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रविवार, 12 मई 2024
टेबुल क्लॉथ : एक भेंट (Tablecloth by Nandkishore Nawal)
आज से कई वर्ष पूर्व
तुमने मुझे जो टेबुल क्लॉथ भेंट किया था,
वह आज भी मेरी टेबुल पर ज्यों का त्यों बिछा है,
गंदा होने पर
न मैंने इसे धोबी को दिया,
न स्वयं ही साबुन से साफ किया -
यह सोचकर
कि इससे कहीं तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श धुल न जाय,
कि इससे कहीं तुनहारे अधरों का चिह्न न मिट जाय,
जिसे तुमने सुई से धागा काटते समय इस पर अंकित किया होगा ...
आज यह 'क्लॉथ' निःसंदेह कुछ म्लान पड़ गया है,
लेकिन कौन देखता है यह म्लानता ?
इस म्लानता से ऊपर,
मेरे मन पर चाँदनी-सा बिछा है
तुम्हारा यह टेबुल क्लॉथ,
जिसमें तुम्हारी उँगलियों और अधरों के तारक-चिह्न अंकित हैं ...
- 10.01.59
कवि - नंदकिशोर नवल
संकलन - उदय-वेला
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2014
एक ऐसी कविता जिसमें माँ और पापा दोनों हैं। वह भी तब जब दोनों नहीं हैं। पापा को गए ठीक चार साल हुए। लगभग यही वक्त रहा होगा। माँ को गए तीन महीने होने को आए। सोच रही हूँ कि क्या वही टेबुल क्लॉथ बिछाकर दोनों आमने-सामने बैठे होंगे - पापा हमेशा की तरह लिखते-पढ़ते हुए और माँ उनका डिक्टेशन लेती हुई या उनका लिखा सुनती हुई! माँ हमारे सामने पापा की प्रेम कविताओं का ज़िक्र भी नहीं करती थी, मगर कभी कभी कुछ घटनाओं के बारे में बताती थी जो कविताओं में दर्ज मिलते थे। किशोरावस्था में मुझे यह सब देखकर बहुत मज़ा आता था। आज जब संग्रह उठाया तो देखा कि पापा का समर्पण जीवन-संगिनी को ही है। इस संग्रह में संजय शांडिल्य और पापा की कविताएँ हैं।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंYhhh
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