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सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

मेरे सहचर मित्र (Mere sahchar mitra by Muktibodh)

मेरे सहचर मित्र
ज़िन्दगी के फूटे घुटनों से बहती 
रक्तधार का ज़िक्र न कर,
क्यों चढ़ा स्वयं के कन्धों पर 
यों खड़ा किया 
नभ को छूने, मुझको तुमने। 
अपने से दुगुना बड़ा किया 
मुझको क्योंकर ?
गम्भीर तुम्हारे वक्षस्थल में 
अनुभव-हिम-कन्या 
गंगा-यमुना के जल की 
पावन शक्तिमान् लहरें पी लेने दो। 
ओ मित्र, तुम्हारे वक्षस्थल के भीतर के 
अन्तस्तल का पूरा विप्लव जी लेने दो। 
उस विप्लव के निष्कर्षों के 
धागों से अब 
अपनी विदीर्ण जीवन-चादर सी लेने दो। ...


कवि - मुक्तिबोध 
संकलन - चाँद का मुँह टेढ़ा है 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001 

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