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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

बर्तन (Bartan by Purwa Bharadwaj)

इन दिनों घर में हूँ तो थोड़ी साज-सँभाल कर पा रही हूँ. आज शाम बारी बर्तनों की थी. मुझे बहुत चिढ़ होती है जब मैं खाना बनाने या परोसने चलूँ तो ठीक वही बर्तन समय पर न मिले जो मुझे चाहिए. अब छोलनी चाहिए तो छोलनी ही चाहिए, झंझरा से नहीं चलेगा और न ही बड़े चम्मच से. इसी तरह लोहे की कड़ाही चाहिए तो हिंडोलियम की कड़ाही से काम चलाना खिझा देता है. फिर यदि बैंगन की सब्ज़ी का स्वाद गड़बड़ाए तो दोष मेरा नहीं, बल्कि बर्तन का है. इसी चक्कर में आज मैंने बर्तन का ताखा उकट डाला. मुझे सुबह टिफिन का ढक्कन न मिलने की चिढ़ की सुरसुरी भी चढ़ गई. यह ठेठ औरतानापन है. हम बर्तनों की दुनिया में रहने के लिए ढाले गए हैं और इसे हमने आत्मसात भी कर लिया है, वरना ऐसी भी क्या हाय तौबा !

मेरी दिक्कत क्या है ? बर्तन खोजो तो जगह पर मिलेंगे नहीं. हमारे जैसों की रसोई तो बहुत करीने से होती नहीं है ! (जाकर महाराष्ट्र में देखना चाहिए ! मुझे वर्धा के लोगों की रसोई याद आई) मेरी डिज़ाइनर रसोई भी नहीं है जो अलग-अलग खानों में सजे बर्तन मिल जाएँ. लिहाज़ा लकड़ी के पटरेवाले ताखे (विश्वविद्यालय की कृपा से उसमें लकड़ी के पल्ले लगे हुए हैं. यह अलग बात है कि उनमें चूहों ने बड़े-बड़े सुराख बना दिए हैं) पर बर्तन होते हैं. सहूलियत के लिए प्लास्टिक की थोड़ी गहरी ट्रेनुमा चीज़ भी है जिसमें ढक्कन जैसे छोटे-छोटे बर्तन डाल देती हूँ. स्टील का बर्तन स्टैंड मध्यवर्गीय रसोईघर का हिस्सा है, सो मेरे यहाँ भी है और मेरे बर्तन स्टैंड पर थाली-तश्तरी (फुल प्लेट-हाफ प्लेट)  के अलावा ग्लास और कुछ कप आ जाते हैं. (वैसे कल ही मैं शामली के कैराना ब्लॉक के विजय सिंह पथिक राजकीय महाविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने गई थी तो खाना खाने के लिए हमें जिस कमरे में जहाँ ले जाया गया मैंने वहाँ स्टील का बर्तन स्टैंड देखा. मुझे लगा कि ज़रूर वहाँ कैंटीन होगी. मालूम हुआ कि वह होम साइंस का लैब है और इसीलिए स्टैंड के नीचे दो सिंक भी लगे थे) चम्मच स्टैंड भी है ही. काँटी ठोंक ठोंक कर कुकर के ढक्कन, बड़ी छन्नी, बैंगन पकानेवाली जाली वगैरह टाँगने का भी मैंने जुगाड़ बैठा लिया है. मगर कई चम्मच या दिल्लीवालों की ज़बान में पलटा कहलानेवाला (डोसे का अलग, जालीदार अलग, दही बड़े के लिए अलग) इधर-उधर मारा फिरता है क्योंकि वह न चम्मच स्टैंड में जाएगा और न उसके पीछे छेद है जो मैं कहीं लटका दूँ. काश बर्तन पर नाम लिखवाने की तरह बर्तन को अपनी सुविधानुसार रखने के लिए हम बर्तन में मनचाही जगह पर छेद करवा पाते ! लेकिन बर्तन के साथ हम जो चाहें कर सकते हैं क्या ?

बर्तन पर नाम लिखवाने से याद आया जब यह खूब चलन में था. मेरे ग्लास पर पूर्वा लिखा है और भैया की कटोरी पर चिंतन तो हमें बड़ा मज़ा आता था. अधिकतर बर्तनों पर पापा का नाम हुआ करता था. मुझे याद नहीं कि माँ का नाम किन बर्तनों पर था ! शायद कुछ पर उसने शौक से लिखवाया होगा. वैसे लड़की के मायके से आनेवाले कुछ बर्तनों पर नाम लिखवा दिया जाता था. आधुनिकता के नाम पर यह उदारता बरती जाती थी ! बर्तन की आधुनिक दुकानों पर मुफ्त में नाम लिखा जाता था, जैसे श्याम स्टील हाउस या बासन (पटना) में. बाद में फेरी पर बर्तन बेचनेवाले भी मशीन लेकर घूमने लगे. तीन साल पहले फुलवारी शरीफ में जब मैं बक्खो समुदाय के बीच शोध का काम कर रही थी तो वहाँ बर्तन की फेरी लगानेवाली औरतों ने मुझे बताया था कि आजकल बर्तनों पर नाम लिखवाने का फैशन चला गया है. अभी मुझे मन कर रहा है कि इसका पूरा समाजशास्त्रीय विश्लेषण कहीं पढ़ने को मिल जाए कि कब कहाँ और कैसे बर्तन पर नाम लिखवाना शुरू हुआ. यह केवल फैशन था या रसोई से रिश्ता मजबूत बनाए रखने की युक्ति थी ? यह ख़त्म क्यों हुआ ? और बर्तनों को केंद्र में रखकर आजकल कौन सी युक्ति चल रही है ?
समझा जाता है कि बर्तन गृहिणी के जिम्मे होते हैं, मगर उनके इस्तेमाल से लेकर खरीदने-बेचने का हक़ भी औरतों को नहीं हुआ करता है. या नहीं हुआ करता था ? मेरी माँ को मायके से जो बर्तन मिले उनमें से कुछ बिना उससे पूछे मेरी फुआ की शादी में दे दिए गए, इसका किस्सा मैंने सुना है. उसी तरह मामा-बाबा (दादी-दादा) की मृत्यु के बाद पीतल का परात और पीतल की कठौती किसे मिलेगा, यह विवाद का मुद्दा रहा. असल बात यह है कि बर्तन संसाधन भी हैं और विरासत भी. किसे क्या मिलेगा और कब मिलेगा और किसकी इजाज़त से मिलेगा, इसका फैसला तो पितृसत्तात्मक परिवार ही करता है न !

शादी-ब्याह में प्रदर्शनीय वस्तु की तरह बर्तन कितने महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, यह अभी सोच रही हूँ. खूँटे की तरह. बेटी को शादी में बर्तन देकर (गहना-गुड़िया और कपड़ा-लत्ता जोड़कर) मान लिया जाता है कि उसका हिस्सा दे दिया गया. शुरुआत सोने-चाँदी से करते हैं. जिसकी जितनी हैसियत उतनी महँगी धातु का बर्तन. कुछ नहीं तो कम से कम पाँच चाँदी के बर्तन होने ही चाहिए. चाँदी का गगरा न हो तो लोटा ही सही. उसके बाद फूल और पीतल-काँसा के बर्तन का नंबर आता है. फूल इसलिए कि पवित्र धातु है और जो जितना पवित्र होता है वह उतना महँगा ! स्टील की औकात कम थी, इसलिए पहले स्टील के बर्तन नहीं दिए जाते थे. मगर जब 70 के दशक में इसका प्रचार बढ़ा और स्टील के किचेन सेट और डिनर सेट बाज़ार में छा गए. उनका असर तुरत तिलक-फलदान पर पड़ा और हमें चमचमाते स्टील के बर्तन से घिरे दूल्हे महोदय भले लगने लगे ! बर्तनों को करीने से सजाया जाता था, नातेदारों-मोहल्लेवालों को दिखाया जाता था ताकि लोग लड़कावाले और थोड़ी कम, मगर लड़कीवाले की हैसियत भी देख लें. लड़की की हैसियत का कहीं ज़िक्र नहीं होता. प्रायः लड़की तो बर्तन की तरह हस्तांतरित होने को अभिशप्त है ! इन दिनों एक वर्ग में जब तिलक-फलदान की रस्म की जगह इंगेजमेंट और लेडीज़ संगीत होने लगे हैं, तब बर्तन रस्मों में दिखाए नहीं जाते, बल्कि खुद ब खुद मॉड्यूलर किचेन में सज जाते हैं !

मुझे माँ का बर्तनों को नाम देना अच्छा लगता था. यह नाम कभी नंबर होता था कभी उसका आकार तो कभी उसका दाम. जैसे मेरे यहाँ नौ रुपएवाली कटोरी थी और पहलवाली तश्तरी थी. 8-10 भगोनों में सबसे ज़्यादा 4 नंबर और 2 नंबर वाला भगोना इस्तेमाल होता था. अपनी शादी के बाद मैं जब अलग हुई तो पुराने भगोनों का नंबर नहीं भूली, मगर जब उनकी संख्या 20-25 हो गई तो नए भगोनों का नंबर याद नहीं हो सका. इसने कहीं न कहीं मेरा दुख बढ़ाया होगा, क्या इसे कोई समझ सकता है ? शादी के बाद घर छूटना में बर्तनों से छूटना भी तो है !

नए घर में, चाहे वह ससुराल हो या आपका डेरा हो, बर्तनों से दोस्ती होते-होते होती है. और इससे पहचान होती है कि बहू और पत्नी के रूप में आपने कितना अपने घर को अपनाया है ! एक समय आता है कि आप मायके के बर्तनों का स्पर्श भूल जाते हैं. मैं भी बहुत कुछ भूल गई हूँ. मुझे अब खड़े किनारेवाली तश्तरी छूकर वह नहीं लगता जो पहले माँ उसमें चूड़ा-मटर देती थी तो लगता था. सीवान के बाद अब चंडीगढ़ में कौन सा बर्तन नया है, यह शायद याद रहता है. पिछली यात्रा के बाद चंडीगढ़ की अगली यात्रा में कप का डिज़ाइन बदल जाता है तो वह भी ध्यान खींच लेता है. तो बर्तन अलगाव और समावेश का ज़रिया अनजानते बन जाता है न ?

मेरे घर में कौन बर्तन कैसे और कब आया, यह संदर्भ मुझे अधिक याद रहता है. जैसे कटहल काटने के लिए मैं जैसे ही बड़ा चाकू (यह चौपर जैसा है और खासा बड़ा है) उठाती हूँ मुझे याद आता है कि इसे मेघालय की तरफ से उपहारस्वरूप ननदोई लाए थे या बोरोसिल वाला ग्लास नीरा भाभी ने मेरी शादी की दूसरी वर्षगाँठ के मौके पर मुझे दिया था या तीन साल पहले धनतेरस में मैंने नयावाला कुकर खरीदा था या पुआ बनाने के लिए लोहे की ताई देवघर से आई थी. कुछ यही आदत मेरी बेटी की है. उसे भी फलाना कप या फलानी प्लेट चाहिए. इन संदर्भों की वजह से ही शायद टूटे और घिसे बर्तनों का मोह भी ज़्यादा होता है. मुझे अपना गैस तंदूर नहीं भूलता जिसमें पटना में मैं खूब लिट्टी बनाती थी और एक बार मैंने उसी में बनाकर पिज़्ज़ा पार्टी की थी. बर्तन में यदि संदर्भ पिरोए हुए हैं तो क्या इसका मतलब लोगों और जगहों की याद ही बर्तनों को महत्त्वपूर्ण बना देते हैं ?

प्रतिरोध और गुस्से के इज़हार में बर्तन की भूमिका से हम सब परिचित हैं. इसीलिए घरवालों को सबक सिखाने के लिए अपने बर्तन अलग कर लेने का नुस्खा भी चलता है. माँ जब गुस्से में रहती थी तो ढेर सारा बर्तन मलने बैठ जाती थी. अब श्रम के साथ जेंडर के रिश्ते की समझ ने बर्तनों के साथ औरतों के बर्ताव और उनकी मनःस्थिति को नई निगाह से देखने का अवसर दिया है. घरों में काम करनेवाली का तनाव बर्तनों की झनक-पटक के रूप में निकलता है. यदि किसी पर बस नहीं चले तो गुस्सा भी बर्तनों पर निकलता है. रसोई से ठांय-ठांय की आवाज़ आ रही है तो इसका मतलब है कि असल में हलचल कहीं और मची है. वैसे गुस्सा भी अलग-अलग ढंग से बर्तन पर और बर्तन के ज़रिए निकलता है. हमारे एक मित्र ने गुस्से में ग्लास को इतनी ज़ोर से दबाया कि वह पिचक ही गया. खाना खराब होने पर या कुछ भी नागवार गुज़रने पर घर के पुरुष थाली भंजाकर फेंक दिया करते हैं. सभ्य हुए तो खिसकाकर उठ जाएँगे और अगले को संदेश मिल जाएगा कि कायदे से रहिए !

छूत-छात में बर्तन हथियार का काम करते हैं. बर्तन अलग करना तो धर्मनिकाले या जाति बाहर करने जैसी सज़ा है और इस बहाने आपको अपने दायरे में रहने को कहा जाता है. मुसलमान और तथाकथित नीची जाति क्या, गरीब रिक्शावाले के लिए भी अलग बर्तन रखते हैं लोग. एक दिन मैंने दो घर छोड़कर काम कर रहे मज़दूर को बोतल के साथ ग्लास दे दिया तो रसोई में मेरी मदद करनेवाली मंजु ने ऐतराज किया. बर्तन हर जगह सद्भाव, समानता और अधिकार का प्रतीक बने रहें, यह कामना क्या की जा सकती है ? दूर से अपनी आचमनी से चरणामृत देनेवाले पंडित जी को यह मंजूर होगा क्या ?

बर्तन के साथ पवित्रता का जोड़ उसके उपयोग की जगह और तरीके पर भी निर्भर करता है. पवित्रता के एक छोर पर पूजा के बर्तन हैं तो दूसरे छोर पर पाखाने का बर्तन  इसी तरह जूठे-सँखरी बर्तन और निरैठ बर्तन के बीच की खींचतान काफी किचकिच कराती है. शाकाहार और मांसाहार भी एक बड़ा आधार है बँटवारे का. खासकर मेरे घर में. मेरी माँ मेरे घर में खाती नहीं है क्योंकि मेरा सारा बर्तन भटभेड़ है. माँ बचपन से शाकाहारी है और उसकी रसोई में मांस-मछली का प्रवेश निषिद्ध है. वह पटना से आती है तो अपना ग्लास लेकर. धीरे-धीरे मैंने उसके लिए अलग चूल्हा और ज़रूरी बर्तन ले लिया है. साल-दो साल में जब वह आती है तो बाहर के स्टोर में रखे उन बर्तनों की किस्मत खुलती है. पहले मैं नाराज़ होती थी, लेकिन अब मैंने मान लिया है कि उसको अपने तरीके से रहने का इतना हक़ तो मैं दे सकती हूँ.

पहचान का आधार भी होते हैं बर्तन. तामचीनी के बर्तन से हमें फौजी याद आते थे या मुसलमान. क्रॉकरी भी रईस मुसलमान घरों की पहचान थी. हालाँकि अब मध्यवर्ग में इसे अपनाना सुरुचि का प्रमाण बन गया है. रह गई मिट्टी के बर्तन की बात, तो एक तरफ पूजा और श्राद्ध से लेकर दही जमाने में इसका इस्तेमाल होता है तो दूसरी तरफ फुटपाथ या खलिहान में मिट्टी की हांडी चढ़ती है. वह भी साबुत हो ज़रूरी नहीं. गरीब टूटे-फूटे बर्तन को अपशकुन मानकर नहीं बैठते, बल्कि गनीमत मानकर उसी में चावल भी पका लेते हैं. द्रौपदी के पात्र का मिथक उनके सामने सबसे ज़्यादा साफ रहता है ! इस तरह किसी के लिए लक्ष्मी के प्रतीक हैं बर्तन तो किसी के लिए अभाव और दरिद्रता की पहचान.

खुशी ज़ाहिर करने में बर्तन बजाना कई इलाकों में होता है. बेटे के जन्म पर थाली बजाना होता है और प्रगतिशील लोग बेटी के जन्म पर भी थाली बजाने लगे हैं  अब किस थाली से कितनी आवाज़ निकालनी है यह परिवार तय करता है और परिवार जिस सामाजिक ढाँचे में पैवस्त है उससे ग्रहण करता है. ध्यान खींचने के लिए भी बर्तन बजाया जाता है. बर्तन की साझेदारी प्रेम दर्शाने का तरीका है. नए नवेले जोड़े एक बर्तन में खाकर मुदित होते हैं तो पति के छोड़े हुए बर्तन में खाना पत्नी धर्म है ! बैना अपने बर्तन में भेजकर हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं. यही नहीं, साथ रहकर लड़ने-झगड़ने को स्वाभाविक बनाते हुए भी बर्तन को लेकर कहावत है. कहा जाता है कि जहाँ चार बर्तन होंगे वे ठनकेंगे ही, टकराएँगे ही. फिर भी ठनकने-खनकने-ढनमनाने के स्वभाव वाले बर्तनों के साथ कठोरता से पेश आना अच्छी बात नहीं है. नज़ाकत बरतने की माँग सब करते हैं, केवल काँच के बर्तन नहीं.

भई बर्तन की कथा तो बहुत लंबी है ! अब बर्तन के आकार-प्रकार का अलग खेल है. अलग देश ही नहीं, अलग इलाके, अलग धर्म अलग वर्ग और अलग जाति-जनजाति सबके बर्तनों की बनावट में अंतर मिलता है. मगर बधना को नेती करने के टोंटीवाले लोटे से अलग मानकर मगर उस पर हँसा क्यों जाए ? हाँ, उससे सुरुचि और कुरुचि का रिश्ता माना हुआ है. अपूर्व को खाने में यदि बड़ा चम्मच चला गया तो उनका मज़ा किरकिरा हो जाता है. वे उठकर अपनी पसंद का छोटा चम्मच लेंगे. कटोरी में दाल दी गई है तो उसे भात पर पलट लेंगे क्योंकि उन्हें बर्तन बर्बाद करना पसंद नहीं. वे बर्तन को मेहनत से सीधे जोड़कर देखते हैं. उनका कहना है कि बर्तन कम खर्च करो, कम गंदा करो ताकि पानी भी बचा सको. मैं मेहनतवाली तर्क की तो कायल हूँ क्योंकि कुकर-कड़ाही रगड़ना पड़े तो पता चलता है. हालाँकि आजकल उससे ज़्यादा मेहनत मुझे काँच के बर्तनों की सँभाल और कप की डंडी और मुड़े हुए किनारेवाली छिपली को ब्रश से साफ करने में लगती है. साबुन-पानी की बचत पर मेरा उतना ध्यान नहीं जाता क्योंकि तरह तरह के बर्तन निकाल कर उनमें सजाकर खाना परोसना तो कला है और प्रतिष्ठा का सवाल भी. मैं कामकाजी महिला के साथ कलावंत महिला भी तो बनना चाहती हूँ ? जिसे हर वक्त बर्तनों के साथ रहना पसंद न हो, मगर बर्तनों पर दावा छोड़ना अपना इलाका छोड़ना लगेगा !



मंगलवार, 25 नवंबर 2014

इंतज़ार की रात (Intazar ki raat by Ibne Insha)

उमड़ते आते हैं शाम के साये 
दम-ब-दम बढ़ रही है तारीकी 
एक दुनिया उदास है लेकिन 
कुछ से कुछ सोचकर दिले-वहशी 
मुस्कराने लगा है - जाने क्यों ?
वो चला कारवाँ सितारों का 
झूमता नाचता सूए-मंज़िल 
वो उफ़क़ की जबीं दमक उट्ठी 
वो फ़ज़ा मुस्कराई, लेकिन दिल 
डूबता जा रहा है - जाने क्यों ?


उफ़क़ = क्षितिज     जबीं = मस्तक 

शायर - इब्ने इंशा 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1990 

सोमवार, 24 नवंबर 2014

उदासी (Udasi by Purwa Bharadwaj)

मन उदास है. यों उदासी की वजह कई हो सकती है, लेकिन आज खुर्शीद के जन्मदिन को याद करके मन भारी है.

उदासी शायद याद से अनिवार्यतः जुड़ी होती है. कुछ न कुछ याद करके ही हम उदास हो जाया करते हैं. मुझे 'हिरोशिमा के फूल और वियतनाम को प्यार' किताब उदास कर देती है कभी कोई इंसान याद आता है, कभी किसी की कोई बात, कभी किसी की कोई हरकत, कभी कोई घटना, कभी कोई रिश्ता. इन सबके मूल में कोई न कोई भावना होती है जिसे हम याद करते हैं, जैसे प्यार-मुहब्बत, लाड़-दुलार, मान-अपमान या लड़ाई-झगड़े को. इंसान और इंसानी भावनाओं से जुड़ी कोई जगह या घर या नदी या फिल्म या गीत या सामान ... कुछ भी याद आ जाता है. बाज़ दफ़ा याद की कोई शक्ल भी नहीं होती और उसका अहसास भर आपको उदास कर देता है.

अधिकतर व्यक्ति के संदर्भ से और उसकी पहचान से उदासी का कारण, उसका स्वरूप और उदासी व्यक्त करने का तरीका निर्धारित होता है. बच्चा क्यों और कैसे उदास होता है, गरीब औरत की उदासी कैसी होगी, शारीरिक या मानसिक रूप से विशेष आवश्यकतावाले किशोर की उदासी कब और कैसे व्यक्त होगी, एक शहरी धन्ना सेठ क्योंकर उदास होगा, मेले में खेल दिखानेवाली नट लड़की की उदासी किसको दिखेगी - इनके जवाब खोजने के लिए व्यक्ति विशेष और उसके परिवेश को समझना पड़ता है.
मगर व्यक्ति केंद्रित हो उदासी, यह आवश्यक नहीं है. हिरोशिमा और वियतनाम आपको उदास कर जा सकता है तो बामियान बुद्ध का भंजन और शामली में लगा शिविर भी. अक्सर परिचय के दायरे में आनेवाली बातें उदासी की वजह बनती हैं, परंतु दूर-दराज़ की अपरिचित चीज़ें भी वजह बन सकती हैं. आज मैंने केनिया में हिंसा की खबर पढ़ी तो मन उदास हुआ. याद के अलावा खबर में उदासी के बीज छिपे होते हैं. दुनिया के किसी भी हिस्से की कोई खबर आपको उदास कर जाती है. जो घट चुका है, वही नहीं, बल्कि भविष्य में आनेवाली खबर भी आपको पहले से उदास कर जा सकती है. उसमें यदि आप असहाय हैं, कुछ बदल नहीं सकते हैं तो तीव्रता बढ़ जाती है. यदि आप हालत में थोड़ा भी परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं तो उदासी घट सकती है, छँट सकती है.

मेरे हिसाब से ज़रूरी नहीं कि हमेशा उदासी दुख, निराशा, तकलीफ और दर्द से जुड़ी ही हो. बहुत खुशगवार और खुशनुमा चीज़ें भी उदास कर जा सकती हैं. कुछ खोने, गँवा देने, छूट जाने से ज़रूर उदासी आपको घेर लेती है, मगर उस उदासी का कारण मालूम होने से उस पर काबू पाना आसान होता है. परेशानी तब बढ़ती है जब आपको उदासी का कारण समझ में नहीं आता, जब खुशी में उदासी के कण घुल-मिल जाते हैं. दूसरों को ही नहीं, खुद को भी यह अजीब लगता है, लेकिन इस पर बस तो है नहीं ! संभवतः भावी दुख-तकलीफ की आशंका उसकी जड़ में होती होगी जिस पर हम ऊँगली भी नहीं रखना चाहते हैं.

हर हाल में उदासी से मुझे छुट्टी चाहिए. मुझे ही नहीं, अधिकांश लोगों को इससे घबराहट होती है. हम जल्दी से जल्दी से इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं. घरेलू नुस्खे अपनाते हैं, आस-पड़ोस की राय पर चलते हैं, दोस्त-मुहिम का साथ मुट्ठी में पकड़ कर बैठ जाते हैं और भरसक अपने को व्यस्त रखते हैं. लेकिन कई बार उदासी का हल राजनीतिक होता है जो होता नहीं है. पूरे के पूरे समुदाय, पूरी की पूरी कौम को उदासी में धकेलने की जिम्मेदारी भला कौन लेता है ?

उदासी की अपनी लय होती है. वह कभी ऊबड़-खाबड़ होती है और कभी समगति. लय में आने के पहले ही इसे ख़त्म कर देना चाहिए, वरना यह अच्छी लगने लगती है. उदासी का एक पहलू खूबसूरती है और खूबसूरती का भी एक पहलू उदासी है. इससे मोह हो जाता है और फिर यह कुंडली मारकर बैठने लगती है. लोगों का ध्यान खींचने लगती है और तब हम उसका रस लेने लगते हैं. उदास होना काव्यमय हो जाता है. उदास औरत, उदास व्यक्तित्व, उदास रात, उदास शाम, उदास कविता, उदास फूल, उदास चाँद और न जाने क्या-क्या ! गनीमत है कि मैं कविता नहीं लिखती हूँ वरना कब का उदासी पर लिख मारती.
अक्सर उदासी निष्क्रियता की तरफ ले जाती है. बहुत शोर-शराबे, भीड़-भाड़ और नाच-गाने के बीच भी यदि आप उदास महसूस कर रहे हैं तो आपको कुछ करने का मन नहीं करता है. हाथ-पैर क्या, ज़बान हिलाने का मन भी नहीं करता है. चुप्पी से उदासी का रिश्ता तो जाना-पहचाना है. मेरे साथ अक्सर यह होता है और मैं उसका कारण खोजने में उलझ कर रह जाती हूँ. मुझे लगता है कि अकेलापन महसूस करना उदासी को जन्म देता है और आप फिर सबसे अपने को काटने लगते हैं और फिर उदासी गहराती जाती है. हालाँकि मैंने मनोविज्ञान नहीं पढ़ा है (इंटरमीडिएट को छोड़कर), लेकिन लगता है कि यह पूरा चक्र है क्योंकि अकेलापन उदासी का परिणाम भी है. आप बहुत बार दोस्तों-हितैषियों को परे धकेलकर जबरन अकेलापन ओढ़ भी लेते हैं.
जब उदासी आपको आक्रामक बना दे तब चिंता होने लगती है. उसके पहले जब तक आप अकेले उससे जूझ रहे हों मामला हाथ में रहता है, भले वह आपको अंदर ही अंदर खोखला कर दे. तबतक दुनिया बाखबर होकर भी बेखबर बनी रहती है. नींद टूटती है तब जब उदासी का लावा फूटता है. यह आस-पास को भी प्रभावित करता है. अपने आपको तो नष्ट कर ही देता है.
यदि उदासी क्षणिक है तब तो उससे निपटा जा सकता है, लेकिन वह लंबे समय तक तारी रहे तो मारक होता है. जैसे भँवर होता है वैसे ही है उदासी. आप उसमें गहरे फँसे तो फँसते ही चले जाते हैं. इसलिए उदासी को अवसाद की दिशा में बढ़ने नहीं देना चाहिए जो कि भँवर के भीतर का भँवर है. इससे खींचकर निकालने के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए - बिना इसकी परवाह किए कि व्यक्ति कौन है. आज मैं यह नहीं सोच रही हूँ कि मेरे लिए किसी ने हाथ बढ़ाया या नहीं, बल्कि यह सोच रही हूँ कि मैं हाथ बढ़ाने में कब कब चूक गई हूँ !

बड़े दिनों बाद आज फिर हेमंत कुमार का यह गाना सुना था - "बस एक चुप सी लगी है. नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है..."


शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

दोस्ती (Dosti by Purwa Bharadwaj)

दोस्ती क्या है ? इस प्रश्न से बड़े बड़े दार्शनिक भी जूझते रहे हैं और अदना से अदना इंसान भी. जूझना, समझना और उससे भी बढ़कर है उसे जीना ! पिछले दिनों अपूर्व मित्रता पर लिख रहे थे तो उनसे बातचीत होती रही है. कल उन्होंने CSDS में आयोजित 'Friendship in the Western Tradition: from Aristotle to Derrida' विषय पर Suzanne Stern-Gillet के भाषण की भी चर्चा की. मैंने सही मायने में कभी इस पर ध्यान नहीं दिया यानी दोस्ती को परिभाषित करने या समझने का प्रयास नहीं किया, बावजूद इसके कि दूसरों की तरह दोस्ती मेरे लिए भी अहम रही है. दूसरों की तरह दोस्ती दूटने और छूट जाने की तकलीफ और मलाल से गुज़री हूँ. कई दोस्ती को बचाने की कोशिश की, मगर बचा न सकी. कम से कम उसे अपने लिए सहेज पाई हूँ, इसका संतोष है. हालाँकि पटना से जब दिल्ली आई थी तो एक तरह से मैंने कसम खा ली थी (कुछ कुछ तीसरी कसम टाइप)  कि नई दोस्ती नहीं करूँगी. अपूर्व की यह शिकायत रही कि तुम अच्छी चीज़ों को रोकती हो, प्रतिरोध करती हो और cynical हो. मेरा तर्क था कि दोस्ती से अनिवार्यतः दर्द भी जुड़ जाता है और मुझे अब नया कुछ मोल नहीं लेना है. अपने पक्ष में आफ़ताब साहब की अम्मा की बात मैं दुहरा दिया करती थी कि जो दोस्ती है उसे ही निभा लो तो बड़ी बात है. फिर भी दिल्ली ने नई दोस्ती दी. एक नहीं, कई. उनमें से खुर्शीद भी थे. खुर्शीद बड़े थे, लेकिन उनको भी मैं दोस्त ही कहूँगी. ऐसी ही थीं लता जी.

FB ने पुराने पुराने दोस्तों को सामने ला खड़ा किया. बीस साल-तीस साल-चालीस साल पुरानी दोस्ती को एक माध्यम मिला. यही नहीं, दोस्त के दोस्त, भैया के दोस्त तो माँ-पापा के दोस्त भी संपर्क में आए. मैं सोच रही थी कि दोस्ती में पुरानापन बहुत मायने रखता है. जितनी पुरानी दोस्ती उतनी गहराई, उतनी यादें. और उतना ही बड़ा शिकायतों का पिटारा ! जो भी हो पुरानी दोस्ती क्यों अधिक खींचती है ? बचपन या किशोरावस्था के अल्हड़पन और बेफिक्री के अलावा उसमें क्या है जो अधिक टिकाऊ है ? मुझे लगता है कि शायद उन दोस्तियों में सत्ता संबंधों में बहुत गैर बराबरी नहीं होती है. उस समय भी जाति, धर्म, पद, जेंडर आदि सबका असर सत्ता संबंधों पर पड़ता है, मगर शायद वयस्कों से कम वे हमें प्रभावित करते हैं. बड़े हो जाने पर जो दोस्ती होती है उसमें दोस्ती को कोने में धकेलने में इन सबकी ही भूमिका अधिक हो जाती है. वैसे ये सब पुरानी दोस्ती को भी डिब्बे में बंद कर देते हैं. फिर भी यदि आपके जीवन में थोड़ा ठहराव आ गया है, आप सुरक्षित महसूस कर रहे हैं (नौकरी से लेकर रिश्तों तक में) तो आप पुरानी दोस्ती को पहला मौका मिलते ही पुनर्जीवित करना चाहते हैं.

इसका यह मतलब नहीं है कि नई दोस्ती में चमक कम होती है या यह जल्दी सँभलती नहीं है. यह कोई नया चावल तो है नहीं जो सँभाले सँभले नहीं ! हाँ, उछाह और सतर्कता दिखाने की ज़रूरत होती है. दिखाने की इसलिए कि इसमें इत्मीनान आते आते आता है. आपकी लापरवाही दोस्त को अखर सकती है और उससे ठंडापन आने लगता है. जबकि दोस्ती के लिए गर्माहट चाहिए. उसके लिए प्रदर्शन का तड़का चाहिए. प्यार-मुहब्बत से एक फर्क यह है कि दोस्ती को छिपाने की ज़रूरत कम पड़ती है. यदि दोस्त में कोई ऐब हो या आप बदनाम हों तभी गोपनीयता बरतने की बात उठती है. तब दोस्ती लोगों को खतरनाक मालूम पड़ने लगती है और उसे ख़त्म करने का दबाव पड़ने लगता है. वैसे अमूमन दोस्ती को मूल्य ही माना जाता है.

मेरा ख्याल है या कहना चाहिए मेरा अनुभव है कि जो असुरक्षित है, विचलित है, वह दोस्ती करने से और उसे जोगाकर रखने से भी डरता है. कारण, दोस्ती आपको निष्कवच कर देती है. अपूर्व बता रहे थे कि Suzanne Stern-Gillet के भाषण में सैद्धांतिक पक्षों को रखते हुए बताया गया कि दोस्ती में आप अपने दोस्त से reveal करते हैं. यह आपका सुरक्षा कवच हटा देता है. यह भी कहा जा सकता है कि एक दोस्त अपना सुरक्षा कवच अपने से हटाकर अपने दोस्त को सौंप देता है. वह किसी और तीसरे दोस्त से उसे साझा करता है और इस तरह यह सिलसिला बढ़ सकता है और दोस्ती अंततः आपको खतरे में डाल सकती है. लेकिन यही दोस्ती की कसौटी भी बन जाती है ! सच्चे दोस्त आपको अकेले नहीं पड़ने देते हैं.

परसों मैं अपनी स्कूल और कॉलेज की दो दोस्तों से बरसों बाद मिली. सबकुछ कितना सहज था. लगा कि जहाँ तार छोड़ा था वहीं से जुड़ गया. बीच में पति, बच्चा, नौकरी, ससुराल-मायका कितना कुछ आया, लेकिन उसके आर-पार हम एक दूसरे को देख रहे थे. सचमुच दोस्ती पर्दा हटाना है. इसीलिए पुराने दोस्तों से जब हम मिलते हैं तो उसी ख़ुलूस और बेबाकी से मिलते हैं और वह हमें ज़्यादा पुरसुकून मालूम पड़ती है. हमारा पर्दा उठ जाता है. लेकिन दोस्ती पर्दा रखना भी तो है ! यदि दोस्त का 'सीक्रेट' बता दिया तो फिर दोस्ती पर ही सवाल खड़ा हो जाता है. इस तरह दोस्ती की शर्त है पर्दा हटाना और पर्दा रखना दोनों.

जितना गहरा दोस्त उतना हमराज़ और सुख-दुख का साथी. इसलिए रिश्ते की मज़बूती का पैमाना भी दोस्ती बन जाती है. पत्नियाँ कहती फिरती हैं कि भई, मेरे पति तो मेरे सबसे गहरे दोस्त हैं. (वैसे पत्नी के बारे में पति के मुँह से यह कम सुनने को मिलता है)  ननद और जेठानी भी अगर दोस्त हैं तो शादीशुदा ज़िंदगी में बहार है. आजकल सास भी दोस्त बनना पसंद करती हैं और माँ-बाप भी अपने बच्चों (खासकर बेटी) का दोस्त बनने का दम भरते हैं. जब हम तीन मिले तो हमने अपनी दोस्ती को मापा नहीं और न किसी ने कोई दावा किया. हमने अपने बाकी दोस्तों को याद ज़रूर किया. चुन-चुन कर याद किया. किसी को शर्ट के रंग से, किसी को 'दिल की रानी' जैसे पुकार के नाम से, किसी को उसके रॉल नंबर से तो किसी को उसके ठिकाने से ! आज की तारीख में कौन कहाँ है, किसकी शादी देर से हुई, किसके कितने बच्चे हैं, कौन कहाँ काम कर रहा है, कौन अभी भी हवाबाज़ है, किसके पैंतरे अभी बदले नहीं हैं, विदेश कौन कौन चला गया - ये सब हम बतियाते रहे. एकाध के बारे में बुरी खबर सुनी थी उसका भी ज़िक्र आया. एक दूसरे का साथ छूट जाने और संपर्क टूट जाने का अफसोस हम सबको था.

दोस्ती कब किससे होगी, यह पेंचदार है, मगर प्यार की तरह इस पर आपका बस भी नहीं. किससे दोस्ती नहीं करनी है, यह ज़्यादा तय रहता है. आगे चलकर इसे समझने में मुझे जेंडर और यौनिकता के कायदों (norms) से बहुत मदद मिली. अपनी गपशप में हमने असफल दोस्तियों का आनंद लिया. किसने किसको भाव दिया और किसको नहीं दिया - यह याद करना मज़ेदार था. शायद समय को पलटा सकते तो कुछ बदल पाते  मेरा अधिक समय AISF में जाया करता था. इस वजह से मेरी दोस्ती कॉलेजवालों से बहुत नहीं रह पाती थी. दोस्ती को तो समय देना पड़ता है न ? वही तो खाद-पानी है. फिर भी कुछ दोस्तों की वजह से ही मैं सबसे जुड़ी रही. मैं गुड़िया को आज भी कहती हूँ कि तुम्हारी वजह से मैं भूगोल विभाग से लेकर लॉजिक की क्लास के लिए राजनीति विज्ञान विभाग के कई कई चक्कर काटा करती थी. गुड़िया मेरे साथ स्कूल में थी. हमारा सेक्शन अलग था, मगर बस स्टॉप एक था. बस की बदमाशियों का साथ कॉलेज में जाकर पक्का हो गया था. स्कूल की तरह कॉलेज में हमारे दोस्तों और दुश्मनों का दायरा अलग-अलग था और समान भी था.

दोस्ती को चलाए रखने के लिए समानता भी ज़रूरी है. या तो आपके शौक एक हों, रहने-पढ़ने या खेलने-कूदने की जगह एक हो या व्यसन एक हो, दुश्मनियाँ एक हों. गाने से लेकर इंसान तक में पसंद मिलती-जुलती हो तो भी दोस्ती जम जाती है. छूटने की वजह बनती है आपमें आनेवाला अंतर. जैसे जैसे अंतर बढ़ता है आप दोस्त से दूर होते जाते हैं. लड़कियों में जगह बदल जाना सबसे ज़्यादा दूरी ले आता है. शादी के पहले की दोस्ती और शादी के बाद की दोस्ती में आपकी जिम्मेदारियाँ, आपकी नई भूमिकाएँ, आपकी प्राथमिकताएँ अंतर ला देती हैं. यह कहनाा कि यह अंतर मानसिक दूरी नहीं ला पाता, गलत होगा. मानसिक दूरी आती है क्योंकि हमको यही सिखाया जाता है कि हमारे लिए दोस्ती नहीं, परिवार अधिक महत्त्वपूर्ण है. हम इसे खुशी-खुशी अपना भी लेते हैं क्योंकि हमें अच्छी बहू, अच्छी पत्नी, अच्छी माँ का दर्जा चाहिए होता है. बहुत कम बार (कम से कम हमारे संदर्भ में) हमारा पेशेवर काम या हमारा पद दोस्ती में आड़े आता है. यदि पेशागत व्यस्तता न मिलने या संपर्क न रखने का कारण है तो उससे किसी का दिल दुखता है - ऐसा मुझे नहीं लगता. मैं भागते-दौड़ते किसी से स्टेशन पर मिलती हूँ, किसी से एयरपोर्ट के गेट पर, किसी से होटल की लॉबी में, किसी से दो मिनट के लिए, किसी से केवल फोन पर बात कर पाती हूँ तो किसी की आवाज़ केवल जन्मदिन पर सुन पाती हूँ तो भी किसी ने मुझसे शिकायत नहीं की. मुझे लगता है कि दोस्त तो आपको समझते हैं और वाकई एक-दूसरे को समझना ही तो दोस्ती की बुनियाद है !

दोस्तियाँ बहुत होती हैं और अलग-अलग तरह की होती हैं. स्कूलवालों से अलग किस्म की, कॉलेजवालों से अलग किस्म की, दफ्तर में अलग किस्म की, पड़ोस में अलग किस्म की. सबसे मज़ेदार यह कि हम सबका एक दूसरे से मिलान करते रहते हैं. कभी किसी को स्केल में पास रखते हैं तो कभी किसी को दूर रखते हैं और फिर सबको खुद खिसकाते रहते हैं मेरी आंदोलन, धरना-जुलूस की दोस्ती भी बहुत है. मतलब आपकी दोस्ती का उत्स जो है वही आपकी दोस्ती का स्वरूप भी तय करता है. आंदोलन और संस्थाओं के दौरान जो दोस्ती होती है वह गाहे बगाहे स्कूल-कॉलेज की दोस्ती की तरह गहरी हो जाती है. कम से कम मेरे साथ तो यह बहुत हुआ है. इसमें यदि आवेग का तड़का लग गया तो पक्का है कि यह दोस्ती टिकेगी. यदि तकलीफों की साझेदारी भी है तब तो इसे चलना नहीं, दौड़ना चाहिए. ऐसी दोस्ती हम सबको मुबारक !

अभी मुझे याद आ रहा है राम सिंहासन. वह मेरे बुनियादी अभ्यासशाला (जिसे सब घुघनिया स्कूल कहते थे) का साथी था. जहाँ तक मुझे याद है उसके पिता किसी हॉस्टल - पटना विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज के हॉस्टल में माली का काम करते थे. राम सिंहासन पढ़ने में कमज़ोर माना जाता था. सातवीं के बाद संभवतः उसकी पढ़ाई छूट गई. वह रिक्शा चलाने लगा था. मैं जब कॉलेज में थी तो एक दिन उससे अजीब तरीके से सामना हुआ. हमारा घर रानीघाट गली (अब सुमति पथ) में था और आम तौर पर उसके मुहाने पर रिक्शा मिला करता था. माँ और मुझे कहीं जाना था. माँ आगे-आगे चल रही थी और मैं पीछे-पीछे. माँ ने बढ़कर रिक्शा ठीक किया और बैठ गई. जब तक मैं देखूँ देखूँ तब तक रिक्शावाला भी तिरछे होकर जाने को खड़ा हो गया. मैं भी बैठ गई. और उसके बाद मैंने देखा कि राम सिंहासन रिक्शा चला रहा है. मुझे काटो तो खून नहीं ! वह भी खामोश और मैं भी खामोश. आज तक उस घटना को भूल नहीं पाई मैं. राम सिंहासन मेरा सहपाठी था. दोस्त नहीं. फिर भी आज दोस्तों के क्रम में याद आया. क्यों ? क्या उस समय मैंने उसे दोस्ती के लायक नहीं माना था ? इसका मलाल है या गुज़रती उम्र मुझे दोस्ती का पाठ पढ़ा रही है ?