पृष्ठ

रविवार, 15 सितंबर 2013

हज़ल (Hazal by Meeraji)

जीना जीना कहते हो, कुछ लुत्फ़ नहीं है जीने में 
साँस भी अब तो रुक-रुककर चलता है अपने सीने में 

हम तो तुम्हें दाना समझे थे, भेद की बात बता ही दी 
इस दिन को हम कहते थे क्या फ़ायदा ऐसे पीने में!

बढ़े जो चाह तो बढ़ती जाए, घटे तो घटती जाती है 
दिल में चाह की बात है ऐसी जैसे चाँद महीने में 

कोठा-अटारी, मंजिल भारी, हौसले जी के निकालेंगे 
सामना उनसे अचानक हो जाए जो किसी दिन ज़ीने में 

जब जी चाहा, जिसको देखा, दिल ने कहा ये हासिल है 
कैसे-कैसे हीरे रक्खे हैं यारों के दफ़ीने में 

मेरा दिल तो मेरा दिल है, सबका दिल क्यों बनने लगा !
जामे-जम का हर इक जल्वा है मिरे दिल के नगीने में 

हम तो अपनी आँख के रोगी, दुश्मन दुश्मन की जाने 
चाहत की कैफ़ीयत है ये, बात नहीं वो कीने में 

औरों के आईने में तू अपनी मूरत देखेगा 
हर इक सूरत झूम उठेगी जब मेरे आईने में 

'मीराजी' ने बात कही जो, ज्ञानी खोज लगाएँगे 
कहनेवालों की आँखों में, सुननेवाले के सीने में 

दाना = बुद्धिमान 
दफ़ीने = गड़े खजाने में 
जामे-जम = ईरानी बादशाह जमशेद का जाम जिसमें वह सबकुछ देख सकता था 

उर्दू शायरी में हज़ल के तीन अर्थ प्रचलित हैं : उलटबानी जैसी शायरी, बेतुकी शायरी या अश्लील शायरी। हज़लें ग़ज़ल की विधा में भी कही जा सकती हैं या किसी और विधा में भी। हज़ल को एक गंभीर साहित्यिक विधा नहीं माना जाता। हज़ल कहना कभी-कभी शायर के लिए सिर्फ़ मनबहलाव का साधन होता है।  मीराजी की अभी तक पाँच ही हज़लें उपलब्ध हैं। 

शायर - मीराजी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें