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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

यात्रा (Yatra by Purwa Bharadwaj)

यात्रा के लिए मैं प्रस्तुत रहती हूँ. रेल यात्रा हो या हवाई यात्रा. बस यात्रा नहीं. वह शुरू से मजबूरी का सौदा रही है और स्टीमर या नाव की यात्रा तो भूली बिसरी बात है.

बचपन में पापा के साथ अपने गाँव चाँदपुरा जाने का एकमात्र ज़रिया पानीवाला जहाज़ ही था. पहले स्टीमर लो और उसके बाद गंगा नदी पार करके पहलेजा घाट उतरो. घाट पर उतरकर थोड़ी दूर बालू में चलो. ककड़ी बिकती थी तो हड़बड़ी में उसे खरीदवाओ और फिर रेलगाड़ी पकड़कर चाँदपुरा पहुँचो. मुझे याद है एकबार पापा के साथ अकेले गाँव जाने का कार्यक्रम बना यानी माँ और भैया के बिना. भोर में उठकर माँ ने मुझे मुँह धुलाया था और हिदायतों के साथ यात्रा पर जाने की तैयारी करवाई थी.

चाँदपुरा मेरे गाँव का नाम है, स्टेशन का नाम नहीं है, यह उसी दौरान समझा था. (हालाँकि लंबे समय तक इसकी गुत्थी नहीं सुलझी थी कि गाँव का नाम और स्टेशन का नाम अलग अलग क्यों है या गाँव का नाम स्टेशन पर क्यों नहीं लिखा है.) हमारे स्टेशन का नाम चकमकरंद हॉल्ट है, माँ ने दिमाग में बिठाने का प्रयास किया था. वह नाम मज़ेदार लगा था, लेकिन भारी भी लगा था बोलने में. यह भी हिदायत मिली थी कि हाजीपुर स्टेशन आते ही तैयार हो जाना है क्योंकि हमारे स्टेशन पर गाड़ी बमुश्किल एक या दो मिनट रुकती थी. चकमकरंद हॉल्ट है, जंक्शन नहीं, यह अंतर हमारे लिए परिभाषा का अंतर नहीं था. यह गाड़ी रुकने के समय का अंतर था.

गाँव की यात्रा में पहले जब माँ साथ होती थी और पापा कॉलेज खुला होने के कारण साथ नहीं होते थे तो चकमकरंद हॉल्ट पर चचेरे चाचा लोग तैनात रहते थे. (उस समय चचेरा नहीं जोड़ा जाता था और चाचा का मतलब चाचा था. यह शब्दावली अलगाववाली थी या छोटे परिवार की ज़रूरत से उपजी थी, इस शब्दावली की यात्रा की पड़ताल नहीं की है मैंने. न ही रिश्तों की यात्रा पर गौर किया है मैंने. कभी कभी लगता है कि जैसे जगह की दूरी मील, कोस या किलोमीटर में नापते हैं तो क्या रिश्तों की दूरी मापने के लिए चचेरा, ममेरा, मौसेरा, फुफेरा शब्द हैं ?) हाजीपुर से निकलने के साथ ही माँ हमलोगों का सामान लेकर दरवाज़े के पास आ जाती थी. अपने सर पर आँचल सँभालती हुई (जो हमारे लिए नया होता था क्योंकि वह पालन-पोषण, मन-मिजाज़ पूरी तरह से शहरी थी और पर्दा नहीं करती थी). हमदोनों भाई-बहन को अपनी ओट में रखकर ताकि खुले दरवाज़े का आकर्षण हमें खतरे में न डाल दे. भैया माँ को लोहे का बक्सा घसीटकर लाने में मदद करता था. उस समय कुली का न रहना अखरता नहीं था. चाचा गाड़ी के चकमकरंद हॉल्ट पर आते ही साथ-साथ भागते हुए हर डिब्बे पर निगाह गड़ाए रखते थे. उन दिनों कोच नंबर या आरक्षित सीट के चक्कर से हमसब दूर थे. माँ डिब्बे का डंडा पकड़कर सर निकालकर हाथ से इशारा करती थी और चाचा भौजी-भौजी कहते हुए हमारे डिब्बे के समानांतर दौड़ने लगते थे. गाड़ी की दिशा और गति के मुताबिक़. पहले बक्सा उतारा जाता था और फिर गोद में टंगकर हमदोनों भाई-बहन. अंत में माँ सावधानी से पाँव जमाती हुई उतरती थी क्योंकि नीचे सीमेंट का प्लेटफ़ॉर्म नहीं था, पत्थर के टुकड़े थे.

हाँ, याद आया कि गाँव में घूमते हुए अक्सर हम बच्चे हॉल्ट की तरफ आ निकलते थे. पास में लगा हटिया, रास्ते की लगभग टखने भर धूल, आम की गाछी, बड़हर का पेड़, भुसुल्ला और करीब का स्कूल पार करके हॉल्ट पर आकर रेलगाड़ी की सीटी सुनना मन लगाने का साधन था. गार्ड का झंडी हिलाना, लालटेन जैसी बत्ती को देखना नया अनुभव था. पटरी गंदी नहीं लगती थी. करीने से सजे पत्थरों के टुकड़ों के बीच लोहे की पटरी माँग की तरह लगती थी – सीधी-सख्त और सादी भी. (अब शायद यह बिम्ब न उभरे क्योंकि बिम्बों की गढ़न को समझने लगी हूँ.) उन्हीं पत्थरों में से चिकने-चिकने गोलाई लिए हुए पत्थर गाना-गोटी खेलने के लिए मैं चुन लेती थी. कई बार वह गाना-गोटी मेरे साथ यात्रा करके पटना आया. 

वापसी यात्रा में जल्दबाज़ी रहती थी. मन के अंदर भी और बाहर भी. जब स्टीमर महेन्द्रू घाट पर लगने को होता था तो लंगर डालते ही कुली धड़ाधड़ कूदने लगते थे. घाट से सटने के पहले ही कुली फाँद-फाँद कर स्टीमर पर आ जाते थे. उनको सब्र नहीं था क्योंकि सबको एक अदद असामी चाहिए था. मुझको हमेशा डर लगता था कि कहीं कोई पानी में न गिर जाए. बहुत कुली अधेड़ होते थे और अक्सर धोती-कुर्ता पहनते थे, मगर वज़न उठाने तक में जवान कुलियों को मात देते थे. उस समय उनकी लाल वर्दी जितनी आकर्षक लगती थी, फिर कभी नहीं लगी. अब तो कुली भी कम हो गए हैं और उनकी मौजूदगी पर ध्यान कम जाता है. सूटकेस में लगे चक्के और कम सामान लेकर चलने के सबक ने कुलियों से मेल-जोल भुला दिया है. वरना बहुत बार एक ही कुली मिल जाता था और माँ उसको पहचानकर हालचाल भी पूछ लेती थी. उन यात्राओं के हर चरण पर उत्साह था और आज भी वह उत्साह कमोबेश बरकरार है.

फिर भी बहुत कुछ बदला है. वह क्या है ? यात्रा संबंधी अनुभवों को पलटकर देख रही हूँ तो लगता है कि अव्वल तो सुविधाएँ बदली हैं. आय के अनुपात में, उम्र के मुताबिक, काम के हिसाब से, व्यस्तता को देखते हुए. यातायात के साधनों में तकनीकी तरक्की ने भी असर डाला है.
हमारे जैसे मध्यवर्गीय लोगों के लिए पहले हवाई यात्रा विकल्प नहीं थी. अब वह पहला विकल्प बनती जा रही है. यदि निजी काम से जाना हो तब भी एक बार हवाई जहाज़ के टिकट का दाम ज़रूर देख लेते हैं. बहुत ज़्यादा महँगा हुआ तो रेल यात्रा की तरफ आते हैं. हाँ, रात में सोकर जानेवाली यात्रा है तो हवाई यात्रा से बेहतर है रेल यात्रा. मुँह अँधेरे उठकर या देर शाम के घंटे-डेढ़ घंटे के हवाई सफर से अच्छा लगता है कि जाओ ट्रेन में बिस्तर बिछाओ और सो जाओ. अगली सुबह एक नए शहर में हो तो बहुत सुकून मिलता है. जब गाड़ी गंतव्य पर अलस्सुबह न पहुँचे तो हमलोग बड़े स्टेशन का इंतज़ार करते थे जहाँ 10 मिनट गाड़ी रुके और पानी की व्यवस्था हो. ताकि स्टेशन के नल पर जल्दी-जल्दी ब्रश किया जा सके, जिभ्भी की जा सके. जब सूखा नल, गंदा पानी, थूक-खखार दिखता था तो चिढ़ होती थी, मगर शायद आज की तरह उतनी घिन नहीं आती थी. आगे चलकर नागार्जुन की कविता जब पढ़ी तो घिन का समाजशास्त्र अधिक समझ में आया. खैर, स्टेशन पर मुँह धोकर साथ लाए गए खजूर-निमकी खाकर देर सुबह भी कहीं पहुँचना यात्रा को सार्थक कर देता था. दोपहर या शाम को यात्रा करके कहीं पहुँचो तो बासी-बासी लगता है. इसीलिए हवाई यात्रा में भले आराम ज़्यादा हो, मगर ताज़गी कम लगती है.

मुझे बार-बार रामगढ़ या नैनीताल जाते समय काठगोदाम स्टेशन पर उतरना याद आता है. वह भी बाघ एक्सप्रेस से J इतनी ताज़गी रहती है हवा में कि मन खुश हो जाता है. खासकर तब जब आप गर्मीवाली जगह से आए हों और यात्रा का अंतिम पड़ाव आपको उससे निज़ात दिलानेवाला हो तो पूरी यात्रा मुक्तिदायक लगने लगती है. वैसे ही कड़कड़ाती ठंड से गरम बयार की यात्रा तन-मन को उष्णता प्रदान करती है. वाकई यात्रा के दो छोर यदि विपरीत प्रकृति के हों तो भावों का उद्रेक तीव्र होता है.

मौसम ही नहीं, जगह किससे जुड़ी है, यह भी यात्रा को अलग अलग मायने देता है. आप कहीं नौकरी करते हों और वहाँ से घर लौट रहे हों तो यात्रा जितना सुकूनदेह कुछ नहीं. आजीविका कमाने की आपाधापी में यदि आपके कंधे छिल गए हों, देह और दिल पर जख्म हों तो उससे दूर ले जानेवाली किसी भी तरह की यात्रा का आप दिल खोलकर स्वागत करते हैं. मायके से ससुराल और ससुराल से मायके जानेवाली यात्राओं के मूड में तो साफ़ फर्क होता है. लड़की की ससुराल यात्रा है या लड़के की, यह आपको भावमुद्रा, शरीर की मुद्रा से लेकर अर्थमुद्रा खर्च करने के तरीके सबसे झलक जाएगा J दूसरी तरफ अपनी जगह से बाहर निकलनेवाली यात्रा रोमांच, उत्साह, नयापन, चुनौती, उदासी, अकेलापन, मजबूरी हर तरह का भाव लाती है. दरअसल किसी भी तरह की यात्रा के मूल में यात्री का संदर्भ और स्थान से उसका रिश्ता ही यात्री के अनुभवों को गढ़ता है. यात्रा का केंद्र क्या है और केंद्र की ओर या केंद्र से दूर यात्रा हो रही है या आप परिधि में ही चक्कर काट रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण है.

यात्रा को समझना हो तो कौन कहाँ कैसे कब और क्यों का प्रश्न समझना होगा. ऐसा नहीं होता तो मेरे बाबा की हाजीपुर से पटना तक की पैदल यात्रा या नानाजी की शहर के भीतर की साइकिल यात्रा, मेरी बेटी की जर्मनी यात्रा, मेरी मदद करनेवाली जेवंती की सालाना पहाड़ यात्रा या बनारसी की सीतामढ़ी यात्रा, ननदोई की मणिपुर की बस यात्रा और अपने आसपास के लोगों की असंख्य यात्राओं को मैं एक ही तरीके से समझ पाती. जितने अनुभव उतने समझने के औजार होने चाहिए. पंडिता रमाबाई की समुद्री यात्रा पर हुए बवाल को समझने के लिए मुझे 19वीं सदी के महाराष्ट्र के समाज के गठन, उसकी राजनीति से लेकर सुधारकों के व्यक्तित्व और धर्मशास्त्र तक को समझना पड़ा था. इसी तरह अभी रुकैया सखावत हुसैन की कल्पना यात्रा ‘सुल्ताना का सपना’ समझने के लिए तत्कालीन बंगाल, मुसलमान और औरत की दुनिया को जानने के अलावा मैं फैंटेसी के आधार को पकड़ने की जद्दोजहद कर रही हूँ.

समय का सवाल बहुत मायने रखता है यात्रा में - यात्रा कब शुरू हो रही है, उसका मुहूर्त ठीक है या नहीं, उसकी अवधि क्या है, उसकी तैयारी में कितना समय लग रहा है, टुकड़ों में बँट हुई है यात्रा या एक साँस में लगातार चल रही है. घड़ी की सुई पर टकटकी लगी रहती है. समय से गुत्थमगुत्था रहने के कारण ही शायद तनाव पैदा होता है. हर यात्री के चेहरे पर हमें तनाव दिखता है. मेरे जानते असल में समस्या संक्रमण की प्रक्रिया से है. हमें कहीं से कहीं जाने के बीच की प्रक्रिया तनाव देती है. 

यात्रा अपने आप में घटना है और वह घटनापूर्ण हो जाए तब तो क्या बात है ! सहयात्रियों का उसमें बड़ा योगदान होता है. उनकी गप्पें, उनके खर्राटे, उनके कहकहे, उनके अचार का डिब्बा, उनकी रिश्तेदारों से होनेवाली अनबन के किस्से, उनकी राजनीति की दलीलें, सब मिल-मिलाकर यात्रा को या तो रोचक बना देते हैं या झेलाऊ. यों आजकल सहयात्रियों की उदासीनता यात्रा को सुखद बनानेवाली बात मानी जाती है. मुझे तो चुप्पा सहयात्री खलता है. रेल के ए.सी. डिब्बों में, मेट्रो में, हवाई जहाज़ में अधिकतर लोग फोन और लैपटॉप में लगे होते हैं. या अपनी नींद पूरी कर रहे होते हैं. (साधारण डिब्बों में हलचल बची हुई है, यह गनीमत है.) आज मेरे साथ भी ऐसा हुआ. बड़े दिनों बाद दिन भर की रेलयात्रा थी और मैं अपनी थकान मिटा रही थी. लगभग ढाई घंटे सोई मैं. सहयात्रियों का बीच में टोकना-टपकना नहीं हुआ और मुझे वह राहत देनेवाला लगा. लेकिन अब अधूरा अधूरा लग रहा है. चलते समय सामनेवाली सीट की लड़की अपनी माँ को फोन पर झिड़क रही थी कि सारी बात रोमिंग पर ही करोगी क्या, यह मैंने सुना और मुस्कुराई. हल्के से. उस मुस्कुराहट में छटाँक भर विदा लेनेवाला भाव भी छिपा था. बिना किसी से विदा लिए यात्रा ख़त्म कैसे होगी भला !  

रह गई बात दुर्घटना की जो यात्राओं में होती ही रहती है. हाल की रेल दुर्घटना के घाव ताज़ा हैं. जीवन को आगे ले जानेवाली यात्राएँ जीवन लीला की समाप्ति की ओर भी ले जाती हैं. तब भी यात्रा तो रुकती नहीं...