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शनिवार, 19 दिसंबर 2020

कविता और काम की ढाल (Kavita aur kaam ki dhaal by Purwa Bharadwaj)

 

कल ही एक दोस्त से बात हो रही थी कि यह साल हम सबने किस किस तरह काटा है। उमर खालिद की गिरफ़्तारी के बाद हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भी जब एक साथी ने अचानक पूछा कि कैसा चल रहा है तो क्षण भर के लिए मैं निरुत्तर हो गई थी। सवाल याद है, लेकिन उस वक्त का अपना जवाब ठीक-ठीक याद नहीं है। शायद अपने को संयत करते हुए मैंने कहा था कि साहित्य – कविता और काम ने दिलो दिमाग को ठिकाने पर रखा है। उसमें प्यार को भी जोड़ती हूँ अब। नाटककार रतन थियाम की छोटी-सी मणिपुरी भाषा की कविता ‘चौबीस घण्टा’ (अनुवाद: उदयन वाजपेयी) याद आई

समय को चौबीस घण्टों ने

जकड़ रखा है

सुकून से बात करना है तो

चौबीस घण्टों के बाहर के

समय में तुम आओ

मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूँगा

बीते हुए समय को

अभी के समय में बदलकर

पहली मुलाक़ात के

क्षण से शुरू करें !

https://rb.gy/mdwgub

अपूर्व तो सख्त हो गई ज़मीन को अपनी छेनी से हर रोज़ कोड़ते जा रहे हैं, प्रेमचंद ने जो न्याय, विवेक, प्रेम और सौहार्द की खेती की बात की है उसे मानकर। मैं उस यकीन पर यकीन करने के लिए अपने को तैयार करती रहती हूँ। अमेरिकी कवयित्री लुइज़ ग्लुक जो 2020 की साहित्य की नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, उनकी ‘अक्टूबर’ शृंखला की कविता की कुछ पंक्तियाँ बार-बार फ़्लैश करती हैं –

फिर से शीतऋतु, फिर ठण्ड

...

क्या वसंत के बीज रोपे नहीं गए थे

क्या रात खत्म नहीं हुई थी

...

क्या मेरी देह

बचा नहीं ली गई थी, क्या वह सुरक्षित नहीं थी

क्या ज़ख्म का निशान अदृश्य बन नहीं गया था

चोट के ऊपर

दहशत और ठण्ड

क्या वे बस खत्म नहीं हुईं,

क्या आँगन के बगीचे की

कोड़ाई और रोपाई नहीं हुई

https://rb.gy/hgwrao

और पापा (नंदकिशोर नवल) हर तरफ़ दिखाई पड़ते हैं। ढाँढ़स देनेवाली उनकी आवाज़ तो अब नहीं सुनाई पड़ेगी, न ही अब वे मेरे अनमनेपन को समझ पाएँगे, मगर उनके लिखे शब्द मेरे मनोभाव को पकड़ रहे हैं। उनकी एक छोटी-सी कविता है ‘दुख’ (हालाँकि वे कभी अपने रहते ऐसा नहीं बोलते थे) 

जिसे किसी ने नहीं

तोड़ा था -

उसे भी इस दुःख ने तोड़

दिया है,

जिसने किसी को नहीं

छोड़ा था,

उसने खुद को

छोड़ दिया है। 

https://rb.gy/zzr95k