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शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

मर्म (Marm by Raghuvir Sahay)

तू हतविक्रम श्रमहीन दीन

निज तन के आलस से मलीन

माना यह कुंठा है युगीन

        पर तेरा कोई धर्म नहीं ?

 

यह रिक्त-अर्थ उन्मुक्त छंद 

संस्मरणहीन जैसे सुगंध,

यह तेरे मन का कुप्रबंध 

         यह तो जीवन का मर्म नहीं ।


कवि - रघुवीर सहाय

किताब - रघुवीर सहाय रचनावली

संपादक - सुरेश शर्मा

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली


रविवार, 6 जून 2021

सैर पर वापसी (Sair par wapsi by Purwa Bharadwaj)

सुबह की सैर पर फिर से जाने लगना कुछ वैसा ही है जैसे आपने अपने पर लगाए लॉकडाउन में ढील दे दी हो। तीन दिन पहले जब मैं निकली तो लगा कि ऑक्सीजन तो है, शायद मैंने उसको लेना छोड़ दिया था। तभी मैंने अपने को टोका कि ऑक्सीजन की कमी तो वाकई हुई जिससे कितने लोग पार नहीं पा सके। शायद उनके हिस्से का बचा हुआ ऑक्सीजन अब हम ले रहे हैं! यह कितना बड़ा अपराधबोध है! 

तब भी जीवन तो चलता ही है। उसकी गति बढ़ाते हुए सैर पर लौटना सचमुच सुकून लेकर आया। कुत्तों और बंदरों से बचते बचाते वापस सही सलामत लौट आना रणक्षेत्र से वापसी जैसा होते हुए भी। इसमें कोई वीरता का भाव नहीं है क्योंकि कुत्तों और बंदरों की अनजान के प्रति आशंका, उनकी ऊब और खान पान की कमी पर भी ध्यान जाता है। आज जब रामजस कॉलेज के फाटक के सामने 4 कुत्तों के झुंड ने घेरा तो हमारी प्रिंगल डर से गोद में चढ़ने को हुई। दूसरी तरफ एक लड़का हस्की को लेकर जा रहा था। उसने मुझे इशारा किया कि मैं सड़क के उस छोर से जाऊँ। मैंने कदम आगे पीछे करना चाहा तो दो जगह कुत्तों ने भात उगल रखा था और एक जगह टट्टी कर रखी थी। उसे पार करने में मन भिनभिना रहा था। वह लड़का सदाशयता में अपने हस्की का पट्टा थामे रुक गया था, मगर हस्की के करीब से निकलना भी मुझे सुरक्षित नहीं लग रहा था। चार-पाँच मिनट की पैंतरेबाजी के बाद कुत्तों का झुंड ही वापस हो गया। रामजस कॉलेज के हाते में। विद्यार्थियों और शिक्षकों से भले वह हाता सूना हो, मगर सिक्योरिटी गार्ड के साथ कुत्तों ने उसे आबाद कर रखा है। यह सैर से लौटते समय  की बात है। जाते समय एकदम सन्नाटा था। इतना कि मास्क उतार देने का मन कर रहा था। 

बुधवार, 19 मई 2021

एक लड़की है अल्पना (Alpana By Purwa Bharadwaj)

एक लड़की है अल्पना। बचपन की दोस्त। आठवीं में जब बाँकीपुर स्कूल (पटना) में दाख़िला हुआ तो हमारी दोस्ती हुई थी। खूबसूरत, स्मार्ट और मस्त। समय के साथ ये खूबियाँ और अधिक निखरीं ही, मद्धम एकदम नहीं हुईं।

उन दिनों जब लड़कियों का दोस्तों के यहाँ आना-जाना मुमकिन नहीं हुआ करता था, मुझे अल्पना के घर जाने का मौक़ा मिल जाता था। पूछो कैसे? मेरे पापा का खाने-पीने में शुद्ध चीज़ों के इस्तेमाल पर बड़ा ज़ोर था। अल्पना नाला रोड की तरफ़ कांग्रेस मैदान के पास रहती थी। माँ कांग्रेस मैदान के पास की एक दुकान से सरसों का तेल पेरवा कर ले जाती थी। स्कूल के बाहर दोस्त से मिलने का यह सुनहरा अवसर मैंने पा लिया था। कभी कभी माँ के साथ रिक्शे से मैं भी कांग्रेस मैदान चली जाती थी। दुकान जिस गली में थी ठीक उसके पहले अल्पना का घर पड़ता था। मैं मोड़ पर उतर जाती थी। तेल लेने में माँ को कभी-कभी आधा घंटा लग जाता था और वह मेरे लिए पर्याप्त होता था। अल्पना भी खूब खुश होती थी। तेल हमारे मेल का कारण बना था!

1980 के दशक के शुरुआती साल थे। पुराने बैच की दोस्तों की विदाई का आयोजन था। हमने मॉडर्न रामायण को खेलना तय किया। फिल्मी गीतों के माध्यम से। हमारे सीनियर और जूनियर को मिलाकर तीन बैच की लड़कियों का मेला था रामायण का यह मंचन। रिहर्सल के बहाने क्लास छोड़ कर मटरगश्ती, स्कूल में फिल्मी गानों की धुन पर नाचने-झूमने की छूट, गंगा किनारे की तरफ़ वक़्त बेवक़्त झुंड बनाकर चलने-फिरने ने हमको किशोरावस्था की गुदगुदी दी थी। जैसा कि सबको अंदाजा था, मॉडर्न रामायण में शोख और सुंदर अल्पना को 'कास्ट' किया गया था। राम की भूमिका में या सीता की भूमिका में, मैं ठीक ठीक भूल रही हूँ। लेकिन यह याद है कि ऊँचे कद, गौरवर्ण, नाज़ुक, लंबी, मुलायम ऊँगलियों वाली अल्पना ने जींस टॉप पहना था। उसकी खिलखिलाहट और दूसरी तरफ संजीदगी ने प्रस्तुति को यादगार बना दिया था।

मॉडर्न रामायण में हमारी मौज ही मौज थी। राम और सीता एक दूसरे को देखते हैं तो गाते हैं "आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए"। भरत राम से अयोध्या लौटने का आग्रह करते हुए गाते हैं "चल चल मेरे भाई, तेरे हाथ जोड़ता हूँ"। रामायण का रोमांस हमें रोमांटिक बना रहा था और हम अपनी उस सांस्कृतिक-राजनीतिक टिप्पणी से बेखबर थे। कुछ शिक्षिकाओं ने मुस्कुराते हुए हमें कहा था कि ज़्यादा फिल्मी मत बना देना रामायण को। अल्पना इस प्रसंग को याद करते हुए हमेशा खिल उठती थी।

एक साल गाँधी मैदान में गणतंत्र दिवस की परेड के समय होनेवाले सांस्कृतिक कार्यक्रम में हम सब शामिल हुए थे. उस समय सफ़ेद कुरता-धोती के साथ पीला साफा और जूड़े के साथ साड़ी पहननेवाली लड़कियों का जोड़ा बना था. कितना रोमांचक था वह सब ! पटना के केन्द्रीय और सबसे बड़े सार्वजनिक स्थल में बड़े समूह के सामने ‘कन्या उच्च विद्यालय’ की किशोरियों का रंगबिरंगे कपड़ों में जाना उत्साहजनक अवसर था. कइयों के लिए यह बंद खिड़की का खुलना था. अल्पना जिस संपन्न परिवार से आती थी, उसके लिए बाहर आना-जाना सामान्य बात थी. फिर भी इकट्ठे जाने के नाम पर हम सब उत्सुक थे.

अल्पना स्कूल में भी एकदम सलीके से रहती थी और अभी भी। सलीका केवल पहनावे-ओढ़ावे में नहीं था, जीवन जीने में भी था। उसकी शादी की रात याद है मुझे। शादी के तुरत बाद उसने बड़ी बीमारी को झेला, ऐसे मानो कोई बड़ी विपत्ति न हो। पटना से बंबई की नियमित दौड़ लगाती रही। फिर परिवार के बारे में सोचती रही। बड़ा हादसा हुआ, लेकिन आगे बढ़ी। पति की नौकरी के साथ ख़ुश-ख़ुश शहर बदला। बेटे ने व्यस्तता के साथ नए सपने दिए। अंकल के चले जाने के झटके को बर्दाश्त करके अल्पना ने अपने छोटे भाई-बहन को सम्भाला। आंटी के अकेलेपन को भी भरने की भरपूर कोशिश की।

मुझे अल्पना से ही पहली बार पता चला कि एंजियोप्लास्टी किडनी की भी होती है। वह अपने अनुभव को डॉक्टरी नुस्ख़े की तरह बताती थी। जैसे तकलीफ़ होना और झेलना एकदम स्वाभाविक हो। उसके बाद किडनी ट्रांसप्लांट का पेचीदा, तकलीफ़देह सफ़र अल्पना ने आंटी का हाथ पकड़कर तय किया। बिस्तर पर रहने के दौरान मधुबनी पेंटिंग पर मन जमाया और कुकरी की किताब लिखने की तैयारी शुरू की। पुष्पेश पंत जी ने उसकी किताब 'माँ की रसोई से' का लोकार्पण किया था। पति का और घर भर का सहयोग बताते हुए वह थकती नहीं थी। तस्वीरों में उसके चेहरे से जो नूर टपकता दिखता है वह उसके भीतर का नूर ही है।

उसके बाद पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी। कुकरी की प्रतियोगिताओं और शो में अल्पना केवल भागीदार नहीं थी, विजेता थी। बाग़वानी का शौक़ भी परवान चढ़ने लगा था। सुबह सुबह जब अपने टेरेस के बाग़ीचे की ताज़ा पैदावार की फ़ोटो वह हमारे स्कूल के ई सेक्शन के WhatsApp group में भेजती थी तो सबका मन ललच जाता था। सब्ज़ियों की ताज़गी से अधिक अल्पना की ताज़गी हमें सुहाती थी।

अभी 24 अप्रैल को अल्पना के जन्मदिन पर जब Sindhu ने वीडियो चैट पर मिलने का प्रस्ताव रखा तब किसी ने देर नहीं की। कोविड और लॉकडाउन ने सबको अकुला दिया था। मिलने का बहाना भी जन्मदिन का था तो कुछ घंटे की नोटिस पर दिल्ली, बंबई, राँची और कलकत्ता में बसी स्कूल की सहेलियाँ जुट गयीं। बाकू (अज़रबैजान), पटना और बंबई की एक एक दोस्त नहीं जुड़ पाईं तो उनका उलाहना हमने हँसते हँसते सुन लिया। सोचा कि जल्दी ही फिर अड्डेबाज़ी होगी।

क्या पता था कि अब अल्पना नहीं मिलेगी! कोविड ने उसे दबोचा और उसको मथ डाला। आठ दिन से अपोलो में भर्ती थी। वेंटिलेटर और ICU का नाम हमें डरा रहा था। उसका होश में न होना हमारे होश छीन रहा था। रात को खबर आ गई कि अल्पना चली गई।

हमारे रसचक्र की कई प्रस्तुतियों में अल्पना चाव से आई थी। हर बार हमने फ़ोटो खिंचवाई थी। उसको मुझे कहना है कि मेरे साथ अड्डेबाज़ी छूटेगी नहीं। ग़ाज़ियाबाद के गोभी के खेत में जाकर हम जब मस्ती कर सकते हैं तो इस दुनिया के पार भी मिलकर मस्ती करेंगे।

स्कूल में हमने अपने समूह का नाम रखा था - PAVAS - P पूर्वा A अल्पना V वर्षा A अंजु S सिंधु। आज वह टूट गया।

हमारा कॉलेज अलग हो गया था, मगर हमारा संपर्क बना रहा। हम सबकी शादियों ने भी दोस्ती और दोस्त को भुलाने का काम नहीं किया। हाँ, घरेलू और वयस्क जीवन की नाना प्रकार की भूमिकाओं ने हमें व्यस्त अवश्य कर दिया था। तब भी कभी बंबई से अंजु आई तो हम होटल की लॉबी में मिल लिए, सिंधु बंबई से आई तो अंसल प्लाज़ा के गेस्ट हाउस में बैठकी ज़माने के बाद हम दिल्ली हाट में विचरने चले गए। अमेरिका से रेनी आई तो हम सब रेस्टोरेंट में मिल लिए. कविता के घर जमावड़ा हुआ तो शामिल होनेवालियों में थी पूर्णिया से नीना, बंबई से सीमा और दिल्ली से राहत दी’, अल्पना और मैं. राँची से वर्षा आई तो कनाट प्लेस में अल्पना, अंजना, राहत दी की चौकड़ी जमा ली। स्वरूपा बंबई से आई तो हम अल्पना के घर धमक गए। मॉल का चक्कर भी हम कुछ दोस्त हाथ में हाथ डालकर लगा आते थे. नुज़हत के घर ईद में समय तय करके अल्पना और मैं हमदोनों एक साथ पहुँचे थे। 

दोस्तों से मिलने का अल्पना ने कोई मौका गँवाया नहीं. खुद गाड़ी चलाती थी या ड्राइवर रहता था या कोई व्यवस्था हो वह कभी चूकी नहीं. उसके साथ coordination आसान था. कार्यक्रम बनाने में कभी लफड़ा नहीं हुआ. भले उसकी तबीयत खराब हो, मुँह पर मास्क हो, पैर में सूजन हो, खाने-पीने पर पाबंदी हो. जब उसने ठान लिया तो ठान लिया, कह दिया तो कह दिया. एक फार्म हाउस में अल्पना ने घर के पकवान का स्टॉल लगाया था तो याद से चलते समय उसने भरवाँ लाल मिर्च का अचार पकड़ा दिया था। यानी हम बहानेबाज़ अड्डेबाज़ ठहरे!

स्कूल में हमारी बस के दो ट्रिप होते थे दो रूट पर। मेरा और अंजु का एक रूट था और वर्षा-अल्पना का दूसरा रूट। छठे छमासे यदि दोनों ट्रिप को मिला दिया जाता था तो हम लड़कियों की बाँछें खिल जाती थीं। अंत्याक्षरी, धौल-धप्पा, खुसुर-फुसुर और ठहाका! उन दिनों को याद कर रही हूँ और सोच रही हूँ कि अल्पना किस रूट पर चली गई? यह कौन सी ट्रिप है?

 

 

 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

27 फरवरी (27th February by Purwa Bharadwaj)

27 फरवरी। कोई कोई तारीख कैसे टँगी रह जाती है मन में! यह वर्षगाँठ ही है, लेकिन न जन्मदिन की न शादी की। पापा से रूबरू अंतिम बार मिलने की। 

पटना जाना मेरी योजनाओं में हमेशा रहता है और बाकी कामों की तरह यह अक्सर अचानक तय होता है। पिछले साल भी ऐसा ही हुआ था। 20 फरवरी तक एक आवासीय कोर्स के संचालन में लगी हुई थी, 22-23 को अलग अलग ट्रेनिंग में सत्र था, शाहीन बाग के समर्थन में होनेवाले कार्यक्रमों में यदा कदा भागीदारी थी और 28 फरवरी को घर की एक शादी में कटक जाना था।  इसी बीच पटना में दो दिन की बैठक का प्रस्ताव आया तो मैंने जाने का निर्णय करने में विलंब नहीं किया। वाया पटना कटक जाना मुश्किल भी न था। माँ-पापा के पास चंद घंटे ही कायदे से रहना होता था, फिर भी घर जाने के आह्लाद से भरी हुई थी मैं। 

2020 की 25 फरवरी थी वह। पटना एयरपोर्ट पर उतरते ही माँ का फोन आ गया। पापा खुद कम ही करते थे क्योंकि उनको शुरू से फोन पर ठीक से सुनाई नहीं पड़ता था। माँ उनको भुच्च देहाती कहकर चिढ़ाती थी। खैर, घर पहुँचते पहुँचते 9 बज गया। माँ-पापा से मुख्तसर सी मुलाकात के बाद मैं अपनी बैठक के लिए निकल गई। देर शाम लौटकर चाय-नाश्ता चलता रहा और तब जाकर माँ-पापा से गपशप हुई। 

ठंड जाने को थी, लेकिन माँ-पापा के गर्म कपड़े उतरे न थे। दोनों की तबीयत मोटा मोटी ठीक थी। घड़ी देखकर 10 बजे पापा ने खाना खाया और खाने के बाद 10 मिनट बैठकर सोने को चले गए। माँ देर रात तक जगती है और मैं भी निशाचर हूँ, परंतु पिताजी के बत्ती बुझाने का आदेश (आदेश क्या, अनुरोध कहना ही बेहतर होगा) मानना पड़ता था। सो मुझे भी उस कमरे से जाना पड़ा। पापा के लिए नींद अहम थी। शुरू से हमने देखा है कि वे समय के कितने पाबंद थे, चाहे वह पढ़ने का समय हो, खाने का समय हो या सोने का समय हो। उसमें खलल कौन डाले ! विश्वविद्यालय से लौटकर जब रानीघाट वाले मकान में वे ऊपरी मंज़िल पर अपने कमरे में सोने जाते थे तो सबको हिदायत थी कि उनका दरवाज़ा न खटखटाए। माँ कहती थी कि अब किल्ला ठोंका गया है ! 

पिछले कुछ साल से पापा का बिस्तर माँ के कमरे में ही लगने लगा था। पिछली की पिछली बार अस्पताल से लौटने के बाद वे पढ़ने-लिखने का काम भी अधिकतर वहीं माँ के कमरे में करने लगे। मानो अकेले रहने का उनका आत्मविश्वास हिल गया हो। जबकि बचपन से हमने यही देखा था कि पापा की स्टडी ही उनका सोने का कमरा था। अब वे माँ को 24 घंटे घेरे रहते थे। स्वाभाविक रूप से माँ कभी कभी त्रस्त हो जाती थी। एक तो अपने पैर की तकलीफ के कारण माँ का चलना-फिरना सीमित हो गया था और दूसरे टीवी खोलने, बत्ती जलाने, बालकनी का दरवाजा खोलने, खिड़की का पल्ला बंद करने, पर्दा फैलाने जैसी हर बात पर पापा की पसंद-नापसंद चलने लगी थी। माँ कभी-कभी मौसी के साथ लूडो खेलती थी तो भी सामने की कुर्सी पर पापा विराजमान होते भले ही टोकते-टाकते न हों। एक बार माँ की तरफ से मैंने पापा को कहा कि अब आप वापस अपने कमरे में सोना शुरू कीजिए। माँ का कमरा सँकरा पड़ रहा था और 24 घंटे का साथ कितना भी प्रेम हो पति-पत्नी को चिढ़ाने के लिए काफी है।  लेकिन यह क्या ? पापा रोने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर मुझसे कहा कि मुझको माँ से अलग मत करो। मैंने कहा कि क्या नाटक है यह और फिर उनको समझाती रही कि इस व्यवस्था से आप दोनों को आपसी खिटपिट से छुट्टी मिलेगी। पापा ने माँ का दामन छोड़ने से सीधा इनकार कर दिया। इधर माँ भी पसीज गई। बोली कि रहने दो, आँख के सामने रहते हैं तो मन निश्चिंत रहता है।  

पापा की रुटीन निर्धारित थी (हालाँकि नहाने, खाने-पीने, पढ़ने, सोने का समय कुछ मिनट आगे-पीछे खिसकता रहता था) और उसी के मुताबिक उनसे बात करने का मौका निकालना पड़ता था। मेरी 26 फरवरी पिछले दिन की तरह निकल गई। आई 27 फरवरी। क्या पता था कि यह दिमाग में 'फ्रीज़' हो जाएगा ! इसके पहले यह तारीख छोटे  चाचा की शादी की वर्षगाँठ के रूप में यादगार थी। या 26 फरवरी को मेरे एक मौसी की शादी की सालगिरह के बाद का दिन था। कुछ सालों से गोधरा कांड के पहलेवाला दिन बनकर आमने आने लगा था। 

मुझे 27 की शाम को कटक निकलना था ताकि 28 की शादी में शामिल हो पाऊँ। आज बैठक न थी। उसकी जगह गाँधी मैदान में जो CAA विरोधी रैली थी उसमें जाना था। बहन से मिलना था। उससे मुलाकात हुई सुबह 10 बजे के करीब इनकम टैक्स गोलंबर पर। उसके पहले का वक्त रुटीन की तरह गुज़रा। पापा 9 बजे के करीब उठे। उनकी देखभाल के लिए नंदन आ जाता था तबतक। उठते ही पानी पीकर वे नहाने-धोने के व्यापार में लग गए। मुझसे कुछ खास बात नहीं हुई। माँ मेरे जाने के ख्याल से विचलित होने लगी थी। मैं सफ़र पर जाने के पहले घर लौटने का कहकर निकल गई। गाँधी मैदान में बहुत लोग मिले। कूद-कूदकर, दौड़-दौड़कर किसी के गले मिली, किसी को प्रणाम किया, किसी से खैरियत पूछी तो किसी से हाथ हिलाकर ही दुआ-सलाम हुआ। कब्बू से फ़ोटो भी खिंचवा ली। फिर निकल गई पटना विश्वविद्यालय। 

मेरी एक दोस्त की विदेश में रहनेवाली बहन को 25-27 साल पहले के अपने संस्कृत में एम. ए. के सर्टिफ़िकेट के अलावा उसका सिलेबस चाहिए था। खोजते हुए मैं पहले लाइब्रेरी फिर कहाँ कहाँ गई। साथ में बहन को भी दौड़ाया। सीनेट हाल के बगल के एक नए भवन में एक सज्जन मिले जो पापा को जानते थे और जिनके पास कुछ सूचना थी। उन्होंने संस्कृत विभाग के शिक्षक प्रो. रामगुलाम मिश्र और विभाग के कर्मी मिश्रा जी से बात कराई। सब सेवानिवृत्त, मगर परिचय का पुराना तार मुझे झंकृत कर गया ! हड़बड़ी में मिश्र जी और मिश्रा जी से बात करने में उल्टा हो गया और अपने शिक्षक रहे मिश्र जी से बात करने के दौरान मैंने शायद समुचित जवाब नहीं दिए। शायद ! इसलिए कि समय की कमी के कारण मैं जल्दी जल्दी बात कर रही थी। चूक दुरुस्त करते हुए मैंने दोनों से दुबारा बात की और खुशी की बात यह कि उन दोनों की तरफ से मुझे सही सूचना कुछ दिन बाद मिल गई जिसे मैंने अपनी दोस्त की बहन तक पहुँचा दिया। 

इस बीच पिछले दिन की बैठक की कार्यवाही पर दस्तखत करना था। उस सज्जन के साथ पटना विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मिलना तय किया जो कि उनके लिए ट्रैफिक जाम के कारण मुमकिन न हुआ। पटना कॉलेज का गेट बताया तो फिर समय का तालमेल न हुआ। आखिरकार वे एयरपोर्ट पर आकर दस्तखत ले गए। मुझे शर्म आ रही थी कि ऐसी भी क्या व्यस्तता, लेकिन पटना तो मुझे ऐसा बाँधता है कि मैं वहाँ जाकर पचास काम कर लेना चाहती हूँ, सबसे मिल लेना चाहती हूँ। माँ-पापा के पास कम समय ठहरने का मलाल रहता है, मगर संतोष भी रहता है कि कम से कम मिल तो पाई। बहरहाल, पटना विश्वविद्यालय से बुद्ध कॉलोनी वापस जाने का साधन खोजने लगी। रैली की वजह से टैक्सी नहीं मिल रही थी। रिक्शा या ऑटो लेकर (भूल गई कि क्या साधन मिला था) भागी भागी हम दो बहनें घर पहुँचीं। माँ-पापा से थोड़ी बात हुई। खाया-पीया मैंने और याद से दो-तीन फ़ोटो खिंचवाई साथ में। मुहर की तरह यह मेरी हर पटना यात्रा के लिए जरूरी हो गया था। बमुश्किल आधे-पौन घंटे रुककर मैं घर से निकलने को तैयार थी। 

माँ को गले लगाया, अपना सूटकेस उठाया और दरवाज़े तक आकर पापा को प्रणाम किया। मना करने के बावजूद पापा लिफ्ट तक जरूर आते थे। पहले तीसरी मंज़िल से नीचे तक आते थे। उसके भी पहले कभी कभी स्टेशन आते थे। इधर वे इतना विह्वल हो जाते थे कि मेरे जाते समय माँ उनको देखकर अपनी आकुलता छिपा लेती थी। पापा लिफ्ट के पास आए  तो रोने लगे मानो मुझसे फिर भेंट न होगी। पिछले कुछ सालों से यह होता चला आ रहा था और मैं जल्दी आऊँगी कहकर अपने को और उनको बहला लेती थी। उन्होंने मेरा माथा चूमा, अंतिम बार !

बुद्ध कॉलोनी में ही मेरे बचपन की दोस्त की अम्मां रहती हैं। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। मेरी दोस्त बेचैन थी। इसलिए मैं 5 मिनट के लिए घर से निकलकर उनसे मिलने चली गई। अम्मां बहुत खुश हुईं। दोस्त के भतीजा-भतीजी से मेरी पहली मुलाकात थी वह, लेकिन इस आत्मीय माहौल ने मुझे खुशी दी। मेरी बहन ने उस क्षण को भी दर्ज किया। वह तस्वीर जब मेरी दोस्त के पास सात समंदर पहुँची तो वह भावुक हो गई। 

5 तो नहीं 20 मिनट में वहाँ से निकलीं हम दो बहनें। हड़बड़ी में इस बार अपना एक बैग छोड़ आई अम्मां के घर। पलटकर गई तो देखा कि बच्चा लेकर आ रहा है। अब मुझे जाना था मौसी के पास। मौसा-मौसी, छोटे भाई की पत्नी से दशकों से भेंट नहीं हुई थी। भतीजी को तो देखा तक न था। उत्सुकता और उछाह से वहाँ सबसे मिली। चूड़े का चॉप खाया। गपशप के बाद मौसा के बगीचे के फूलों की रंगत को सराहते हुए मैं बहन के घर पहुँची। वहाँ से एयरपोर्ट, फिर भुवनेश्वर और देर रात कटक पहुँची। माँ-पापा को फोन से सुरक्षित कटक पहुँच जाने की सूचना दे दी मैंने। इधर दिल्ली की चिंताजनक खबरें आने लगी थीं। कटक के रास्ते में टैक्सी में जब मैं अपूर्व से बात कर रही थी तो दिल्ली ही दिल्ली दिमाग में था। पटना बिसर गया था। तारीख भी बदलने जा रही थी। 

मुझे आज माँ के पास होना था, लेकिन मैं नहीं हूँ। बहन की ली गई तस्वीरें हैं, इसके सहारे दिन कट जाएगा।