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रविवार, 23 अप्रैल 2017

पंडिता रमाबाई सरस्वती 23.4.1858-5.4.1922 ( Pandita Ramabai Saraswati By Purwa Bharadwaj)


रमाबाई की जीवन-यात्रा विलक्षण रही है. इसका बीज तभी पड़ गया था जब महाराष्ट्र के सबसे ऊँचे माने जानेवाले कोंकणस्थ चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे ने समाज की प्रताड़ना की परवाह नहीं करके अपनी पत्नी लक्ष्मीबाई को संस्कृत पढ़ाना शुरू किया था. उनके इस कदम के खिलाफ उडिपी में धर्मसभा हुई थी. उसमें लगभग चार सौ विद्वानों की मौजूदगी में उन्होंने साबित कर दिया था कि स्त्रियों को संस्कृत की शिक्षा देना धर्मविरुद्ध नहीं है, लोकविरुद्ध भले हो. फिर उन दोनों ने मिलकर गंगामूल प्रदेश में एक संस्कृत केंद्र स्थापित किया - कोलाहल से दूर पश्चिमी घाट की चोटी पर स्थित जंगल में. वहीं रमाबाई का जन्म हुआ था. उनकी एक बड़ी बहन थी कृष्णाबाई और बड़ा भाई था श्रीनिवास.

आर्थिक स्थिति जर्जर होने पर उनके पिता ने पुराणवाचन शुरू किया और सपरिवार तीर्थयात्रा पर निकल पड़े. उसी में रमाबाई को उनकी माँ लक्ष्मीबाई ने पढ़ाना शुरू किया. कर्मकांडों को पूरी निष्ठा से करते हुए उनका जीवन चल रहा था कि 1874 के भयंकर अकाल ने छः महीने के भीतर रमाबाई के माता-पिता और बड़ी बहन तीनों को छीन लिया. बच गए श्रीनिवास और रमाबाई जो तबतक अविवाहित थीं क्योंकि माता-पिता कृष्णाबाई के बालविवाह को असफल होते हुए देख चुके थे और वे रमाबाई को खूब पढ़ाना चाहते थे.

अब भाई-बहन दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर बढ़े. हिमाचल और कश्मीर होते हुए बंगाल और आसाम तक गए. 6 जुलाई, 1878 को जब रमाबाई श्रीनिवास के साथ कलकत्ता पहुँचीं तो वहाँ के भद्रलोक में हलचल मच गई. सीनेट हॉल में संस्कृत के देशी-विदेशी विद्वानों ने उनकी परीक्षा ली. संस्कृत में सवाल-जवाब का क्रम शुरू हुआ. रमाबाई ने सारे सवालों का आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया और सभा के अंत में उन्हें सरस्वतीकी उपाधि से नवाज़ा गया. कुछ समय बाद बंगाल के चर्चित नेता ज्योतींद्र मोहन टैगोर ने एक आयोजन में रमाबाई को पंडिताकी उपाधि दी. इस तरह वे बनीं पंडिता रमाबाई सरस्वती !

यात्राएँ रमाबाई के लिए ज्ञान का बड़ा ज़रिया थीं जिन्होंने उन्हें लोगों और खासकर औरतों के जीवन को करीब से देखने का मौक़ा दिया था. धीरे-धीरे उनके मन में धार्मिक नियमों के औचित्य पर सवाल उठने लगे थे. स्त्री को स्त्री रूप में मोक्ष नहीं मिल सकता, धर्म का यह विधान उनको मंजूर नहीं था. उनकी आलोचनात्मक दृष्टि को गढ़ने में ब्रह्मोसमाज के केशवचंद्र सेन का भी योगदान रहा.

1880 में अपने भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने भाई के मित्र और ब्रह्मोसमाजी रह चुके बिपिन बिहारी दास मेधावी के साथ बाँकीपुर कोर्ट में शादी की. वे आसाम के शाहा जाति के थे जिसे शूद्र का दर्जा दिया जाता था. ऊपर से अपनी मर्जी की शादी ! इस पर बहुत तूफ़ान मचा. यह थमने भी नहीं पाया था कि 1882 में हैजे से बिपिन बिहारी चल बसे और अपनी इकलौती बेटी मनोरमा को गोद में लेकर रमाबाई फिर से सार्वजानिक जीवन के मैदान में कूद पड़ीं. वे महाराष्ट्र लौट आईं. 1 मई, 1882 को उन्होंने पूना में आर्य महिला समाज की स्थापना की और इस तरह औरतों को शिक्षा, धर्म आदि विषयों पर चर्चा करने का एक मंच दिया.

रमाबाई के विचारों के केंद्र में स्त्रियाँ थीं. अपनी पहली मराठी किताब ‘स्त्री-धर्मनीति’ (1882) में उन्होंने गृहिणी और पत्नी के कर्त्तव्यों की बात मानते हुए भी स्त्रियों के हक की बात उठाई थी. उन्होंने लिखा कि सिर्फ अतीत के गौरव की खोखली बातों से कुछ नहीं होता. स्त्रियों की प्रगति की नींव है आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता. उनकी सबसे बड़ी दौलत है शिक्षा. उनको धर्मशास्त्र, गणित, भूगोल, अर्थशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, भौतिक विज्ञान सबका ज्ञान होना चाहिए. 1883 में हंटर शिक्षा आयोग के सामने अपनी बात रखते हुए रमाबाई ने लड़कियों के स्कूल के लिए अध्यापिकाओं, निरीक्षिकाओं के अलावा स्त्री-चिकित्सकों की ज़रूरत पर भी बल दिया था.

अपने लेखन और भाषण को आय का स्रोत बनाकर रमाबाई ने भारत के बौद्धिक इतिहास में नया अध्याय जोड़ा था. इसके पहले व्यवस्थित रूप में किसी भारतीय स्त्री ने इसे नहीं आजमाया था. उन्होंने स्त्री-धर्मनीति की बिक्री से आगे की पढ़ाई के लिए अपने इंग्लैंड जाने का खर्चा निकाला था. इंग्लैंड के बाद वे 1886 में अमेरिका गईं जहाँ अपने भाषणों के ज़रिए उन्होंने लाखों की रकम चंदे के रूप में इकट्ठा की. यह विधवा और निराश्रित औरतों के लिए आश्रम खोलने की योजना का अंग था. 1889 में भारत लौटते ही उन्होंने बंबई (फिर पूना) में विधवाओं के लिए ‘शारदा सदन’ शुरू किया. पुरुष सुधारकों की तरह उनका ज़ोर विधवा पुनर्विवाह पर न होकर शिक्षा पर था.

दरअसल रमाबाई सशक्तीकरण के ठोस ज़रिए के रूप में शिक्षा को देख रही थीं. उन्हें पता था कि स्त्रियों का ज़मीन-जायदाद, रुपया-पैसा, शिक्षा – किसी संसाधन पर अधिकार नहीं होता. इसलिए उन्होंने 1898 में पूना के पास केडगाँव में ‘मुक्ति’ नाम से ऐसे आश्रम की स्थापना की जहाँ औरतें स्वतंत्र तरीके से अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें. वहाँ औरतों ने मिलकर अपने लिए अनाज उगाया, लकड़ी के सामान बनाए, चीज़ों को बाज़ार में बेचने की कला सीखी, किताबें बनाईं और छापीं भी. यह वास्तव में पूरी वैकल्पिक जीवन-व्यवस्था थी. इसे रमाबाई ने गुरु-शिष्य के रिश्तों से निकालकर एक आधुनिक केंद्र के रूप में चलाया था.

उन्हें मालूम था कि औरतों की हालत के लिए आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था जवाबदेह होती है. 1896-1897 में जब अकाल का दूसरा दौर आया तो उन्होंने अपने बूते पर करीब 2500-3000 औरतों और बच्चों को अकालग्रस्त इलाकों से निकालकर केडगाँव के अपने आश्रम में रखा. उनके पढने-लिखने और हुनर सीखने की व्यवस्था की ताकि वे सम्मानपूर्वक जीवन बिता सकें. राहत कार्य के ज़रिए वे वंचित वर्ग के एक हिस्से को शिक्षा से जोड़ने में कामयाब हुई थीं.

रमाबाई ने सार्वजनिक मंचों का बहुत सकारात्मक इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी बेलाग बातों को पचाना आसान नहीं था. 1887 में प्रकाशित अपनी अंग्रेज़ी की किताब ‘High Caste Hindu Woman’ में उन्होंने स्त्री होने के नाते जो दमन-शोषण होता है, उसका समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण किया और स्त्री के अधिकार की बात की. अमेरिका-प्रवास पर केंद्रित अपनी मराठी किताब युनाइटेड् स्टेट्स्ची लोकस्थिति आणि प्रवासवृत्तमें अफ्रीकी लोगों की गुलामी से औरतों की गुलामी की तुलना करते हुए रमाबाई अपने समय से बहुत आगे नजर आती हैं. वे कहती हैं कि गुलामी आत्मसम्मान और आज़ाद होने की तमन्ना को भी कुचल डालती है. दरअसल यह मानसिक गुलामी है, इसीलिए औरतों तक को यह लगता है कि उनकी स्थिति जैसी होनी चाहिए वैसी ही है.  
                 
रमाबाई ने जिस साफ़गोई से सामाजिक ढाँचे का विश्लेषण किया था और जो उनका तेवर था, उसने उनको ख़ासा विवादास्पद बना दिया था. उसमें 1883 में उनके ईसाई बन जाने के फैसले ने और इजाफ़ा कर दिया. महाराष्ट्र के सारे बड़े अख़बारों ने उनके धर्मान्तरण को राष्ट्र के साथ घात के रूप में देखा था. उस समय एकमात्र ज्योतिबा फुले ने उनका साथ दिया था. एक वक्त ऐसा भी आया  कि रमाबाई ने अपने विचारों से दयानंद और लोकमान्य तिलक-जैसे राष्ट्रवादियों, महादेव गोविंद रानडे और रामकृष्ण गोपाल भंडारकर-जैसे सुधारकों सबको रुष्ट कर दिया जो कभी उनके मुरीद हुआ करते थे. सबको रमाबाई में गार्गी और मैत्रेयी की झलक मिल रही थी, लेकिन अपनी मर्जी का रास्ता चुननेवाली रमाबाई सबके लिए असुविधाजनक थीं. वे कभी किसी खाँचे में फिट नहीं हुईं. जहाँ पर उन्होंने चर्च या ब्रिटिश सरकार को स्त्री-विरोधी निर्णय लेते देखा वहाँ उनकी आलोचना करने से वे बाज न आईं. इसीलिए उनको भुला देना ही सबके हित में था.




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