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मंगलवार, 25 नवंबर 2014

इंतज़ार की रात (Intazar ki raat by Ibne Insha)

उमड़ते आते हैं शाम के साये 
दम-ब-दम बढ़ रही है तारीकी 
एक दुनिया उदास है लेकिन 
कुछ से कुछ सोचकर दिले-वहशी 
मुस्कराने लगा है - जाने क्यों ?
वो चला कारवाँ सितारों का 
झूमता नाचता सूए-मंज़िल 
वो उफ़क़ की जबीं दमक उट्ठी 
वो फ़ज़ा मुस्कराई, लेकिन दिल 
डूबता जा रहा है - जाने क्यों ?


उफ़क़ = क्षितिज     जबीं = मस्तक 

शायर - इब्ने इंशा 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1990 

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

कबित (Kabit by Ibne Insha)

 जले तो जलाओ गोरी, पीत का अलाव गोरी 
                 अभी न बुझाओ गोरी, अभी से बुझाओ ना। 
पीत में बिजोग भी है, कामना का सोग भी है। 
                  पीत बुरा रोग भी है, लगे तो लगाओ ना। 
गेसुओं की नागिनों से, बैरिनों अभागिनों से 
                  जोगिनों बिरागिनों से, खेलती ही जाओ ना। 
आशिक़ों का हाल पूछो, करो तो ख़याल - पूछो 
                  एक-दो सवाल पूछो, बात तो बढ़ाओ ना। 


रात को उदास देखें, चाँद का निरास देखें 
                  तुम्हें न जो पास देखें, आओ पास आओ ना। 
रूप-रंग मान दे दें, जी का ये मकान दे दें 
                  कहो तुम्हें जान दे दें, माँग लो लजाओ ना। 
और भी हज़ार होंगे, जो कि दावेदार होंगे 
                  आप पे निसार होंगे, कभी आज़माओ ना। 
शे'र में 'नज़ीर' ठहरे, जोग में 'कबीर' ठहरे 
                  कोई ये फ़क़ीर ठहरे, और जी लगाओ ना। 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1990 

इस कबित (कवित्त) को नैय्यरा नूर ने कमाल का गाया है ! 


बुधवार, 18 जून 2014

या तो ये शख़्स (Ya to ye shakhsh by Ibne Insha)


सुब्ह की पहली किरन ओस में भीगी सिमटी 
हमसे कहती है, अरे जाग ज़माना जाएगा 
आज क्या उसकी नज़र में थी लगावट कोई 
ये जो सपना है इन आँखों में सुहाना जागा 
या किसी दूर के सहरा का बुलावा पाकर 
जी में है और भटकने का बहाना जागा 
महमिलों वालो कोई देर रुको तो देखो 
किससे ख़ुशबूए-वफ़ा पाके दिवाना जागा 
हर तरफ़ चीर गया वक़्त के सन्नाटे को
सरसरे-इश्क़ का वह शोर पुराना जागा 

ख़ैर अब ख़ारे-मोगीलाँ ही को मुज़्दा - यानी 
क़िस्मते-क़ैस है फिर दश्ते-तमन्ना लोगो 
ये उसी गीत की बख़्शिश है कि शब हमने सुना 
दर्दे-बेनाम कि थामे नहीं थमता लोगो 
रिश्ता-ए-जज्ब में जंजीर तो करना चाहें 
पर ये मोती कि रहे दूर ढलकता लोगो 
या तो ये शख़्स सराबों का-सा धोका होगा 
या कोई ताल समंदर से भी गहरा लोगो 


महमिलों = ऊँट पर बँधी हुई डोली (जिसमें लैला बैठी है)
ख़ारे-मोगीलाँ = बबूल का काँटा 
मुज़्दा = शुभ संवाद
सराबों = मरीचिका 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

खुर्शीद के साथ बहुत बातें याद आती हैं। उर्दू कविता और इब्ने इंशा भी !

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

नहीं होती (Naheen hoti by Ibne Insha)

शामे-ग़म की सहर नहीं होती 
या हमीं को ख़बर नहीं होती ?

हमने सब दुख जहाँ के देखे हैं 
बेकली इस क़दर नहीं होती 

नाला यूँ नारसा नहीं रहता
आह यूँ बेअसर नहीं होती 

चाँद है, कहकशाँ है, तारे हैं 
कोई शै नामांबर नहीं होती 

एक जाँ सोज़ो-नामुराद ख़लिश 
इस तरफ़ है उधर नहीं होती 

रात आकर गुज़र भी जाती है 
इक हमारी सहर नहीं होती 

बेक़रारी सही नहीं जाती 
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती 

एक दिन देखने को आ जाते 
ये हवस उम्र-भर नहीं होती 

हुस्न सबको ख़ुदा नहीं देता 
हर किसी की नज़र नहीं होती 

दिल पियाला नहीं गदाई का 
आशिक़ी दर-ब-दर नहीं होती 


नाला = क्रंदन 
नारसा = न पहुँचनेवाला 
कहकशाँ = आकाशगंगा 
शै = चीज़ 
नामांबर = पत्र ले जानेवाला 
सोज़ो-नामुराद = असफल
मुख़्तसर = संक्षिप्त 
गदाई = भिक्षा 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

इंशा जी बहुत दिन बीत चुके (Insha ji bahut din beet chuke by Ibne Insha)

इंशा जी बहुत दिन बीत चुके 
तुम तन्हा थे तुम तन्हा हो 

ये जोग-बिजोग तो ठीक नहीं 
ये रोग किसी का अच्छा हो ?
कभी पूरब में कभी पच्छिम में 
तुम पुरवा हो तुम पछुवा हो ?
जो नगरी-नगरी भटकाए 
ऐसा भी न मन में काँटा हो 
क्या और सभी चोंचला यहाँ 
क्या एक तुम्हीं यहाँ दुखिया हो 
क्या एक तुम्हीं पर धूप कड़ी 
जब सब पर सुख का साया हो 
तुम किस जंगल का फूल मियाँ 
तुम किस बगिया का मेला हो ?
तुम किस सागर की लहर भला 
तुम किस बादल की बरखा हो 
तुम किस पूनम का उजियारा 
किस अंधी रैन की ऊषा हो 
तुम किन हाथों की मेंहदी हो 
तुम किस माथे का टीका हो 

क्यों शहर तजा क्यों जोग लिया 
क्यों वहशी हो क्यों रुसवा हो 
हम जब देखें बहरूप नया 
हम क्या जानें तुम क्या-क्या हो ?


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

खुर्शीद को इब्ने इंशा पसंद थे। आज उनके लिए यह सवाल है - "क्यों शहर तजा क्यों जोग लिया ... हम क्या जानें तुम क्या-क्या हो ?"

गुरुवार, 20 जून 2013

ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन (E sooraj ki dosheeza kiran by Ibne Insha)


ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन
तुमने तो कहा था आओगी
ये काली अंधी रातों का
सब चीर अँधेरा आओगी
हाँ ले के सवेरा आओगी

हम शब-भर जागे, बैठे रहे
जब ओस ने चादर फैलाई
जब चाँद ने झलकी दिखलाई
जब अंबर पर तारे चमके
जब जंगल में जुगनू दमके
और बादल-बादल घिर आई
इक ज़ालिम-ज़ालिम तन्हाई
फिर हमने इक सपना देखा
फिर हमने इक धोका खाया
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन

तुम कौन-से दर्द का दरमाँ थीं
तुम आतीं तो क्या बुझ जातीं
ये प्यास हमारे होंठों की
ये प्यास हमारे सीने की
ये प्यास बदन की चाहत की

तुम आ जातीं तो क्या होता ?
दिल फिर भी यूँ ही तन्हा होता
ये जैसा है वैसा होता

या मुमकिन है इतना होता
ये तुमसे लिपट रोया होता
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन  


दोशीज़ा = क्वाँरी

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

            


शनिवार, 15 जून 2013

ये बातें झूठी बातें हैं (Ye batein jhoothi batein hain by Ibne Insha)


ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुस्वा बेचारा 
हैं और भी वजहें वहशत की, इंशा को रखतीं दुखियारा 
हाँ बेकल-बेकल रहता है, हो पीत में जिसने जी हारा 
पर शाम से लेकर सुब्ह तलक, यूँ कौन फिरेगा आवारा ?
ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

ये बात अजीब सुनाते हो, वो दुनिया से बेआस हुए 
इक नाम सुना और ग़श खाया, इक ज़िक्र पे आप उदास हुए 
वो इल्म में अफ़लातून बने, वो शेर में तुलसीदास हुए 
वो तीस बरस के होते हैं, वो बी.ए. एम. ए. पास हुए
ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

गर इश्क़ किया है तब क्या है, क्यों शाद नहीं आबाद नहीं 
जो जान लिए बिन टल न सके, ये ऐसी भी उफ़ताद नहीं 
ये बात तो तुम भी मानोगे, वो क़ैस नहीं, फरहाद नहीं 
क्या हिज्र का दारू मुश्किल है, क्या वस्ल के नुस्ख़े याद नहीं 
ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

वो लड़की अच्छी लड़की है, तुम नाम न लो हम जान गए 
वो जिसके लाँबे गेसू हैं, पहचान गए पहचान गए 
हाँ साथ हमारे इंशा भी उस घर में थे मेहमान गए 
पर उससे तो कुछ बात न की, अनजान रहे अनजान गए 
ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

जो हमसे कहो हम करते हैं, क्या इंशा को समझाना है ?
उस लड़की से भी कह लेंगे, गो अब कुछ और ज़माना है 
या छोड़ें या तक्मील करें, ये इश्क़ है या अफ़साना है ?
ये कैसा गोरखधंधा है, ये कैसा ताना-बाना है ?
ये   बातें  झूठी   बातें   हैं   ये   लोगों   ने   फैलाई   हैं 
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई है ?

सौदाई =  पागल           वहशत = घबराहट     
शाद = प्रसन्न              उफ़ताद = अचानक आई हुई विपत्ति 
दारू = दवा                   तक्मील = पूर्णता को पहुँचाना



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

 




मंगलवार, 7 मई 2013

इस शाम (Is shaam by Ibne Insha)


इस शाम वो रुखसत का समाँ याद रहेगा 
वो शहर, वो कूचा, वो मकाँ  याद रहेगा 

वो टीस  कि उभरी थी इधर  याद  रहेगा 
वो  दर्द  कि   उट्ठा था  यहाँ  याद  रहेगा 

हम शौक़ के शोले की लपक भूल भी जाएँ 
वो  शम्मा - फ़सुर्दा  का  धुआँ   याद रहेगा 

हाँ बज़्मे-शबाना में हमाशौक़ जो उस दिन 
हम  थे  तेरी  जानिब  निगराँ  याद  रहेगा 

कुछ 'मीर' के अबियात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे 
इक  दर्द  का  था  जिनमें  बयाँ,  याद रहेगा 

आँखों  में  सुलगती हुई वहशत  के  जलू में 
वो   हैरतो - हसरत  का  जहाँ  याद रहेगा 

जाँबख़्श - सी उस बर्गे - गुलेतर की तरावत 
वो  लम्से - अज़ीज़े -  दो  जहाँ   याद  रहेगा 

हम   भूल   सके   हैं   न   तुझे   भूल   सकेंगे 
तू    याद   रहेगा    हमें    हाँ    याद  रहेगा  



शम्मा - फ़सुर्दा = बुझता हुआ दिया        बज़्मे-शबाना =  रात की महफ़िल 
हमाशौक़ = शौक़ के साथ                      निगराँ = देखनेवाले 
अबियात = शे'र                                   मिसरे = कविता की पंक्तियाँ 
जलू = जलावतनी                                बर्गे - गुलेतर = टटके फूल की पंखुड़ी 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990


शुक्रवार, 15 मार्च 2013

इधर से पहले (Idhar se pahle by Ibne Insha)


अपने हमराह जो आते हो, इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर  से पहले

चल दिए उठ के सूए-शहरे-वफ़ा कूए-हबीब
पूछ लेना था किसी खाक़बसर  से पहले

इश्क़ पहले भी किया, हिज्र का ग़म भी देखा
इतने तड़पे हैं न घबराए न तरसे पहले

जी बहलता ही नहीं अब कोई साअत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर  से पहले

हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी
सैंकड़ों दर थे मेरी जाँ तेरे दर से पहले

चाँद से आँख मिली, जी का उजाला जागा
हमको सौ बार हुई सुब्ह, सहर  से पहले

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

शनिवार, 19 जनवरी 2013

हम उनसे अगर (Hum unse agar by Ibne Insha)


हम उनसे अगर मिल बैठते हैं क्या दोष हमारा होता है
कुछ अपनी जसारत (दिलेरी) होती है कुछ उनका इशारा होता है

कटने लगीं रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर 
या शामे-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है

हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके
ऐ बंजारो हम लोग चले, हमको तो ख़सारा (नुक़सान) होता है

दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए, कुछ शे'र कहे कुछ कॉफ़ी पी
पूछो जो मआश (आजीविका) का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है 

शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

उस आँगन का चाँद (Us aangan ka chand by Ibne Insha


अंबर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चाँद?
इंशा जी यह और नगर है, इस बस्ती की रीत यही
सबकी अपनी-अपनी आँखें, सबका अपना-अपना चाँद !
अपने सीने के मतला पर जो चमका वह चाँद हुआ
जिसने मन के अँधियारे में आन किया उजियारा,चाँद
चंचल मुस्काती-मुस्काती गोरी का मुखड़ा महताब
पतझड़ के पेड़ों में अटका पीला-सा इक पत्ता चाँद
दुख का दरिया, सुख का सागर इसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चाँद और उभरा चाँद 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

सब माया है (Sab maya hai by Ibne Insha)


सब माया है सब ढलती-फिरती छाया है
इस इश्क़ में हमने जो खोया या पाया है
जो तुमने कहा है 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
                सब माया है

हाँ गाहे-बगाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिसका रुस्वाई
बस इसके सिवा तो जो भी सवाब कमाया है 
                सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है मर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शम्मा पे देने जान पतंगा आया है
                सब माया है

मालूम हमें सब कैस मियाँ का क़िस्सा भी  
सब एक-से हैं, ये राँझा भी ये इंशा भी 
फ़रहाद भी जो इक नह्र-सी खोद के लाया है
                सब माया है

क्यों दर्द के नामे लिखते-लिखते रात करो
जिस सात समंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोखा खाया है ?
               सब माया है

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्योंकर उसका नाम लिखें
दिल उसकी चौखट चूम के वापस आया है 
              सब माया है

वो लड़की भी जो चाँदनगर की रानी थी 
वो जिसकी अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उसने भी पैग़ाम यही भिजवाया है 
              सब माया है

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोखे खाते धोखे देते हैं
हाँ ठोंक-बजाकर हमने हुक्म लगाया है
              सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शह्र से दूर इक कुटिया हमने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है 
               सब माया है 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

फ़र्ज़ करो (Farz karo by Ibne Insha)


फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों 
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों 
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो 
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो 
फ़र्ज़ करो तुम्हें खुश करने के ढूँढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों 
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सबकुछ माया हो 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990