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शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

इक-इक पल हम पर भारी है (by Habeeb 'Jalib')

लोगों ही का ख़ूँ बह जाता है, होता नहीं कुछ सुल्तानों को 
तूफ़ां भी नहीं ज़हमत देते उनके संगीं ऐवानों को 

हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इनसानों पर 
ऐ ख़ालिक़े-इनसाँ, तू समझा अपने ख़ूनी इनसानों को 

दीवारों में सहमे बैठे हैं, क्या ख़ूब मिली है आज़ादी 
अपनों ने बहाया ख़ूँ इतना, हम भूल गए बेगानों को 

इक-इक पल हम पर भारी है, दहशत तक़दीर हमारी है 
घर में भी नहीं महफ़ूज़ कोई, बाहर भी है ख़तरा जानों को 

ग़म अपना भुलाएँ जाके कहाँ,  हम हैं और शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ 
हैं शाम से पहले लोग रवाँ अपने-अपने ग़मख़ानों  को 

निकलें कि न निकलें इनकी रज़ा, बंदूक़ है इनके हाथों में 
सादा थे बुज़ुर्ग अपने 'जालिब', घर सौंप गए दरबानों को  

संगीं ऐवानों को = पथरीले महलों को 
ख़ालिक़े-इनसाँ = इनसान को बनानेवाला 
शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ = रुदन का नगर 
रवाँ = गतिमान 

शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

स्कूल की लड़कियाँ (School ki ladkiyan by Zafar Jahan Begum)

जो लड़कियाँ स्कूलों में तालीम पाती हैं, तालीमे निस्वाँ के मुख़ालिफ़ीन (विरोधियों) की निगाहें उनके तमाम हालात का मुआएना निहायत गौर से करती रहती हैं l और ज़रा कोई बात ख़िलाफ़े मामूल (दस्तूर के ख़िलाफ़) नज़र आई नहीं कि फ़ौरन इसकी गिरफ़्त हो जाती है l और तमाम इलज़ाम स्कूल की तालीम पर थोप दिया जाता है l … 
मेरी एक अज़ीज़ा का कौल है कि बड़ी बूढ़ियाँ जिस नज़र से अपनी बहू और बेटी को देखती हैं, बिल्कुल उसी नज़र से स्कूल और घर की लड़कियों को देखती हैं l यानी जिस तरह कोई ऐब अगर बहू में होगा और इसी क़िस्म का या बिल्कुल वही ऐब बेटी में भी होगा तो बहू का तो साफ़ नज़र आ जाएगा, लेकिन बेटी का या तो नज़र ही नहीं आएगा या अम्दन (जान-बूझकर) नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा l  बिल्कुल यही फ़र्क़ घर और स्कूल की लड़कियों के साथ होता है l यानी जो बरताव बहू के साथ होगा वो स्कूल की लड़की के साथ होगा l और जो तरीक़ा अपनी बेटी के साथ बरता जाता है वो घर की लड़कियों के साथ बरता जाता है l … 


यह अंश 'तहज़ीबे निस्वाँ' नामक उर्दू पत्रिका  में छपी 'स्कूल की लड़कियाँ' शीर्षक रचना से लिया गया है l इसका प्रकाशन वर्ष 1927था l शिक्षा को लेकर जो व्यापक बहस तत्कालीन समाज और समुदाय में चल रही थी उसमें औरतों का स्वर और तेवर ख़ासा अलग था, इसकी  झलक इस अंश में मिलती है l 

लेखिका - ज़फ़र जहाँ बेगम 
किताब - कलामे निस्वाँ 
संपादन - पूर्वा भारद्वाज 
संकलन - हुमा खान 
प्रकाशन - निरंतर, दिल्ली, 2013
 

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)



हम्द-ओ-नात के बाद वाज़ह हो कि हर चंद इस मुल्क में मस्तूरात के पढ़ाने-लिखाने का रिवाज नहीं, मगर फिर भी बड़े शहरों में ख़ास-ख़ास शरीफ़ खानदानों की बाज़ औरतें क़ुरान मजीद का तर्जुमा, मज़हबी मसायल और नसायाह के उर्दू रिसाले पढ़-पढ़ा लिया करती हैं. मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ कि मैं भी देहली के एक ऐसे ही ख़ानदान का आदमी हूँ. ख़ानदान के दस्तूर के मुताबिक़ मेरी लड़कियों ने भी ‘क़ुरान शरीफ़’, उसके मानी और उर्दू के छोटे-छोटे रिसाले घर की बड़ी-बूढ़ियों से पढ़े. घर में रात-दिन पढ़ने-लिखने का चरचा तो रहता ही था. मैं देखता था कि हम मर्दों की देखा-देखी लड़कियों को भी इल्म की तरफ़ एक तरह की ख़ास रग़बत है. लेकिन इसके साथ ही मुझको यह भी मालूम होता था कि निरे मज़हबी ख़यालात बच्चों की हालत के मुनासिब नहीं. और जो मज़ामीन उनके पेशे-नज़र रहते हैं उनसे उनके दिल अफ़सुर्दा, उनकी तबीयतें मुन्कबिज़ और उनके ज़हन कुंद होते हैं. तब मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इख़लाक़ ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की ज़िंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोहमात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाये-रंज ओ मुसीबत रहा करती हैं, उनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करे और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनका दिल न उकताए, तबीयत न घबराये. मगर तमाम किताबखाना छान मारा ऐसी किताब का पता न मिला, पर न मिला. तब मैंने इस क़िस्से का मंसूबा बाँधा.


लेखक - नज़ीर अहमद  
किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958

1869 में अपने छोटे-से नाविल 'मिरातुल-उरूस' की भूमिका (दीबाचा) में लिखी गई डिप्टी नज़ीर अहमद  की यह बात मार्के की है।  लड़कियों व स्त्रियों की शिक्षा में पुरुषों की पहलकदमी और उनके योगदान को बिना कम करके आँके हुए इस एक उद्धरण से स्त्री शिक्षा के लक्ष्य और उसमें घरेलू शिक्षा और धार्मिक शिक्षा की भूमिका को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई की डायरी (Malala Yousafzai's diary)


सनीचर, जनवरी, 2009 : मैं डर गई हूं

कल पूरी रात मैंने ऐसा डरावना ख़्वाब देखा जिसमें फ़ौजी हेलीकॉप्टर और तालिबान दिखाई दिए। स्वात में फ़ौजी ऑपरेशन शुरू होने के बाद इस क़िस्म के ख़्वाब मैं बार-बार देख रही हूं। मां ने नाश्ता दिया और फिर तैयारी करके मैं स्कूल के लिए रवाना हो गई। मुङो स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़ौफ महसूस हो रहा था क्योंकि तालिबान ने एलान किया है कि लड़कियां स्कूल न जाएं।

आज हमारे क्लास में 27 में से सिर्फ़ 11लड़कियां हाज़िर थीं। यह तादाद इसलिए घट गई है कि लोग तालिबान के एलान के बाद डर गए हैं। मेरी तीन सहेलियां स्कूल छोड़कर अपने ख़ानदानवालों के साथ पेशावर, लाहौर और रावलपिंडी जा चुकी हैं।

एक बजकर चालीस मिनट पर स्कूल की छुट्टी हुई। घर जाते व़क्त रास्ते में मुङो एक शख़्स की आवाज़ सुनाई दी जो कह रहा था, ‘मैं आपको नहीं छोडूंगा।मैं डर गई और मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। जब थोड़ा आगे गई तो पीछे मुड़ कर मैंने देखा वह किसी और को फोन पर धमकियां दे रहा था मैं यह समझ बैठी कि वह शायद मुङो ही कह रहा है। 

सोमवार, 5 जनवरी, 2009 : ज़रक़ बरक़ लिबास नहीं पहनें 

आज जब स्कूल जाने के लिए मैंने यूनिफॉर्म पहनने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो याद आया कि हेडमिस्ट्रेस ने कहा था कि आइंदा हम घर के कपड़े पहन कर स्कूल आ जाया करें। मैंने अपने पसंदीदा गुलाबी रंग के कपड़े पहन लिए। स्कूल में हर लड़की ने घर के कपड़े पहन लिए जिससे स्कूल घर जैसा लग रहा था। इस दौरान मेरी एक सहेली डरती हुई मेरे पास आई और बार-बार क़ुरान का वास्ता देकर पूछने लगी कि ख़ुदा के लिए सच-सच बताओ, हमारे स्कूल को तालिबान से ख़तरा तो नहीं?’

मैं स्कूल ख़र्च यूनिफॉर्म की जेब में रखती थी, लेकिन आज जब भी मैं भूले से अपनी जेब में हाथ डालने की कोशिश करती तो हाथ फिसल जाता क्योंकि मेरे घर के कपड़ों में जेब सिली ही नहीं थी।

आज हमें असेम्बली में फ़िर कहा गया कि आइंदा से ज़रक़ बरक़ (तड़क-भड़क, रंगीन) लिबास पहन कर न आएं क्योंकि इस पर भी तालिबान ख़फ़ा हो सकते हैं।

बुधवार, 14 जनवरी, 2009 शायद दोबारा स्कूल ना आ सकूं

आज मैं स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़फा थी क्योंकि कल से सर्दियों की छुट्टियां शुरू हो रही हैं। हेडमिस्ट्रेस ने छुट्टियों का एलान तो किया तो मगर मुक़र्रर तारीख़ नहीं बताई। ऐसा पहली बार हुआ है। पहले हमेशा छुट्टियों के ख़त्म होने की मुक़र्रर तारीख़ बताई जाती थी। इसकी वजह तो उन्होंने नहीं बताई, लेकिन मेरा ख़याल है कि तालिबान की जा
निब से पंद्रह जनवरी के बाद लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी के सबब ऐसा किया गया है।

इस बार लड़कियां भी छुट्टियों के बारे में पहले की तरह ज़्यादा ख़ुश दिखाई नहीं दे रही थीं क्योंकि उनका ख़याल था कि अगर तालिबान ने अपने एलान पर अमल किया तो शायद स्कूल दोबारा न आ सकें।

जुमेरात, 15 जनवरी, 2009 तोपों की गरज से भरपूर रात

पूरी रात तोपों की शदीद घन गरज थी जिसकी वजह से मैं तीन मर्तबा जग उठी। आज ही से स्कूल की छुट्टियां भी शुरू हो गई हैं, इसलिए मैं आराम से दस बजे उठी। बाद में मेरी क्लास की एक दोस्त आई और हमने होमवर्क के बारे में बात की।

आज पंद्रह जनवरी थी यानी तालिबान की तरफ़ से लड़कियों के स्कूल न जाने की धमकी की आख़िरी तारीख़। मगर मेरी दोस्त कुछ इस एत्माद से होमवर्क कर रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

आज मैंने मक़ामी अख़बार में बीबीसी पर शाया होनेवाली अपनी डायरी भी पढ़ी। मेरी मां को मेरा फ़र्ज़ी नाम गुल मकईबहुत पसंद आया और अब्बू से कहने लगी कि मेरा नाम बदल कर गुल मकई क्यों नहीं रख लेते। मुङो भी यह नाम पसंद आया क्योंकि मुङो अपना नाम इसलिए अच्छा नहीं लगता कि इसके मानी ग़मज़दा:के हैं।

अब्बू ने बताया कि चंद दिन पहले भी किसी ने डायरी की प्रिंट लेकर उन्हें दिखाई थी कि ये देखो स्वात की किसी तालिबा कि कितनी ज़बरदस्त डायरी छप रही है। अब्बू ने कहा कि मैंने मुस्कराते हुए डायरी पर नज़र डाली और डर के मारे यह भी न कह सका कि हां, यह तो मेरी बेटी की है।



लेखिका - गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई
मूल स्रोत - बीबीसी उर्दू वेबसाइट 
उर्दू से हिन्दी अनुवाद- नासिरूद्दीन
प्रकाशक - जेण्डर जिहाद ब्लॉग    https://www.facebook.com/genderjihad, http://t.co/fZ8vD99L


रविवार, 12 अगस्त 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)




लिखने को लोगों ने नाहक़ बदनाम कर रखा है कि मुश्किल है मुश्किल. कुछ भी मुश्किल नहीं है. लेकिन फ़र्ज़ करो कि पढ़ने की निस्बत लिखना कुछ मुश्किल है तो वैसी ही उसकी मुनफ़अतें भी हैं. जो शख़्स पढ़ना जानता है और लिखना नहीं जानता उसकी मिसाल उस गूँगे की सी है जो दुसरे की सुनता और अपनी नहीं कह सकता. अगर कोई शख़्स शुरू-शुरू में किसी किताब से ज़्यादा नहीं एक सतर दो सतर रोज़ नक़ल किया करे और इसी तरह अपने दिल से बनाकर लिखा करे और इस्लाह लिया करे और नक़ल करने और लिखने में झेंपे और झिझके नहीं तो ज़रूर चंद महीनों में लिखना सीख जायगा. खुशख़ती से मतलब नहीं. लिखना एक हुनर है जो ज़रूरत के वक्त बहुत काम आता है. अगर ग़लत हो या हर्फ़ बदसूरत और नादुरुस्त लिखे जायँ तो बेदिल होकर मश्क़ को मौकूफ़ मत करो. कोई काम हो इब्तदा में अच्छा नहीं हुआ करता. अगर किसी बड़े आलिम को एक टोपी कतरने और सीने को दो जिसको कभी ऐसा इत्तिफ़ाक़ न हुआ हो वो ज़रूर टोपी ख़राब करेगा. चलना-फिरना जो तुमको अब ऐसा आसान है कि बेतकल्लुफ़ दौड़ी-दौड़ी फिरती हो, तुमको शायद याद न रहा हो कि तुमने किस मुश्किल से सीखा. मगर तुम्हारे माँ-बाप और बुज़ुर्गों को बखूबी याद है कि पहले तुमको बेसहारे बैठना नहीं आता था. जब तुमको गोद से उतारकर नीचे बिठाते एक आदमी पकड़े रहता था. या तकिये का सहारा लगा देते थे. फिर तुमने गिर-पड़कर घुटनों चलना सीखा. फिर खड़ा होना लेकिन चारपाई पकड़कर. फिर जब तुम्हारे पाँव ज़्यादा मज़बूत हो गए रफ़्ता-रफ़्ता चलना आ गया मगर सदहा मर्तबा तुम्हारे चोट लगी और तुमको गिरते सुना. अब वही तुम हो कि खुदा के फ़ज़्ल से माशा-अल्लाह दौड़ी-दौड़ी फिरती हो. इसी तरह एक दिन लिखना भी आ जायगा. और फ़र्ज़ करो तुमको लड़कों की तरह अच्छा लिखना न भी आया तो बक़दरे ज़रूरत तो ज़रूर आ जायगा और यह मुश्किल तो नहीं रहेगी कि धोबन की धुलाई और पीसने वाली की पिसाई के वास्ते दीवार पर लकीरें खींचती फिरो. या कंकर-पत्थर जोड़कर रखो. घर का हिसाब ओ किताब लेना-देना ज़बानी याद रखना मुश्किल है. और बाज़ मर्दों की आदत होती है कि जो रुपया-पैसा घर में दिया करते हैं उसका हिसाब पूछा करते हैं. अगर ज़बानी याद नहीं है तो मर्द को शुबहा होता है कि यह रुपया कहाँ खर्च हुआ और आपस में नाहक़ बदगुमानी पैदा होती है. अगर औरतें इतना लिखना भी सीख लिया करें कि अपने समझने के वास्ते काफ़ी हो तो कैसी अच्छी बात है.


   लेखक - नज़ीर अहमद  
   किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
   हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
   प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958


'उर्दू भाषा की घरेलू जीवन की शिक्षा देने वाली अमर रचना' के रूप में   मशहूर डिप्टी नज़ीर अहमद का यह छोटा-सा नाविल मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण) वाकई महत्त्वपूर्ण है. इसे उन्होंने अपनी बेटी के पढ़ने के लिए लिखा था. आगे जाकर "यह किताब जिसके अरबी नाम को बदलकर लोगों ने 'अकबरी असग़री की कहानी' कर लिया था, न सिर्फ़ लड़कियों की बल्कि बड़ी उम्र के मर्दों और औरतों की भी सबसे महबूब किताबों में शुमार होती थी." इसमें क्या, अधिकांश जगह लड़कियों की तालीम के मकसद को लेकर बहस की जा सकती है, लेकिन इसके अंदाज़े बयान का जादू सब पर चलके रहता है. इस किताब का पहला बाब यानी अध्याय है - 'तमहीद के तौर पर औरतों के लिखने-पढ़ने की ज़रूरत और उनकी हालत के मुनासिब कुछ नसीहतें'. प्रस्तुत अंश उसी से है.      

शनिवार, 14 जुलाई 2012

क़ब्रिस्तान में औरतों की रूहें (Kabristan mein auraton ki roohein by Zahida Hina)


...ख़बर कुछ यूँ है कि कराची से पाँच सौ किलोमीटर के फ़ासले पर ताल्लुक़ा हेडक्वार्टर ढरकी से सत्तर किमी.दूर यूनियन कौंसिल बरुथा में चार कब्रिस्तानों का पता चला है, जिनमें लगभग दो सौ औरतें दफ़न हैं, इन कब्रिस्तानों में आम लोग और बस्ती वाले दाख़िल नहीं हो सकते. यहाँ सिर्फ़ वही लोग आते हैं, जो यहाँ किसी औरत को लाकर क़त्ल करते हैं और फिर यहीं दफ़न कर देते हैं. इन क़ब्रिस्तानों की कोई चारदीवारी नहीं है और इनमें हर तरफ़ झाड़ियाँ उगी हुई हैं. आसपास के आठ-दस गाँव ख़ाली हो चुके हैं, क्योंकि इन गाँव वालों का कहना है कि रात में उन्हें क़त्ल होने वाली औरतों की रूहें नज़र आती हैं और उनके रोने की आवाजें सुनाई देती हैं.
   21 वीं सदी में हमारे यहाँ की बेशुमार गरीब और पिछड़ी हुई औरतों का यह मुक़द्दर है. उनके अंजाम पर उदास होते हुए मुझे भोपाल की रियासत याद आती है, जहाँ एक सदी से ज्यादा सिर्फ़ औरतों ने हुकूमत की. प्रिंसेस आबिदा सुल्तान याद आती हैं, जिनकी खुद-नविश्त (आत्मकथा)  उनकी मौत से कुछ दिन पहले 'मेमोरीज़ ऑफ़ अ रीबेल प्रिंसेस' के नाम से आई है. भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान ने अगर एक बाग़ी शहज़ादी की ज़िंदगी गुज़ारी तो इस बारे में हैरान नहीं होना चाहिए. फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेज़ी उन्हें बचपन से पढ़ाई गई. लकड़ी का काम और जस्त के बरतन बनाना सिखाया गया.वह कमाल की निशानेबाज़ और घुड़सवार थीं. घुड़सवारी उन्होंने उस उम्र में सीखी, जब उन्होंने चलना भी नहीं शुरू किया था. वह हॉकी और क्रिकेट खेलतीं, मौसिक़ी की शौक़ीन थीं. हारमोनियम बजातीं और हर एडवेंचर में आगे-आगे रहतीं. कार चलातीं, तो उसकी रफ़्तार से साथ बैठने वालों की चीख़ें निकल जातीं. मुहिमजूई (एडवेंचर) उनके मिज़ाज का हिस्सा थी. ऐसे में साबिक़ (पूर्व) बेगम भोपाल, सुल्तान जहाँ बेगम की निगरानी में कड़े परदे की पाबंदी करना उनके लिए एक सज़ा थी. बारह बरस की उम्र में जाकब वह वाली अहद (उत्तराधिकारी) नामज़द की गईं, तो शाही जुलूस में वह इस हुलिए में शामिल थीं कि उनका पूरा वजूद एक काले बुरके में लिपटा हुआ था और सियाह बुरके की टोपी पर ताज जगमगा रहा था. 
   यह सब कुछ आबिदा सुल्तान के लिए अज़ाब से कम न था. आख़िरकार उन्होंने रस्सियाँ तुड़ाईं, कमर से नीचे आने वाले बाल काटकर फेंके. पर्दा तर्क किया (छोड़ा) और भोपाल की सड़कों पर मोटरसाइकिल दौडाने लगीं. एक मर्तबा घर से फ़रार हुईं और भेस बदलकर हवाई जहाज़ उड़ाना सीखती रहीं. उधर भोपाल के नवाब उनकी तलाश में हिंदुस्तान भर की ख़ाक छानते रहे. शादी हुई, एक बेटा पैदा हुआ. शहज़ादी की शादी को नाकाम होना था, सो हो गई...
   प्रिंसेस आबिदा सुल्तान की खुद-नविश्त हिन्दुस्तानी अशराफिया (खानदानी लोग) की एक ऐसी औरत की कहानी है, जिसने बग़ावत के रास्ते पर क़दम रखा और अपने बाद आने वालियों के लिए नयी राहें खोलीं. यह खुद-नविश्त हमारे सामने भोपाल के महलात से मलीर (कराची) के मज़ाफात (ग्रामीण क्षेत्र) और मुल्क चीन से अमेरिका तक ज़िंदगी गुज़ारने वाली ऐसी लडकी का किस्सा है, जिसने उस अहद (ज़माने) की लड़कियों और औरतों की आँखों में ख़्वाबों के जाने कितने चिराग़ जलाए. लेकिन मुझे घोटकी (ढरकी ?) के क़ब्रिस्तान में दफ़न वे कारी औरतें याद आती हैं, जिनके लिए किसी आँख से आँसू नहीं गिरते और जिनकी क़ब्र पर कोई चिराग़ नहीं जलता . 
                                                                                           14 अगस्त, 2005

                               
                    लेखिका  - जाहिदा हिना
                    संकलन - पाकिस्तान डायरी
                    प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006