभी तो अगल बगल के गाँव के लोगों को भी कानूनी सलाह देने लगे थे. लोग क्या कई बार वकील भी उनसे मुकदमे पर चर्चा करते थे. उनका काफी समय इसमें जाता. कभी किसी मुद्दई के साथ तो कभी किसी गवाह के साथ वे अदालत के चक्कर काटते रहते थे.

1934 के भूकंप का आँखों देखा हाल सुनाते हुए बाबा मुजफ्फरपुर की अदालत के ज़मींदोज़ हो जाने की बात बताया करते थे. मुझे वह किस्सा थोड़ा थोड़ा याद है. बाबा मुजफ्फरपुर की अदालत से निकले और सड़क के ठीक उस पार गए ही थे कि ज़लज़ला आया. नज़र घुमाई तो अदालत गायब थी ! पूरी की पूरी इमारत ज़मीन में धँस गई थी. लेकिन बाबा का मुक़दमा प्रेम बरकरार रहा. पापा के मुताबिक़ बाबा मुक़दमे के शौक़ीन थे. वे अक्सर अपने पके बालोंवाले सर को सहलाते हुए मज़ाक के स्वर में पूछते थे कि क्या चार-पाँच किता मुक़दमा और कर दिया जाए. (बाबा के सर के मुलायम छोटे बाल मुझे याद हैं जो जवाकुसुम तेल से गुलाबी हो जाया करते थे. और यह भी कि कई बार अपने सर पर हाथ फेरते हुए वे बरामदे की चौकी पर लेटे रहते थे तो मुस्कुराते हुए अपूर्वानंद से पूछते थे, "कि हो कविजी, की हालचाल ?" ) बाबा के लिए कानून अबूझ न था और न कैथी और बज्जिका से दूर ! उसकी उर्दू-फारसी उन्हें समझ में आती थी. आज का दस्तावेज़ ज़रूर उन्हें किसी दूसरे लोक का लगता.

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

चेहरे (Faces by Moshe Dor)

नीचे
रेत के
तुम काटते हो मेरा पैर.
और अगर हो तुम्हारा पैर
मेरे चेहरे पर?
हम बँधे हैं
रस्सियों से ज़हर की,
कक्ष
हमारे हृदयों के भरे हुए
गाँठों से स्याह
ख्यालों की.
शायद हमारे बच्चे
जान पाएँगे
इससे बेहतर मुठभेड़ें
रेत और समंदर के बीच,
महान सितारों के नीचे.
अभी तो
रहने दो
खामोशी
हमारे बीच
इस तिक्त रेत
के सामने.  


इस्रायली कवि - मोशे दोर (Moshe Dor)
संकलन - क्रॉसिंग द रिवर 
संपादक - सेमोर माइन (Seymour Mayne)
प्रकाशन - मोज़ाइक प्रेस, लंदन, 1989 
हिब्रू से अंग्रेज़ी अनुवाद - मार्क व्हाइतिस-हेम (Mark Whiteis-Helm)
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 





मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

शरत्पूर्णिमा (Sharatpurnima by Ajneya)


चाँद चितेरा 
आँक रहा है शारद नभ में 
एक चीड़ का खाका l 



कवि - अज्ञेय 
संकलन - अरी ओ करुणा प्रभामय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, प्रथम संस्करण -1959 

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

तबादले और तबदीलियाँ (Tabadale aur tabdiliyan by Kunwar Narayan)

तबदीली का मतलब तबदीली होता है, मेरे दोस्त 
सिर्फ़ तबादले नहीं,

वैसे, मुझे ख़ुशी है 
कि अबकी तबादले में तुम 
एक बहुत बड़े अफ़सर में तबदील हो गए :

             बाकी सब जिसे तबदील होना चाहिए था 
             पुरानी दरख़्वास्तें लिये 
             वही का वही 
             वहीं का वहीं। 


कवि - कुँवर नारायण 
संकलन - कोई दूसरा नहीं 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1993 

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भ्रमरगीतसार (Bhramargeetsaar by Soordas)

               मेरे मन इतनी सूल रही l
वे बतियाँ  छतियाँ  लिखी  राखों  जे  नंदलाल कही ll
एक   दिवस   मेरे   गृह  आए  मैं  ही   मथति  दही l
देखि  तिन्हें मैं मान कियो सखि सो हरि गुसा गही ll
सोचति अति पछताति राधिका मूर्छित धरनि ढही l
सूरदास  प्रभु   के  बिछुरे  तें  बिथा  न  जाति सही ll37ll


कवि - सूरदास
संकलन - भ्रमरगीतसार
संपादक - आचार्य रामचंद्र शुक्ल
प्रकाशक - नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत्

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

नाचएं भांड नचावयें गुनी जन (Awadhi poem by khurshid Anwar)


(इलाहाबादी अवधी माँ कहिन)

नाचएं भांड नचावयें गुनी जन 
लीला देखए सबहूँ सज्जन 
राम पियारे भजन लला के 
चढ़ चढ़ गावैं नाचय तन मन 
जुम्मन कबहूँ जुम्मा न पढ़िहें 
मगर मसीद की खातिर लड़िहें 
अऊर भांड किताबन वाले 
गुनी जनन का सजदा करिहें 
लिखिहें सेना तुरत बुलाओ 
जंगल जंगल छापा मारव 
बम्बू, डंडा, गोली लई के 
आतंकी के सबय घुसाओ 
ससुरे जंगल कब्जा कई के 
सदियन से इयाहाँ पसरे 
छाँट लेव पिछवाड़ा इनका 
नाप लेव सब तिनका तिनका 
देखव एक्को भाग न पावय 
तबहीं हमरा जियरा जुड़ावय 
अऊर भांड है सांड से मोटके 
रूपया पईसा जेब मा धर के 
बईठे है गुजरात मा जम के 
कह्यें नरेन्दर भाई अइहें 
खूब तरक्की हमरी करिहें 
इनके पीछे सब्बै चलिहें 
अऊरो भांड हैं देखैं लुक के 
कुदिहैं मगर बस मऊका तक के 


कवि - ख़ुर्शीद अनवर 
संकलन - हम वापस आएंगे 
प्रकाशक - इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी, दिल्ली, 2014 

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

आओ (Aao by Makhdoom Mohiuddin)

उसी अदा से उसी बाँकपन के साथ आओ। 
फिर एक बार उसी अन्जुमन के साथ आओ। 
हम अपने एक दिल -ए बेख़ता के साथ आएँ। 
तुम अपने महशरे दारो रसन के साथ आओ। 


महशरे  - प्रलय 


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004 


गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

अहिंसा (Ahinsa by Kedarnath Agrawal)

मारा गया 
           लूमर लठैत 
पुलिस की गोली से 
किया था उसने कतल 
उसे मिली मौत 
किया था कतल पुलिस ने 
उसे मिला इनाम 

प्रवचन अहिंसा का 
हो गया नाकाम। 


कवि - केदारनाथ अग्रवाल 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अशोक त्रिपाठी 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2010