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शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

इक-इक पल हम पर भारी है (by Habeeb 'Jalib')

लोगों ही का ख़ूँ बह जाता है, होता नहीं कुछ सुल्तानों को 
तूफ़ां भी नहीं ज़हमत देते उनके संगीं ऐवानों को 

हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इनसानों पर 
ऐ ख़ालिक़े-इनसाँ, तू समझा अपने ख़ूनी इनसानों को 

दीवारों में सहमे बैठे हैं, क्या ख़ूब मिली है आज़ादी 
अपनों ने बहाया ख़ूँ इतना, हम भूल गए बेगानों को 

इक-इक पल हम पर भारी है, दहशत तक़दीर हमारी है 
घर में भी नहीं महफ़ूज़ कोई, बाहर भी है ख़तरा जानों को 

ग़म अपना भुलाएँ जाके कहाँ,  हम हैं और शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ 
हैं शाम से पहले लोग रवाँ अपने-अपने ग़मख़ानों  को 

निकलें कि न निकलें इनकी रज़ा, बंदूक़ है इनके हाथों में 
सादा थे बुज़ुर्ग अपने 'जालिब', घर सौंप गए दरबानों को  

संगीं ऐवानों को = पथरीले महलों को 
ख़ालिक़े-इनसाँ = इनसान को बनानेवाला 
शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ = रुदन का नगर 
रवाँ = गतिमान 

शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

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