Translate

भारतभूषण अग्रवाल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भारतभूषण अग्रवाल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 17 जून 2013

मुक्ति ही प्रमाण है (Mukti hi praman hai by Bharatbhushan Agrawal)



मैंने फूल को सराहा :
‘देखो, कितना सुन्दर है, हँसता है !’
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस लिया l

मैंने बौर को सराहा :
‘देखो, कैसी भीनी गन्ध है !’
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली l

मैंने कोयल को सराहा :
‘देखो, कैसा मीठा गाती है !’
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल दिया l

एक युग पहले की बातें ये
आज याद आतीं नहीं क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे मन, हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए, पीस दिए, कैद किए ?

मुक्त करो !
मुक्त करो ! –
जन्म-भर की यह यातना भी
इस ज्ञान के समक्ष तुच्छ है :
हँसी फूल में नहीं,
गन्ध बौर में नहीं,
गीत कंठ में नहीं,
हँसी, गन्ध, गीत – सब मुक्ति में हैं
मुक्ति ही सौन्दर्य का अन्तिम प्रमाण है !
                     - 24.6.1958 


कवि – भारतभूषण अग्रवाल

संकलन – भारतभूषण अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ

संपादक – अशोक वाजपेयी

प्रकाशक – राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

तुक्तक (Tuktak by Bharatbhushan Agrawal)


तीन गुण हैं विशेष कागज़ के फूल में 
एक तो वे उगते नहीं हैं कभी धूल में 
दूजे झड़ते नहीं 
काँटे गड़ते नहीं 
तीजे, आप चाहें उन्हें लगा लें बबूल में 
* * *
बारह बजे मिलीं जब घड़ी की दो सुइयाँ 
छोटी बोली बड़ी से, 'सुनो तो मेरी गुइयाँ 
कहाँ चली मुझे छोड़ ?'
बड़ी बोली भौं सिकोड़,
'आलसी का साथ कौन देगा, अरी टुइयाँ ' 
* * *
मोती ने दिए थे एक साथ सात पिल्ले 
दो थे तन्दुरुस्त और दो थे मरगिल्ले 
एक चितकबरा था 
और एक झबरा था 
सातवें की पूँछ पे थे लाल-लाल बिल्ले !
* * *
रास्ते में मिला जब अरोड़ा को रोड़ा 
थाम के लगाम झट रोक दिया घोड़ा 
उठाया जो कोड़ा 
घोड़ा ने झिंझोड़ा 
थोड़ा हँस छोड़ा, घोड़ा अरोड़ा ने मोड़ा !
* * *
टालीगंज रहते थे फूलचन्द छावड़ा 
फूलों का था शौक लिये फिरते थे फावड़ा 
बीज कुछ पूने के 
आए थे नमूने के 
माली बुलाने गए पैदल ही हावड़ा !


कवि - भारतभूषण अग्रवाल 
संकलन - भारतभूषण अग्रवाल  : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अशोक वाजपेयी
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2004

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

ब्लडप्रेशर (Blood pressure by Vishnu Dey)


इस बीमारी का कोई इलाज नहीं, असाध्य सत्ता की व्याधि में
दवा-दारु बेकार है, सही-सही पथ्य या व्यायाम - किसी से भी
क्या कुछ भी होता है ! अनिद्रा के 
फन्दे में रात कटती है,
रक्त मचल-मचल उठता है, बेदम हो कर नाड़ी छूटने लगती है l
लाल आँखें नीले आकाश पर उदार प्रान्तर पर टिका दो
ऑफ़िस की गोपनीय फ़ाइलों में आँखों का इलाज नहीं है l
अगर खुले मैदान में पेशियों की ज़ंजीर खोल दोगे,
अगर स्नायु नित्य निःस्वार्थ विराट् में मुक्तिस्नान करेंगे,
अगर दिगन्त तक फ़ैली निर्मल हवा में अपने निश्वास छोड़ोगे,
तभी शरीर सुधरेगा, उच्च ताप घटेगा ; इस की दवाई
वैद्यों के हाथ में नहीं है l  इस रोग का नुस्ख़ा है आकाश में,
धरती में, वनस्पति ओषधि में, खेत-मैदान-घास में,
पहाड़ में, नदी में, बाँध में, दृश्य जगत् के अनन्त प्रान्तर में,
प्रकृति में ह्रदय के सहज  स्वस्थ स्वप्न में रूपान्तर में ;
इस की चिकित्सा है लोगों की भीड़ में, गन्दी बस्ती की झोंपड़ियों की
                                                                                   जनता में -
जनता में या धरती में, एक ही बात है, अन्योन्य सत्ता में ll
                                                                                  - 7.3.1959


कवि - विष्णु दे
संकलन - स्मृति सत्ता भविष्यत्

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - भारतभूषण अग्रवाल 

प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1972

















 

शनिवार, 23 जून 2012

किराये का घर (Kiraye ka ghar by Bishnu Dey)



किराये का घर रूखी ज़मीन की तरह है, जड़ें जमाने में 
 बहुतेरी गर्मियाँ, बरसातें और जाड़े लग जाते हैं.
सोच रहा हूँ कविता के हिस्से में कौन सा कमरा आयेगा, 
मन को किधर बिखेरूँगा, पूरब में या पश्चिम में.

यहाँ उत्तर की तरफ खुला है, फिर भी फाल्गुन की रिमझिम में 
मन और हवा गन्ध की बहार से डोल उठते हैं,
झरझराता नीम टुनटुन चिड़िया का महीन गला खोल देता है,
घुग्घू और बुलबुल झुण्डों में 'दाना चुगने आते हैं'

तोते परम सुख से तीती निबौरियाँ ओठों में धर कर
खाते हैं और चुपचाप सोचते रहते हैं 
इन के अलावा शालिक हैं, कौए हैं, कितने ही दुलार से 
और पक्षियों को देखो, ये बराबर चीखते रहेंगे.

किराये का घर है रूखी ज़मीन, ऊसर, भूदान की तरह,
भोगने बसने के योग्य नहीं, पर उसे पाने में भी झंझट,
दलाली सलामी वगैरह की माँगों से परेशान मैं फिलहाल
उत्तर के कमरे में आ जाता हूँ, निर्विकार नीम फूलों से लदा है.

कवि - विष्णु दे 
अनुवादक - डा. भारतभूषण अग्रवाल
संग्रह - स्मृति सत्ता भविष्यत्  
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, 
पहला संस्करण - 1972