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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

उदासीन बंदा (The Indifferent One by Mahmoud Darwish)



उसे किसी चीज़ से फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर वे उसके घर का पानी काट दें,

वह कहेगा, “ कोई बात नहीं, जाड़ा क़रीब है।”

और अगर वे घंटे भर के लिए बिजली रोक दें वह उबासी लेगा:

“कोई बात नहीं, धूप काफ़ी है”

अगर वे उसकी तनख़्वाह में कटौती की धमकी दें, वह कहेगा,

“कोई बात नहीं! मैं महीने भर के लिए शराब और तमाखू छोड़ दूँगा।”

और अगर वे उसे जेल ले जाएँ,

वह कहेगा, “कोई बात नहीं, मैं कुछ देर अपने साथअकेले रह पाऊँगा, अपनी यादों के साथ।”

और अगर उसे वे वापस घर छोड़ दें, वह कहेगा,

“कोई बात नहीं, यही मेरा घर है।”

मैंने एक बार ग़ुस्से में कहा उससे, कल कैसे रहोगे तुम?”

उसने कहा, “कल की मुझे चिंता नहीं। यह एक ख़याल भर है

जो मुझे लुभाता नहीं। मैं हूँ जो मैं हूँ: कुछ भी बदल नहीं सकता मुझे, जैसे कि मैं कुछ नहीं बदल सकता,

इसलिए मेरी धूप न छेंको।”

मैंने उससे कहा, “न तो मैं महान सिकंदर हूँ

और न मैं (तुम?) डायोजिनिस”

और उसने कहा, “लेकिन उदासीनता एक फ़लसफ़ा है

यह उम्मीद का एक पहलू है।”



फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश

संकलन - Unfortunately, It was Paradise

प्रकाशन- यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निआ प्रेस, 2003

अनुवाद एवं संपादन - Munur Akash and Carolyn Forche

with Simon Antoon and Amira El-Zein

अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद

बुधवार, 15 अगस्त 2018

हम एक जन बन सकेंगे (By Mahmoud Darwish)



हम एक जन हो सकेंगे, अगर हम चाहें, जब हम सीख लेंगे कि 
हम फ़रिश्ते नहीं, और शैतानियत सिर्फ़ दूसरों का विशेषाधिकार नहीं

हम एक जन हो सकेंगे, जब हम हर उस वक़्त पवित्र राष्ट्र को शुक्राना देना बंद करेंगे जब भी एक ग़रीब शख़्स को रात की एक रोटी मिल जाए

हम एक जन बन सकेंगे जब जब हम सुल्तान के चौकीदार और सुल्तान को बिना मुक़दमे के ही पहचान लेंगे

हम एक जन बन सकेंगे जब एक शायर एक रक्कासा की नाभि का वर्णन कर सकेगा,

हम एक जन बन सकेंगे जब हम भूल जाएँगे कि हमारे क़बीले ने क्या कहा है हमें, और जब वाहिद शख़्स छोटे ब्योरे की अहमियत भी पहचान सकेगा

हम एक जन बन सकेंगे जब एक लेखक सितारों की ओर सर उठा कर देख सकेगा, बिना यह कहे कि हमारा देश अधिक महान है और अधिक सुंदर

हम एक जन बन सकेंगे जब नैतिकता के पहरेदार सड़क पर एक तवायफ़ को हिफ़ाज़त दे पाएँगे पीटने वालों से

हम एक जन बन पाएँगे जब फ़िलीस्तीनी अपने झंडे को सिर्फ़ फ़ुटबाल के मैदान में, ऊँट दौड़ में और नकबा के रोज़ याद करे

हम एक जन बन सकेंगे अगर हम चाहें, जब गायक को एक दो माखन के लोगों की शादी के वलीमा पर सूरत अल रहमान पढ़ने की इजाज़त हो

हम एक जन बन सकेंगे जब हमें तमीज हो सही और ग़लत की


फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश
संकलन - A River Dies Of Thirst

अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

मैं कुछ अधिक बात करता हूँ (I Talk Too Much by Mahmoud Darwish)



मैं कुछ अधिक बात करता हूँ औरतों और वृक्षों के बीच की बारीकी के बारे में,

पृथ्वी के जादू के बारे में, 

ऐसे एक मुल्क के बारे में जिसके कोई पासपोर्ट की मुहर नहीं,

मैं पूछता हूँ: क्या यह सच है भली देवियो और सज्जनो, 

कि यह जो इंसान की धरती है वह सारे मनुष्यों के लिए है

जैसा आप कहते हैं? वैसी हालत में कहाँ है मेरी नन्हीं कुटिया और कहाँ हूँ मैं?

कॉन्फ़रेंस के प्रतिभागी और तीन मिनट तालियाँ बजाते हैं मेरे लिए,

तीन मिनट आज़ादी के और मान्यता के,

कॉन्फ़रेंस हमारे लौटने के अधिकार को स्वीकार करती है ,

सारी मुर्ग़ियों और घोड़ों की तरह, पत्थर से बने सपने में।

मैं उनसे हाथ मिलाता हूँ, एक एक करके। मैं सलाम करता हूँ उन्हें।


और फिर मैं दूसरे मुल्क को अपना सफ़र जारी रखता हूँ

और बात करता रहता हूँ मृगमरीचिका और बरसात के बीच के अंतर के बारे में।

मैं पूछता हूँ: क्या यह सच है भली देवियो और सज्जनो,

कि यह इंसान की धरती सभी मनुष्यों के लिए है?



फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश

संकलन - Unfortunately, It was Paradise

प्रकाशन- यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निआ प्रेस, 2003

अनुवाद एवं संपादन - Munur Akash and Carolyn Forche

                                 with Simon Antoon and Amira El-Zein

अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

'राज़ी' : भावुकता का हिंसक गोंद (RAAZI : Violent glue of Emotionality by Purwa Bharadwaj)



भूगोल की प्रोफ़ेसर तमार मेयर की किताब
 Gender Ironies of Nationalism: Sexism the Nation (Routledge 2000) बड़ी महत्त्वपूर्ण है. इसका एक लेख अनुवाद करके हमने निरंतर संस्था के जेंडर और शिक्षा रीडर (भाग 2) में छापा था. उसकी कुछ पंक्तियाँ बार-बार मेरे सामने आती हैं और 'राज़ीको देखते समय तो लगा कि ऐसे 'राष्ट्रीय दास्तानगढ़नेवाले टेक्स्ट को समझने के लिए तमार मेयर सबसे अधिक मददगार हैं. वह भी आज के समय में जब पूरी दुनिया राष्ट्रवाद के ज्वर के ताप को झेल रही है.

तमार मेयर 'भावनात्मक गोंदके रूप में राष्ट्रवादी विचारधारा को देखती हैं. यह गोंद चिपचिपा भले हो लोगों को जोड़ता है और साझी विरासतसाझा इतिहाससाझा दुखसाझी उपलब्धि की बात करने में सहायक होता है. जो उसमें शामिल न हो उसे साम दाम दंड भेद से शामिल करवाया जाता है. लोगों के 'एकहोने के अहसास को प्यार-दुलार सेगाना गाकर ज़िन्दा रखा जाता है. आज से नहींबहुत पहले से. 'राज़ीफिल्म का गाना "ऐ वतनवतन मेरे आबाद रहे तू" को याद कीजिए. वैसे याद यह रखना है कि देश, 'वतन', 'राज्य', 'राष्ट्र', 'राष्ट्र-राज्यसारे शब्द भले समानार्थी प्रतीत होंमगर उनकी अवधारणाओं की अपनी परतें हैं जिनमें ख़ासा अंतर है.

उस 'भावनात्मक गोंदके इस्तेमाल में साहित्य और मीडिया की भूमिका से किसी को इन्कार नहीं है. यदि फिल्म के माध्यम को लें तो वह ऐसा सशक्त माध्यम है जो पटकथा के सहारे रोचक तरीके से भावनाओं को उभारता है और उनको दूर-दूर तक पहुँचाता है. उसकी ताकत का अंदाज़ा सबको है. इसलिए राष्ट्रवाद का फ़िल्मी मुहावरा मायने रखता है. 'ग़दर', 'बॉर्डर', 'रंग दे बसंती', 'हैदरजैसी फिल्मों को समझना पड़ेगा कि वे कर क्या रही हैं. पहचान के मुद्दों को गूँथकर बनाई गई राष्ट्रवादी माला दिनोदिन हिंसा को स्वीकार्य बनाती जा रही है. 'राष्ट्रके नाम पर की जानेवाली हिंसा को महिमामंडित करने का काम इसी प्रॉजेक्ट से जुड़ा है. इस कड़ी में इधर लगातार कई फिल्में आई हैं. 'राज़ीके 'बाद मुल्कआई है जिसे देखना बाकी है मुझे. पता नहीं वह फिल्म कहाँ ले जाती है दर्शकों को.

इसे गले से उतारने में बड़ी दिक्कत होती है कि दरअसल राष्ट्र 'कल्पित समुदाय' (बेनेडिक्ट एंडरसन) है. राष्ट्र को नैतिक चेतना बनाकर पेश किया जाता है. इसलिए 'मदर इंडियाजैसी फिल्म हर दृष्टि से महान लगती है. फिल्म के व्याकरण और उसके विकास के अलग अलग चरणों के संदर्भ में उसकी उपलब्धि की बात छोड़ दें तो जेंडर और राष्ट्र की अवधारणा की कसौटी पर 'मदर इंडियाभी समस्याग्रस्त लगेगी. जो लोकप्रिय है उसकी दिशा पर विचार करना नहीं छोड़ना चाहिए. लोकप्रियता भी एक  कसौटी हैपरंतु उसके आधार की पड़ताल करनी ही पड़ती है. हनी सिंह के या भोजपुरी गानों या 'चिपका ले सैंया फेविकोल सेजैसों का ठहरकर विश्लेषण करना चाहिए. सतही तौर पर यौनिकता विमर्शआंचलिकतानए भाषाई प्रयोग के नाम पर इनकी वाहवाही देखकर लगता है कि हमारी भाषा और संवेदना कितनी दरिद्र हो गई है. मुझे हैरानी नहीं हुई जब समझदार लोग भी 'राज़ीको 'मदर इंडियाके नए संस्करण के रूप में देख रहे हैं. उसको ग्रहण करने में वतनपरस्त कश्मीरी मुसलमान लड़की का construct मदद कर रहा है. फ़ौजी खानदान और उसके अवदान ने फिल्म को उदात्तता प्रदान की है.

वतनपरस्ती की नई मिसाल कायम करने के लिए ;राज़ीके सहमत जैसे पात्र काम आते हैं. यों अच्छी और वफ़ादार लड़की की कहानी भी कोई नई नहीं है. हाँध्यान दीजिएगा कि नाम का चुनाव सोचा-समझा है. राज़ी और सहमत समानार्थक हैं और राष्ट्रवादी परियोजना में अपनी मर्जी से शामिल होने को रेखांकित करता है यह नाम. वास्तव में यही इसकी सफलता है ! सहमत का समझदार पाकिस्तानी पति जो उसे प्यार करता है वह राज़ फ़ाश होने के बाद भी उसकी वतनपरस्ती और अपनी वतनपरस्ती को तराजू के पलड़ों पर बराबर रखता है. सोचिए भला ! यह वतनपरस्ती कितनी वज़नदार है ! दुश्मन देश का बंदा चोट खाकर भी सहमत की महानता से अभिभूत है तो ऐसे में दर्शक के तौर पर हमारा क्या कर्तव्य है ?

यह भी न भूलें कि 'राज़ीफिल्म की नायिका सहमत खान भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट कमांडर हरिंदर सिक्का के 2008 में छपे 'कॉलिंग सहमतउपन्यास की नायिका है. लेकिन वह.काल्पनिक पात्र नहीं है. हरिंदर सिक्का का उपन्यास सच्ची घटनाओं पर आधारित होने का दावा करता है. उस पर बनी इस फिल्म ने गारे में कितना तोला सच लिया और कितना मसाला मिलायाइसका मसला नहीं है. मसला यह है कि गारे से इमारत कौन सी खड़ी की जा रही है.

'राज़ीमें सहमत वह लड़की है जो हत्या करने के बाद विचलित होती हैआखिर हिंदुस्तानी दिल है उसके पास. उसके पहले राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाते समय उसमें 'भारतीय स्त्रियोचित करुणाकी झलक मिलती हैलेकिन उसे दुविधा नहीं है. पहली बार हिंसा के तरीके और मकसद पर वह सवाल उठाती है तब जब उसका पति इस खेल में मारा जाता है. निर्देशकीय सावधानी यह बरती गई है कि सहमत सीधे अपने पति के परखचे उड़ाने के पाप का भागी नहीं बनती है. इतना ही नहींवह उस योजना की हिस्सेदार भी नहीं है. यह इंतहा है किसी भी तरह की भक्ति की परीक्षा की ! यही वह क्षण है जब सहमत विरक्त होकर हिंदुस्तान वापस आ जाती है. एक तरह से उसका मिशन भी पूरा हो चुका है. उसकी जासूसी से पाकिस्तानी सेना की विनाशकारी हरकतों का अंदाजा हिंदुस्तानी बुद्धिमान जांबाजों द्वारा लगा लिया गया है और पाकिस्तान के खेमे में घबराहट फ़ैल गई है. इसलिए सहमत पर भावुक और कमज़ोर होनेकर्तव्य निष्ठा में कमी का आरोप नहीं लगाया जा सकता है. न आम दर्शकों द्वारा न ख़ास समीक्षकों द्वारा ! यहाँ पर फिल्म की सफलता देखी जा सकती है.

फिल्म की निर्देशिका मेघना गुलज़ार का पूरा ध्यान नायिका की अपने राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता को स्थापित करने पर है. और उसे यह मौका देकर राष्ट्र-राज्य की उदारता को वे सामने लाती हैं जो उनकी भाषा में बाँहें फैलाकर कश्मीरी मुसलमान को अपने में समेट रहा है ! Inclusion की ऐसी रणनीति सरलीकृत और सतही समझ पर टिकी है. पाकिस्तान का नज़ारा तो देखने लायक है. वहाँ दो जगह पर हलके से CRUSH INDIA लिखा हुआ दिखाकर फिल्म आगे बढ़ जाती हैपर साफ़ समझ में आता है कि यह हिंसा को तार्किक और जायज़ ठहरने की कोशिश है. वास्तव में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के उलझे हुए रिश्ते की कोई जटिलता सामने नहीं आती है.

मैं सोच रही थी कि 'राज़ीफिल्म में केवल यह तब्दीली की जाए कि नायिका सहमत हिंदुस्तानी नहींपाकिस्तानी जासूस हो तो क्या प्रतिक्रिया होगी. सरहद की इस पार की सहमत हिंसक कृत्य में भागीदारी के बावजूद जहाँ पवित्र है वहीं फ़र्ज़ कीजिए यदि वह सरहद के उस पार की होती तो पूरी संभावना है कि उतनी ही अपवित्र करार दी जाती. शायद यह कहा जाएगा कि पाकिस्तानी लड़की तक इतनी खतरनाक और जुनूनी होती है तब भला पाकिस्तानी मर्द का क्या कहा जाए !

फिलहाल इतना ही. फिल्म की नायिका के रूप में आलिया भट्ट के अभिनय या बाकियों के अभिनयसिनेमेटोग्राफ़ीनिर्देशनगीत-संगीतसंपादन वगैरह पर टिप्पणी करने का न मेरा दिल है न उसकी ज़रूरत है और न ही मुझमें उसकी बहुत सलाहियत है. मैं परेशान हूँ फिल्म से ज़्यादा उसको पसंद करनेवालों की सूची देखकर. मानती हूँ कि मतभेद की गुंजाइश हर जगह है और रहनी चाहिए. यही लोकतांत्रिक है. फिर भी भावुकता का पर्दा हमारी नज़र को धुँधला रहा हैइसे लेकर चिंता है. 

फिल्म में विभा सराफ और हर्षदीप कौर की आवाज़ में 'दिलबरो दिलबरो' जैसे गीत और कश्मीरी धुन के पुटवाले संगीत हमारे कान को ही नहीं, मन को भी अच्छे लगते हैं. क्यों ? मौका है बेटी की शादी और विदाई का. हमारे लगभग हर समाज में चलन यही है कि बेटी पराये घर जाती है. एक यही मौका है जब उसका दहलीज़ पार करना सबको अच्छा लगता है और सबकी इज्ज़त बढ़ाता है. और जब इस गीत में ये पंक्तियाँ आती हैं “बाबा मैं तेरी मलिका/ टुकड़ा हूँ तेरे दिल का / एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे” तब हमें पता है कि यहाँ ‘दहलीज़’ शब्द केवल घर की देहरी के लिए नहीं है, बल्कि इसका विस्तार हो गया है और वह देश की दहलीज़ को बता रहा है. यह दहलीज़ और अधिक ऊँची है ! इस अहसास के साथ ही बेटी के प्रति प्यार के आवेग में कुर्बानी का आवेग मिल जाता है. उसको पार करने में ‘बाबा’ का सहयोग मिल रहा है जो उसकी पवित्रता को बढ़ा रहा है. गीत के प्रवाह के साथ हम सब दर्शक और श्रोता सहमत की यात्रा को धर्मयात्रा मानकर उसमें मानसिक रूप में शामिल हो जाते हैं. 

वहाँ से मुड़कर वापस नहीं देखना है – “मुड़कर न देखो दिलबरो”. गीत की टेक बार-बार राष्ट्रीय कर्तव्य की याद दिलाता है. गीतकार गुलज़ार का तर्क साफ़ है – “फसलें जो काटी जाएँ उगती नहीं हैं / बेटियाँ जो ब्याही जाएँ मुड़ती नहीं हैं”. और आगे का सफ़र लंबा और दर्द भरा है. यह तय ही नहीं है, बल्कि काम्य है. किसी ने किसी पर थोपा नहीं है. लड़की का स्वर आता है – “ऐसी बिदाई हो तो / लंबी जुदाई हो तो / दहलीज़ दर्द की भी पार करा दे”. आखिर धर्मयात्रा में जाने का सौभाग्य खुशनसीबों को ही मिलता है, इसलिए दहलीज़ पार करा देने का इसरार किया जाता है.  

गीत के बोल सुनते हुए मैं संगीत के बारे में सोच रही थी, जिसकी बारीकियाँ एकदम नहीं जानती हूँ. धुन, वाद्य यंत्रों के चुनाव और गति पर ध्यान गया मेरा. मेरी नज़र में “दिलबरो दिलबरो” की पुरसुकून और दिलकश धुन राष्ट्रवादी भावुकता को ही लेकर आती है. उसमें “फसल” का उपमान लेना अकारण नहीं आया है. यह राष्ट्र और जेंडर की अवधारणा के गुत्थमगुत्था होने का परिणाम है. यह “फसल” – राष्ट्रीय उत्पाद है. गीत के बीच में पिता का  स्वर उभरता है – “मेरे दिलबरो / बरफें गलेंगी फिर से / मेरे दिलबरो / फसलें पकेंगी फिर से / तेरे पाँव के तले / मेरी दुआएँ चले”. पिता बेटी की कुर्बानी दे रहे हैं, लेकिन देश के लिए दी जा रही वह कुर्बानी महान है. माँ खामोशी से इसमें शामिल है. कुर्बानियों का यह सिलसिला रुकेगा भी नहीं – “फसलें पकेंगी फिर से” जबतक राष्ट्र को इसकी ज़रूरत रहेगी.  
https://www.youtube.com/watch?v=WqUXVw0WlXc